Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 57 के मन्त्र
1 2 3 4
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेध्यः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यं वां॑ भा॒गो निहि॑तो यजत्रे॒मा गिरो॑ नास॒त्योप॑ यातम् । पिब॑तं॒ सोमं॒ मधु॑मन्तम॒स्मे प्र दा॒श्वांस॑मवतं॒ शची॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । वा॒म् । भा॒गः । निऽहि॑तः । य॒ज॒त्रा॒ । इ॒माः । गिरः॑ । ना॒स॒त्या॒ । उप॑ । या॒त॒म् । पिब॑तम् । सोम॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । अ॒स्मे इति॑ । प्र । दा॒श्वांस॑म् । अ॒व॒त॒म् । शची॑भिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं वां भागो निहितो यजत्रेमा गिरो नासत्योप यातम् । पिबतं सोमं मधुमन्तमस्मे प्र दाश्वांसमवतं शचीभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । वाम् । भागः । निऽहितः । यजत्रा । इमाः । गिरः । नासत्या । उप । यातम् । पिबतम् । सोमम् । मधुऽमन्तम् । अस्मे इति । प्र । दाश्वांसम् । अवतम् । शचीभिः ॥ ८.५७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 57; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of knowledge, adorable guides worthy of association and cooperation, this part of our yajnic pursuit of knowledge and development is reserved for you. O seekers of truth, committed to truth, come and listen to what we have to say, share and enjoy the soma pleasure of the honey sweets of peaceful advancements in knowledge, and with your powers and blessed actions protect and promote the generous and committed yajaka who surrenders to you in faith and obedience.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    आदित्य ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुषांनी सामान्य लोकांच्या जीवन यज्ञात सहभागी व्हावे. त्यांच्या आवश्यकतेनुसार आपल्या अनुभवाचा त्यांना लाभ पोचवावा. साधारण लोकांनीही त्यांचा आदर सत्कार करून त्यांच्याकडून उपदेशाचा लाभ घ्यावा व आपले जीवन सुरक्षित ठेवावे. ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (यजत्राः) संगतियोग्य (नासत्या) सदैव सत्याचार रत नर-नारियो! (अयं वां भागः निहितः) यज्ञ में तुम्हारा यह भाग सुरक्षित है; (इमाः गिरः उपयातम्) इन वैदिक वाणियों के निकट पहुँचो; वैदिक आदेशों को अपने अन्तःकरण में धारो। (अस्मे) हम साधकों के हेतु (मधुमन्तम्) मधुर सोम--प्रबोध रस (पिबतम्) अपने अन्तःकरण में सुरक्षित करो एवं (दाश्वांसम्) तुम्हें जो सब कुछ देता है-उस समर्पित भक्ति की, (शचीभिः) स्व शक्तियों व सत्क्रियाओं द्वारा, (प्र अवतम्) प्रकृष्ट रूप से रक्षा करो॥४॥

    भावार्थ

    आदित्य ब्रह्मचारी नर-नारियों को सामान्य जनों के जीवन-यज्ञ में सहभागी बनना चाहिए; उनकी आवश्यकतानुसार अपने अनुभवों से उन्हें लाभान्वित करना चाहिए। सामान्य जन भी उनका आदर-सत्कार कर उनसे उपदेश ग्रहण करें और अपना जीवन सुरक्षित बनाएं॥४॥ अष्टम मण्डल में सत्तावनवाँ सूक्त व अठाईसवाँ वर्ग समाप्त।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जीवन का तृतीय सवन।

    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) असत्य का परित्याग कर सत्य व्रत का ही पालन करने की प्रतिज्ञा करने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( यजत्रा ) यज्ञशील; दानशील होकर ( इमा गिरः उप यातम् ) इन वेद-वाणियों को प्राप्त करो। ( अयं वां भागः निहितः ) यह तुम दोनों का सेवन करने योग्य मार्ग निश्चित किया गया है। ( अस्मे ) हमारे इस ( मधुमन्तम् ) मधुर ज्ञान से युक्त ( सोमं ) उपदेश का ( पिबतं ) पान करो और ( शचीभिः ) उत्तम वाणियों, शक्तियों और सत् क्रियाओं से ( दाश्वांसम् प्र अवतम् ) ज्ञानदाता को उत्तम रीति से प्राप्त होवो और उसकी रक्षा करो। इत्यष्टाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुऋचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मधुमान् सोम का पान

    पदार्थ

    [१] (यजत्रा) = संगतिकरण द्वारा त्राण करनेवाले प्राणापानो! (अयं) = यह (वां) = आपका (भागः) = भाग (निहित:) = स्थापित हुआ है। यह सोम आपका ही भाग है, आपको इसका सेवन करना है। हे (नासत्या) = असत्य से रहित प्राणापानो । (इमाः गिरः) = इन ज्ञान की वाणियों को (उपयातम्) = समीपता से प्राप्त होओ। प्राणसाधना से सोमरक्षण द्वारा बुद्धि की तीव्रता होकर इन ज्ञान की वाणियों का ग्रहण होता है। [२] हे प्राणापानो! आप (अस्मे) = हमारे लिए (मधुमन्तं सोमं) = जीवन को अतिशयेन मधुर बनानेवाले सोम का (पिबतं) = पान करो। (दाश्वांसम्) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले को (शचीभिः) = प्रज्ञानों व कर्मों के द्वारा (प्र अवतम्) = प्रकर्षेण रक्षित करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान सोम का रक्षण करते हैं, ज्ञान की वाणियों को प्राप्त होते हैं, सोमपान द्वारा प्रज्ञानों व कर्मों का रक्षण करते हैं। इस प्राणसाधना से होनेवाले सोमरक्षण से सब दिव्यगुणों का विकास होता है। सो अगले सूक्त का देवता 'विश्वेदेवाः' है-

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top