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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    श॒ग्ध्यू॒३॒॑ षु श॑चीपत॒ इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: । भगं॒ न हि त्वा॑ य॒शसं॑ वसु॒विद॒मनु॑ शूर॒ चरा॑मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒ग्धि । ऊँ॒ इति॑ । सु । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । भग॑म् । न । हि । त्वा॒ । य॒शस॑म् । व॒सु॒ऽविद॑म् । अनु॑ । शू॒र॒ । चरा॑मसि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शग्ध्यू३ षु शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभि: । भगं न हि त्वा यशसं वसुविदमनु शूर चरामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शग्धि । ऊँ इति । सु । शचीऽपते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । भगम् । न । हि । त्वा । यशसम् । वसुऽविदम् । अनु । शूर । चरामसि ॥ ८.६१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of omnipotent action and infinitely various victories, with all powers, protections and inspirations, strengthen and energise us for excellent works without delay. As the very honour, splendour and treasure-home of the universe, O potent and heroic lord, we live in pursuit of your glory to justify our existence and win our destiny.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरच जगाचे भाग्य आहे. तो यशोरूप आहे. हे माणसांनो! तो सृष्टीचे अधिदैवत आहे. त्यासाठी त्याचीच प्रार्थना करा. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे शचीपते=क्रियाधिदैवत ! “शचेः सृष्टिक्रियायाः पतिरिति शचीपतिः । ” इन्द्र=परमेश ! त्वम् । विश्वाभिः=सर्वाभिः । ऊतिभिः=रक्षाभिः सह अस्मान् । सु=सुष्ठु । शग्धि=शक्तान् समर्थान् कुरु । हि=यतः । हे शूर ! त्वा=त्वाम् । अनुचरामसि=तवाज्ञायां वयं सदा वर्तामहे । कीदृशं त्वाम् । भगन्न=अस्माकं भाग्यमिव । पुनः । यशसम्=यशःस्वरूपम् । पुनः । वसुविदम्= धनप्रापकम् ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (शचीपते) हे सृष्टिक्रियाधिदैवत (इन्द्र) हे परमेश्वर ! तू (विश्वाभिः) समस्त (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (सु) अच्छे प्रकार (ऊ) निश्चितरूप से हमको (शग्धि) सब कार्य में समर्थ कर, (हि) क्योंकि (शूर) हे महावीर ! (त्वा+अनु) तेरी ही आज्ञा के अनुसार हम लोग (चरामसि) सदा विचरण करते हैं, जो तू (भगम्+नः) जगत् का भाग्यस्वरूप है यद्वा भजनीय, सेवनीय और पूजनीय है (यशसम्) यशःस्वरूप है और (वसुविदम्) समस्त धन देनेवाला है ॥५ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर ही जगत् का भाग्य है, यह यशोरूप है । हे मनुष्यों ! वह सृष्टि का अधिदैवत है, अतः उसी की स्तुति प्रार्थना करो ॥५ ॥

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् प्रभु का पद, उस का कर्म।

    भावार्थ

    हे ( शचीपते ) सत्य वाणी और शक्ति के पालक ! हे (इन्द्र) यथार्थदर्शिन् ! तू ( विश्वाभिः ऊतिभिः ) समस्त ज्ञानों और बलों से ( सु शग्धि उ ) उत्तम रीति से सब कार्य करने में समर्थ है। ( भगं न ) ऐश्वर्यवान् के समान ही ( यशसं ) यशस्वी ( वसु-विदम् ) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला जान कर ( हि ) ही हे (शूर) शूरवीर ! ( त्वा अनु चरामसि ) हम तेरे कहे अनुसार आचरण करें, तेरा अनुगमन करें। इति पत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ऐश्वर्य यश व वसु

    पदार्थ

    [१] हे (शचीपते) = शक्तियों [कर्मों] व प्रज्ञानों के स्वामिन्! (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (विश्वाभिः) = सब (ऊतिभिः) = रक्षणों के द्वारा (उ) = निश्चय से (शग्धि) = हमारे लिए सब उत्तम पदार्थों को दीजिए। [२] (भगं न) = ऐश्वर्यपुञ्ज के समान (यशसं) = यशस्वी तथा (वसुविदं) = सब वसुओं को प्राप्त करानेवाले (त्वा) = आपको हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (हि अनुचरामसि) = निश्चय से उपासित करते हैं। आपकी उपासना हमें भी 'ऐश्वर्यशाली - यशस्वी व सब वसुओं [धनों] के प्राप्त करनेवाला' बनाएगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे शचीपति प्रभु हमें रक्षित करते हुए सब उत्तम पदार्थ प्राप्त कराते हैं। प्रभु उपासना हमें 'ऐश्वर्य यश व वसुओं' को देती हैं।

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