ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
प्राव॑ स्तो॒तारं॑ मघव॒न्नव॒ त्वां पिबा॒ सोमं॒ मदा॑य॒ कं श॑तक्रतो । यं ते॑ भा॒गमधा॑रय॒न्विश्वा॑: सेहा॒नः पृत॑ना उ॒रु ज्रय॒: सम॑प्सु॒जिन्म॒रुत्वाँ॑ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । अ॒व॒ । स्तो॒तार॑म् । म॒घ॒ऽव॒न् । अव॑ । त्वाम् । पिब॑ । सोम॑म् । मदा॑य । कम् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । यम् । ते॒ । भा॒गम् । अधा॑रयन् । विश्वाः॑ । से॒हा॒नः । पृत॑नाः । उ॒रु । ज्रयः॑ । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् । म॒रुत्वा॑न् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राव स्तोतारं मघवन्नव त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो । यं ते भागमधारयन्विश्वा: सेहानः पृतना उरु ज्रय: समप्सुजिन्मरुत्वाँ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । अव । स्तोतारम् । मघऽवन् । अव । त्वाम् । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुऽजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्ऽपते ॥ ८.३६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of the wealth and power, honour and excellence of the world of existence, pray save the celebrant, he is the protector too of your presence in the heart. Arise in the consciousness and drink the exhilarating soma of his devotion, the share he has reserved for you, O doer of a hundred acts of grace. You are the ultimate winner of all the battles of existential evolution, lord of wide space, commander of cosmic waters and winds, sole lord and master ruler of the world of reality.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाने शारीरिक, मानसिक व आत्मिक इत्यादी असे बल धारण करावे की, जे सर्वांनी प्राप्त करण्याची इच्छा करावी. या प्रयोजनाने अंतरात्म्याला दिव्य आनंदाच्या प्राप्तीची प्रेरणा दिली पाहिजे. ज्याचे अंत:करण शुद्ध व दिव्यानंदानी प्रेरित आहे त्याच जीवाला हे शक्य आहे. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (मघवन्) पूजित ऐश्वर्यशाली मेरे अन्तरात्मा! तू (स्तोतारम्) तेरे अपने गुणों की प्रशंसा कर उन्हें धारण करने हेतु प्रयत्नशील को (अव) संतुष्ट कर; और वह स्तोता (त्वाम्) तुझे (अव) प्राप्त करे; हे (शतक्रतो) इत्यादि। पूर्ववत्॥२॥
भावार्थ
व्यक्ति को चाहिए कि वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक आदि ऐसा बल धारण करे कि जिन्हें सब प्राप्त करना चाहें। इसलिए अन्तरात्मा को दिव्य आनन्द की प्राप्ति की प्रेरणा दी जाए और यह उसी जीव के लिए सम्भव है कि जिसका अन्तःकरण पावन व दिव्यानन्द से प्रेरित है॥२॥
विषय
प्रभु की उपासना और उससे प्रार्थना।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) ऐश्वयंवन् ! तू ( स्तोतारं प्र अव ) तू स्तुतिकर्त्ता, विद्वान् उपदेष्टा की अच्छी प्रकार रक्षा कर और ( त्वां प्र अव ) तू तृप्त हो ।
टिप्पणी
( पिबा सोमं० इत्यादि पूर्ववत् ) त्वां। त्वं। छान्दसो दीर्घः। अथवा सोरमादेशः। विभक्तिव्यत्ययः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ६ शक्वरी। २, ४ निचृच्छक्वरी। ३ विराट् शक्वरी । ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
स्तोता का रक्षण
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (स्तोतारं प्राव) = तू स्तोता का रक्षण कर । वस्तुतः यह स्तोता तो आपका ही रूप बन गया है। सो आप (त्वाम्) = अपने को ही (अव) = रक्षित करिये। इस रक्षण के लिये ही (सोमं पिब) = सोम का पान करिये। शिष्ट मन्त्रभाग संख्या एक पर व्याख्यात है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तोता का रक्षण करते हैं, स्तोता तो प्रभु का ही रूप है, सो प्रभु स्तोता का रक्षण करते हुए अपना ही रक्षण करते हैं।
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