ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 36/ मन्त्र 3
ऊ॒र्जा दे॒वाँ अव॒स्योज॑सा॒ त्वां पिबा॒ सोमं॒ मदा॑य॒ कं श॑तक्रतो । यं ते॑ भा॒गमधा॑रय॒न्विश्वा॑: सेहा॒नः पृत॑ना उ॒रु ज्रय॒: सम॑प्सु॒जिन्म॒रुत्वाँ॑ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्जा । दे॒वान् । अव॑सि । ओज॑सा । त्वाम् । पिब॑ । सोम॑म् । मदा॑य । कम् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । यम् । ते॒ । भा॒गम् । अधा॑रयन् । विश्वाः॑ । से॒हा॒नः । पृत॑नाः । उ॒रु । ज्रयः॑ । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् । म॒रुत्वा॑न् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जा देवाँ अवस्योजसा त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो । यं ते भागमधारयन्विश्वा: सेहानः पृतना उरु ज्रय: समप्सुजिन्मरुत्वाँ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्जा । देवान् । अवसि । ओजसा । त्वाम् । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुऽजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्ऽपते ॥ ८.३६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 36; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you protect the divine forces of existence and vest them with energy, lustre and grandeur, and thereby they reflect your presence and protect you for our perception therein. O lord, rejoice with them in the divine presence in nature and humanity and, through their ecstasy, drink the exhilarating soma of divine celebration, the share they have reserved for you in devotion, lord and doer of a hundred acts of majesty. You are the ultimate conqueror in all battles of existence, omnipresent in wide space, rolling in cosmic waters, blowing in wind shears and solely presiding over the worlds of reality.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा जीवाची इंद्रिये दिव्य गुणांकडे आकर्षित होतात तेव्हा शक्तिवान जीव त्यांना बल प्रदान करतो व या प्रकारे बलवान झालेल्या इन्द्रियांचा अधिष्ठाता जीव स्वत: तेजस्वी बनतो. जेव्हा त्याला दिव्य आनंदाची प्रेरणा मिळते तेव्हाच जीव आपल्या इंद्रियांना बलवान बनवितो.॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शतक्रतो) हे विविधकर्मरत मेरे अन्तरात्मा! तू (देवान्) दिव्यगुणों की ओर आकृष्ट इन्द्रियों को ऊर्जा बल देकर (अवसि) सन्तृप्त करता है और वे इन्द्रियाँ (त्वाम्) तुझे (ओजसा) ओजस्विता देकर प्रसन्न करती हैं। शेष पूर्ववत्॥३॥
भावार्थ
जब जीवेन्द्रियाँ दिव्यगुणों की ओर आकृष्ट होती हैं, तो शक्तिशाली जीव उन्हें बल देता है और इस प्रकार बलशाली हुई इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव स्वयं तेजस्वी हो जाता है। जीव अपनी इन्द्रियों को बलशाली तभी बनाता है जबकि उसे दिव्य आनन्द की प्रेरणा मिले॥३॥
विषय
प्रभु की उपासना और उससे प्रार्थना।
भावार्थ
( त्वां = त्वं ) तू ( देवान् ) सुख ऐश्वर्यादि के चाहने वाले विजिगीषु, एवं विद्वान् जनों को (ऊर्जा ओजसा) अन्न और बल पराक्रम से ( अवसि ) रक्षा करने में समर्थ है, अतः तू ( हे शतक्रतो मदाय सोमं पिब० ) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ६ शक्वरी। २, ४ निचृच्छक्वरी। ३ विराट् शक्वरी । ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
ऊर्जा, ओजसा
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (ऊर्जा) = बल व प्राणशक्ति के द्वारा (देवान्) = दिव्य गुणयुक्त पुरुषों का (अवसि) = रक्षण करते हैं। आप इन देवों का क्या रक्षण करते हैं, ये तो आपके ही छोटे रूप हैं। सो आप (त्वाम्) = अपने को ही (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा रक्षित करते हैं। इस रक्षण के लिये ही (सोमं पिबा) = सोम का पान करिये। शेष मन्त्र भाग मन्त्र संख्या एक पर व्याख्यात है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु बल, प्राणशक्ति व ओजस्विता के द्वारा दिव्य गुणयुक्त पुरुषों का रक्षण करते हैं।
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