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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    न पा॒पासो॑ मनामहे॒ नारा॑यासो॒ न जळ्ह॑वः । यदिन्न्विन्द्रं॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते सखा॑यं कृ॒णवा॑महै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । पा॒पासः॑ । म॒ना॒म॒हे॒ । न । अरा॑यासः । न । जल्ह॑वः । यत् । इत् । नु । इन्द्र॑म् । वृष॑णम् । सचा॑ । सु॒ते । सखा॑यम् । कृ॒णवा॑महै ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न पापासो मनामहे नारायासो न जळ्हवः । यदिन्न्विन्द्रं वृषणं सचा सुते सखायं कृणवामहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । पापासः । मनामहे । न । अरायासः । न । जल्हवः । यत् । इत् । नु । इन्द्रम् । वृषणम् । सचा । सुते । सखायम् । कृणवामहै ॥ ८.६१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 38; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We are neither sinners nor uncharitable nor non- yajakas as we honour and adore Indra, generous lord of showers of grace, and win his favour as a friend in our holy acts of creation and yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पूर्वी अनेक मंत्रात दाखविलेले आहे की, तो इन्द्रवाच्य परमदेव, परमन्यायी, शुद्ध, विशुद्ध, पापरहित व सदैव पापी लोकांना दंड देतो. त्यासाठी या मंत्रात उपदेश केलेला आहे. हे माणसांनो! जर तुम्ही परमेश्वराला स्वत:चा मित्र व इष्टदेव बनविण्याची इच्छा बाळगता तर संपूर्ण पाप, कुटिलता व दुर्व्यसनांना सोडून अग्निहोत्र इत्यादी शुभ कर्म करत धन विद्या इत्यादी प्राप्त करून ते सत्पात्रांना द्या व एकाच ईश्वरात प्रेमभक्ती व श्रद्धा ठेवा. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    ईश्वरः सखा कर्त्तव्य इति शिक्षते ।

    पदार्थः

    वयम् । पापासः=पापाः=सत्यादिव्रतरहिता भूत्वा । न तमिन्द्रम् । मनामहे=प्रार्थयामः । किन्तु निष्पापाः सन्तो वयं तं स्तुमः । अरायासः=अदातारः । धनं प्राप्य अरातयो भूत्वा न तं मनामहे किन्तु दातार एव सन्तः । तथा । न जह्वयः=अनग्नयः=अग्निहोत्रादिकर्मरहिताः सन्तः । न तं मनामहे । किन्तु अग्निहोत्रिणो भूत्वैवेत्यर्थः । यद्=यस्मात् कारणात् । इत्=एव । वृषणं=निखिलकामानां वर्षितारम् । इन्द्रमीशम् । नु=इदानीम् । सचा=सहैव मिलित्वा । सुते=शुभकर्मणि । सखायम्=मित्रम् । कृणवामहै=कुर्मः । इन्द्रः परमन्यायी देवोऽस्ति । स पापात् न कदापि क्षमते । अतः यः कश्चिदिन्द्रं स्वेष्टदेवं कर्तुमीहते । स प्रथमं सर्वाणि पापानि मनसापि न चिन्तयेदित्यर्थः ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर को निज सखा बनाना चाहिये, यह शिक्षा इससे देते हैं ।

    पदार्थ

    हम उपासक (पापासः) पापिष्ठ होकर उस इन्द्र की (न+मनामहे) स्तुति प्रार्थना नहीं करते, किन्तु पापों को त्याग सुकर्म करते हुए ही उसको पूजते हैं । इसी प्रकार (अरायासः) धन पाकर अदानी होकर (न) उसकी प्रार्थना नहीं करते, किन्तु दानी होकर ही और (न+जह्वयः) अग्निहोत्रादि कर्मरहित होकर भी उसकी प्रार्थना नहीं करते, किन्तु शुभकर्मों से युक्त होकर ही (यद्+इत्) जिसी कारण (नु) इस समय (वृषणम्) निखिल कर्मों की वर्षा करनेवाले (इन्द्रम्) परमात्मा को (सुते+सचा) शुभकर्म में सब कोई मिलकर (सखायम्) अपना मित्र (कृणवामहै) बनाते हैं ॥११ ॥

    भावार्थ

    पूर्व गत अनेक मन्त्रों में दर्शाया गया है कि वह इन्द्रवाच्य परमदेव परमन्यायी शुद्ध विशुद्ध पापरहित और सदा पापियों को दण्ड देनेवाला है, अतः इस मन्त्र द्वारा उपदेश दिया जाता है कि हे मनुष्यों ! यदि तुम परमात्मा को निज मित्र और इष्टदेव बनाना चाहते हो, तो निखिल पापों कुटिलताओं और दुर्व्यसनों को छोड़ अग्निहोत्रादि शुभकर्मों को करते हुए और धन विद्यादि गुण पाकर उनको सत्पात्रों में वितीर्ण करते हुए एक ही ईश्वर में प्रेमभक्ति और श्रद्धा करो ॥११ ॥

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    विषय

    परमेश्वर के ध्यान ज्ञान से कर्म करने वाला पवित्र हृदय होता है।

    भावार्थ

    ( यत् इत् नु ) जब २ भी हम हम लोग ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान्, ( सखायं ) सब के मित्र ( वृषणं ) बलवान् पुरुष को (सुते) ऐश्वर्य वा शासन मार्ग पर ( सचा कृणवामहे ) अपने साथ लेते हैं तब २ हम ( पापासः न मनामहे ) पापी होकर नहीं विचार करते, और ( अरायासः न ) तब हम दूसरे का अधिकार न देने वाले होकर भी नहीं विचारते, ( न जल्हवः ) और न ज्वलन या प्रकाश से रहित होते हैं। अर्थात् परमेश्वर या स्वामी के सदा साथ रहते हुए हममें पाप प्रवृत्ति, दूसरे के अधिकार हरण और अज्ञानीपन की दशा नहीं रह सकती है। परमेश्वर के सहयोग में हम निष्पाप, ईमानदार, और ज्ञान प्रकाश से युक्त हो जाते हैं। पापी, बेईमान, और प्रकाशहीन होकर प्रभु का मनन नहीं कर सकते।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'निष्पाप उदार ज्ञानी' उपासक

    पदार्थ

    [१] (पापासः) = पापवृत्तिवाले होकर हम (न मनामहे) = प्रभु का उपासन नहीं करते। (अरायासः न) = अपानशील बनकर भी हम प्रभु का स्तवन नहीं करते। (न) = न ही (जल्हवः) = मूर्ख बनकर हम प्रभु का भजन करते हैं। [२] निष्पाप, उदार [दानशील] व ज्ञानी बनकर (यद्) = जब (इत् नु) = निश्चय से उस (वृषणं) = सुखवर्षक (इन्द्रं) = परमेश्वर्यशाली प्रभु को उपासित करते हैं तो (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में उस इन्द्र को (सचा) = सदा साथ होनेवाला (सखायं) = मित्र (कृणवामहै) = करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- निष्पाप, दानशील व ज्ञानी बनकर हम प्रभु का उपासन करते हैं और प्रभु को अपना मित्र बना पाते हैं।

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