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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    तं हि स्व॒राजं॑ वृष॒भं तमोज॑से धि॒षणे॑ निष्टत॒क्षतु॑: । उ॒तोप॒मानां॑ प्रथ॒मो नि षी॑दसि॒ सोम॑कामं॒ हि ते॒ मन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । हि । स्व॒ऽराज॑म् । वृ॒ष॒भम् । तम् । ओज॑से । धि॒षणे॑ । निः॒ऽत॒त॒क्षतुः॑ । उ॒त । उ॒प॒ऽमाना॑म् । प्र॒थ॒मः । नि । सी॒द॒सि॒ । सोम॑ऽकामम् । हि । ते॒ । मनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं हि स्वराजं वृषभं तमोजसे धिषणे निष्टतक्षतु: । उतोपमानां प्रथमो नि षीदसि सोमकामं हि ते मन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । हि । स्वऽराजम् । वृषभम् । तम् । ओजसे । धिषणे । निःऽततक्षतुः । उत । उपऽमानाम् । प्रथमः । नि । सीदसि । सोमऽकामम् । हि । ते । मनः ॥ ८.६१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That self-ruled, self-refulgent, brave and generous human character and programme, that human republic, the heaven and earth vested with divine will and intelligence conceive, create and fashion forth for self-realisation of innate glory. O man, among similars and comparables, you stand the first and highest, and your mind is dedicated to the love of soma, peace, pleasure and excellence of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याची स्तुती प्रार्थना सर्व जग करते. ज्याचे महत्त्व हे संपूर्ण भुवन दर्शवीत आहे, तोच पूज्य आहे. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रमाहात्म्यं प्रदर्शयति ।

    पदार्थः

    धिषणे=द्यावापृथिव्यौ इमौ लोकौ । तं हि=तमेवेन्द्रं हि । ओजसे=बलाय शक्तिप्राप्तये ऐश्वर्य्याय च । निष्टतक्षतुः=अलंकुरुतः पूजयतः । तमेव पूजयतः । नान्यान् देवान् । कीदृशं=स्वराजम्=स्वयमेव राजमानम्, स्वतन्त्रतया विराजमानम् । पुनः । वृषभम्=कामानां वर्षितारम् । हे इन्द्र ! उत अपि च । त्वमेव । उपमानाम् उप=समीपे वर्तमानानां सर्वेषां पदार्थानां मध्ये । प्रथमः=श्रेष्ठः । निषीदसि=उपविशसि । हि=यतः । ते मनः सोमकामम् ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्र की महिमा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (धिषणे) ये दृश्यमान द्युलोक और पृथिवीलोक अर्थात् यह सम्पूर्ण भुवन (तम्+हि) उसी इन्द्र की (नि+ततक्षतुः) पूजा स्तुति और प्रार्थना करता है, (ओजसे) महाबल, प्रताप और ऐश्वर्य्यादि की प्राप्ति के लिये भी उसी को पूजता है । जो (स्वराजम्) सबका स्वतन्त्र राजा है, जो सदा से स्वयं विराजमान है और जो (वृषभम्) निखिल मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है । (उत) और हे परमात्मन् ! (उपमानाम्) स्वसमीप वर्तमान सब पदार्थों के मध्ये (प्रथमः) तू श्रेष्ठ और उनमें व्यापक है, (हि) हे ईश ! निश्चय (ते+मनः) तेरा ही मन (सोमकामम्) सकल पदार्थों की रक्षा करने में लगा है ॥२ ॥

    भावार्थ

    जिसकी स्तुति प्रार्थना जगत् कर रहा है, जिसका महत्त्व यह सम्पूर्ण भुवन दिखला रहा है, वही पूज्य है ॥२ ॥

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    विषय

    धिषणा नाम दो सभाओं को अपना रक्षक चुनने का अधिकार।

    भावार्थ

    ( तं ) उस ( वृषभं ) ‘वृष’ अर्थात् धर्म, राष्ट्र के उत्तम प्रबन्ध सामर्थ्य से सामर्थ्यवान् ( स्वराजं ) स्व, अपने बल से तेजस्वी, स्वयं राजा, बलशाली पुरुष को ( हि ओजसे) उसके बल पराक्रम के कारण ( धिषणे ) पृथिवी आकाशवत् शास्य शासक वर्गों की दोनों समितियां (निष्टतक्षतुः) राजा को बनावे और हे राजन् ! सभापते ! ( हि ) क्योंकि ( ते मनः ) तेरा चित्त भी ( सोम-कामं ) राष्ट्रैश्वर्यं तथा अभिषेक योग्य पद को चाहता है। इस कारण तू ( उपमानां ) सर्वोपरि उपम योग्य प्रस्तुत पुरुषों में ( प्रथमः ) सर्वश्रेष्ठ होकर ( नि षीदसि ) मुख्यासन पर विराज।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'स्वराट् वृषभ' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (तं) = उस (स्वराजं) = स्वयं देदीप्यमान, (वृषभं) = शक्तिशाली प्रभु को (हि) = निश्चय से (धिषणे) = द्यावापृथिवी (निष्टतक्षतुः) = [संचस्करतुः ] संस्कृत करते हैं। द्युलोक प्रभु की दीप्ति का आभास देता है, तो पृथिवीलोक प्रभु की शक्ति व दृढ़ता का प्रभु ने ही वस्तुतः द्युलोक को तेजस्वी व पृथिवीलोक को दृढ़ बनाया है । (तम्) = उस प्रभु को ही हम (ओजसे) = बल की प्राप्ति के लिए अपने अन्दर देखने का प्रयत्न करें। [२] (उत) = और हे प्रभों ! आप (उपमानां) = उपमानभूत देवों में (प्रथमः) = मुख्य होते हुए (निषीदसि) = हमारे हृदयों में निषण्ण होते हैं। हमने अपने पिता प्रभु जैसा ज्ञानी व शक्तिशाली बनने का प्रयत्न करना है। हमारे लिए यह कहा जाए कि वह प्रभु के समान ज्ञानी है व प्रभु के समान शक्तिशाली है। वस्तुतः ऐसे ही व्यक्ति जनता को प्रभु के अवतार प्रतीत होने लगते हैं। ते (मनः) = आपके प्रति प्रवण मन (हि) = निश्चय से (सोमकामम्) = सोम की कामनावाला होता है। प्रभु- प्रवण मन विलास में नहीं जाता और इस प्रकार सोम का रक्षण हो पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्युलोक में स्वराट् प्रभु का प्रकाश है, तो पृथिवी में शक्तिशाली प्रभु की दृढ़ता। इस प्रभु का स्मरण करते हुए हम भी 'प्रकाश व शक्ति' का सम्पादन करें। प्रभु-प्रवण मन सदा सोम का रक्षक होता है।

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