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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    श्या॒वाश्व॑स्य सुन्व॒तस्तथा॑ शृणु॒ यथाशृ॑णो॒रत्रे॒: कर्मा॑णि कृण्व॒तः । प्र त्र॒सद॑स्युमाविथ॒ त्वमेक॒ इन्नृ॒षाह्य॒ इन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि व॒र्धय॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्या॒वऽअ॑श्वस्य । सु॒न्व॒तः । तथा॑ । शृ॒णु॒ । यथा॑ । अशृ॑णोः । अत्रेः॑ । कर्मा॑णि । कृ॒ण्व॒तः । प्र । त्र॒सद॑स्युम् । आ॒वि॒थ॒ । त्वम् । एकः॑ । इत् । नृ॒ऽसह्ये॑ । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । व॒र्धय॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्यावाश्वस्य सुन्वतस्तथा शृणु यथाशृणोरत्रे: कर्माणि कृण्वतः । प्र त्रसदस्युमाविथ त्वमेक इन्नृषाह्य इन्द्र ब्रह्माणि वर्धयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्यावऽअश्वस्य । सुन्वतः । तथा । शृणु । यथा । अशृणोः । अत्रेः । कर्माणि । कृण्वतः । प्र । त्रसदस्युम् । आविथ । त्वम् । एकः । इत् । नृऽसह्ये । इन्द्र । ब्रह्माणि । वर्धयन् ॥ ८.३६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 36; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, mighty lord of humanity, listen to the prayer of the sage creator of soma and his songs of ecstasy created with a disciplined mind and sense as well as with disciplined will and imagination, just as you listen to the songs of the sage of threefold freedom doing acts of service to humanity and divinity. You protect the sage fighter against evil, tyranny and exploitation all by yourself in the battles of humanity, thereby exalting the songs and actions in honour of divinity. Won’t you listen to me?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या पूर्वीच्या मंत्रात सांगितलेले आहे की, त्रिविध दोषांनी रहित कर्मठ मनुष्य ईश्वरीय गुणांचे ग्रहण करण्यास समर्थ होतो. या मंत्रात हे स्पष्ट केलेले आहे की, जी व्यक्ती आपल्या इंद्रियांना निरंतर आपल्या लक्ष्याकडे नेण्यात सफल होत, तीच परमेश्वराचे गुणग्रहण करण्यास पात्र ठरते. अशा व्यक्ती जेव्हा मिळून विचार करतात तेव्हा परमेश्वर कृपेने वेद स्वत: आपले रहस्य ज्ञात करवू शकतात. ॥७॥

    टिप्पणी

    विशेष : सूक्ताच्या वरील व्याख्येत ‘जीवात्मा’ व ‘परमेश्वर’ इन्द्राच्या कित्येक शक्तींचे वर्णन केलेले आहे. ‘इन्द्र’ या शब्दाने येथे राजा किंवा राजप्रमुखाचा अर्थही ग्रहण करून त्या प्रकारे व्याख्या जाणली पाहिजे.

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शक्तिशाली प्रभु! (कर्माणि कुर्वतः) स्वजीवन यात्रा में सतत कर्म करने में रत (अत्रेः) विविध दोषों से रहित व्यक्ति की स्तुति को आप (यथा अशृणोः) जिस तरह सुनते हैं तथा वैसे ही (सुन्वतः) सुख सम्पादन में लगे हुए (श्यावाश्वस्य) अपनी गतिशीलता द्वारा लक्ष्य प्राप्ति में सफल इन्द्रिय रूप अश्वों वाले साधक की वन्दना भी सुनिये। (त्वम् एक इत्) आप अकेले ही किसी सहायक के माध्यम के बिना (नृषाह्ये) प्रमुख या अग्रणी लोगों के सम्मेलन में (ब्रह्माणि) वेदविज्ञान की (वर्धयन्) व्याख्या करके (त्रसदस्युम्) शत्रु भावनाओं को भगाने में समर्थ साधक को तथा उसके इस गुण को (प्र आविथ) बनाये रखते हैं॥७॥

    भावार्थ

    इससे पहले के मन्त्र में बताया गया है कि त्रिविध दोषों से रहित कर्मठ व्यक्ति ईश्वरीय गुणों को ग्रहण करने में समर्थ होता है। यहाँ बताया गया है कि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर ले चलने में सफल बना ले, वह भी परमात्मा के गुणग्रहण करने का अधिकारी होता है। ऐसे व्यक्ति जब मिलकर विचार करें तब वेदवाक्य उन्हें प्रभु कृपा से स्वयं अपना रहस्य ज्ञात कराने लगते हैं। ७॥ अष्टम मण्डल में छत्तीसवाँ सूक्त व अठारहवाँ वर्ग समाप्त॥

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    विषय

    प्रभु की उपासना और उससे प्रार्थना।

    भावार्थ

    (कर्माणि कृण्वतः) कर्म करनेवाले (अत्रेः) ‘अत्रि’ अर्थात् त्रिविध दुःखों वा बन्धनों से रहित शुद्धात्मा जन की स्तुति को ( यथा अशृणोः ) जिस प्रकार श्रवण करता तथा उसी प्रकार ( सुन्वतः ) पूजा करने वाले ( श्यावाश्वस्य ) बलवान्, दृढ़, जितेन्द्रिय पुरुष के भी ( स्तोमम् अशृणोः ) स्तुति वचन को श्रवण करता है। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( ब्रह्माणि वर्धयन् ) अन्नों, ज्ञानों और धनों की वृद्धि करता हुआ ( नृ-साह्ये ) मनुष्यों और नायकों को वश करने में ( त्वम् एकः इत् ) तू अकेला ही ( त्रस-दस्युम् ) दस्युओं को भय देने वाले सैन्य बल को वा दस्यु से भयभीत प्रजाजन को वा ( त्रसद् अस्युम् ) भयभीत शत्रु को उखाड़ने वाले सैन्य को ( प्र आविथ ) उत्तम रीति से रक्षा कर। इत्यष्टादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ६ शक्वरी। २, ४ निचृच्छक्वरी। ३ विराट् शक्वरी । ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    त्रसदस्यु का रक्षण [ब्रह्माणि वर्धयन्]

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! इस (श्यावाश्वस्य) = गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले (सुन्वतः) = सोम का अपने में अभिषव करनेवाले वीर्यशक्ति का सम्पादन करनेवाले की प्रार्थना को आप तथा (शृणु) = उसी प्रकार सुनिये (यथा) = जैसे (कर्माणि कृण्यतः) = कर्मों को करते हुए (अत्रेः) = काम-क्रोध-लोभ से रहित पुरुष की प्रार्थना को (अशृणोः) = सुनते हैं। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (एकः इत्) = अकेले ही (ब्रह्माणि) = ज्ञानों व स्तोत्रों को (वर्धयन्) = बढ़ाते हुए, (नृषाह्ये) = युद्ध में (त्रसदस्युम्) = काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को भयभीत करनेवाले इस त्रसदस्यु को (प्र आविथ) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु उसी की प्रार्थना को सुनते हैं जो - [क] गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाला है, [ख] सोम का सम्पादन करता है, [ग] काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठता है, [घ] और यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहता है। ज्ञानों व स्तवन वृत्ति को बढ़ाते हुए प्रभु इसको 'त्रसदस्यु' बनाते हैं, काम-क्रोध-लोभ आदि से इसका रक्षण करते हैं। अगले सूक्त के ऋषि देवता भी क्रमश: 'श्यावाश्व' व 'इन्द्र' ही हैं-

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