ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
ज॒नि॒ता दि॒वो ज॑नि॒ता पृ॑थि॒व्याः पिबा॒ सोमं॒ मदा॑य॒ कं श॑तक्रतो । यं ते॑ भा॒गमधा॑रय॒न्विश्वा॑: सेहा॒नः पृत॑ना उ॒रु ज्रय॒: सम॑प्सु॒जिन्म॒रुत्वाँ॑ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर सहित पद पाठज॒नि॒ता । दि॒वः । ज॒नि॒ता । पृ॒थि॒व्याः । पिब॑ । सोम॑म् । मदा॑य । कम् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । यम् । ते॒ । भा॒गम् । अधा॑रयन् । विश्वाः॑ । से॒हा॒नः । पृत॑नाः । उ॒रु । ज्रयः॑ । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् । म॒रुत्वा॑न् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो । यं ते भागमधारयन्विश्वा: सेहानः पृतना उरु ज्रय: समप्सुजिन्मरुत्वाँ इन्द्र सत्पते ॥
स्वर रहित पद पाठजनिता । दिवः । जनिता । पृथिव्याः । पिब । सोमम् । मदाय । कम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । यम् । ते । भागम् । अधारयन् । विश्वाः । सेहानः । पृतनाः । उरु । ज्रयः । सम् । अप्सुऽजित् । मरुत्वान् । इन्द्र । सत्ऽपते ॥ ८.३६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord omnipotent, you are the generator of the regions of light and happiness. You are the generator of the earth. O lord of a hundred great acts of creation, accept, enjoy and protect the exhilarating portion of devotion and ecstasy of the celebrants which they have dedicated to you, and let the ecstasy move their hearts too to your satisfaction. You are the conqueror in all battles of the world between good and evil forces. You are the immanent presence in the expansive space and beyond. You are the life and energy in cosmic waters and in the mighty storms of winds, O lord of truth and justice and master saviour of the good and holy people.
मराठी (1)
भावार्थ
साधकच हा निश्चय करतो की, जीवाला शुभ कर्माचे ग्रहण करविण्यात परमेश्वराचा किती भाग आहे. तो अनुभव घेतल्यावरच साधक परमेश्वराची प्रेरणा वास्तविकरीत्या ग्रहण करू शकतो. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शतक्रतो) अनन्तकर्म करने वाले और बुद्धिमान् प्रभो! आप (दिवः जनिता) स्वयं प्रकाशित लोकों का प्रादुर्भाव करते हैं और (पृथिव्याः जनिता) स्वप्रकाश रहित धरती आदि लोकों का भी प्रादुर्भाव करते हैं। हे इन्द्र! नितान्त ऐश्वर्यवान् परमशक्तिशाली प्रभु! आप (विश्वाः पृतनाः सं सेहानः) सभी आक्रामक शक्तियों को भली-भाँति हराते हैं; (उरु जयः) आप नितान्त गतिशील (अप्सुजित्) अपने सर्वव्यापक गुण से सर्वातिशायी हैं; (मरुत्वान्) प्राणशक्ति के स्वामी हैं; (ते) आपका (यं भागम्) जितने भागग्रहण का (अधारयन्) साधकों ने मननपूर्वक निश्चय किया है, (मदाय) हर्ष प्रदान करने हेतु उतने (कम्) सुखद (सोमम्) शुभकर्मों में प्रवृत्ति को (पिब) सेवन कराएं॥४॥
भावार्थ
साधकों के द्वारा ही यह निश्चय होता है कि जीव को शुभ कर्म ग्रहण करवाने में परमेश्वर का कितना भाग है। यह अनुभव करने के बाद ही साधक परमेश्वर की प्रेरणा को वास्तव में ग्रहण कर सकता है॥४॥
विषय
प्रभु की उपासना और उससे प्रार्थना।
भावार्थ
सेहानः—सह मर्षणे, सह चक्यर्थे। चक तृप्तौ प्रतिघाते च। भ्वादिः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ६ शक्वरी। २, ४ निचृच्छक्वरी। ३ विराट् शक्वरी । ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
'दिवः पृथिव्याः ' जनिता
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (दिवः) = द्युलोक के (जनिता) = प्रादुर्भूत करनेवाले हैं। (जनिता पृथिव्याः) = इस पृथिवी के भी जनिता हैं। मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीररूप पृथिवीलोक को आप ही तो उत्पन्न करते हैं। इस मस्तिष्क व शरीर के सम्यक् विकास के लिये आप सोम का रक्षण करिये। अवशिष्ट मन्त्र भाग एक संख्या पर द्रष्टव्य है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही द्युलोक व पृथिवीलोक के उत्पत्तिकर्ता हैं। हमारे जीवनों में मस्तिष्क को दीप्त तथा शरीर को प्रभु ही दृढ़ बनाते हैं। इसके लिये आप सोम का रक्षण करिये।
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