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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 61/ मन्त्र 16
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं न॑: प॒श्चाद॑ध॒रादु॑त्त॒रात्पु॒र इन्द्र॒ नि पा॑हि वि॒श्वत॑: । आ॒रे अ॒स्मत्कृ॑णुहि॒ दैव्यं॑ भ॒यमा॒रे हे॒तीरदे॑वीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । प॒श्चात् । अ॒ध॒रात् । उ॒त्त॒रात् । पु॒रः । इन्द्र॑ । नि । पा॒हि॒ । वि॒श्वतः॑ । आ॒रे । अ॒स्मत् । कृ॒णु॒हि॒ । दैव्य॑म् । भ॒यम् । आ॒रे । हे॒तीः । अदे॑वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं न: पश्चादधरादुत्तरात्पुर इन्द्र नि पाहि विश्वत: । आरे अस्मत्कृणुहि दैव्यं भयमारे हेतीरदेवीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । पश्चात् । अधरात् । उत्तरात् । पुरः । इन्द्र । नि । पाहि । विश्वतः । आरे । अस्मत् । कृणुहि । दैव्यम् । भयम् । आरे । हेतीः । अदेवीः ॥ ८.६१.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 61; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 39; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, pray you protect us back and front, up and down, all round. Remove from us all fear of the divinities, all dangers and strikes from the evil forces.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानव समाजाला जेवढे भय आहे तितके कोणत्या प्राण्याला नाही. याचे कारण असे की, कधी कधी उन्मत्त राजा संपूर्ण देशाला विविध यातनांनी भस्म करतो. कधी एखाद्या विशेष वंशाला नष्ट करतो. कधी अत्यंत क्रूरतेने आपल्या शत्रूला मारतो की, ते ऐकून भय उत्पन्न होते. याशिवाय शेतकरी शेती करण्यातही स्वतंत्र नाही. राजा व जमीनदार त्याच्याकडून कर घेतात. चोर डाकूचेही भय असते. त्याचप्रमाणे विद्युत्पात, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टी, महामारी इत्यादी अनेक उपद्रवांमुळे मनुष्य भयभीत असतो. त्यामुळे देवाला भय दूर करण्याची प्रार्थना आहे. ॥१६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वं नोऽस्मान् । पश्चात् । अधरात्=अधोभागात् । ऊर्ध्वभागाच्च । उत्तरात् । दक्षिणतश्च । पुरः=पुरस्तात् । किं बहुना । विश्वतः=सर्वास्मात् प्रदेशात् । निपाहि । हे देव ! अस्मद्=अस्मत्तः । दैव्यं भयमा । आरे=दूरे । कृणुहि=कुरु । पुनः । अदेवीः+हेतीः=आसुराणि चायुधानि च । आरे=कुरु ॥१६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ईश ! (त्वम्) तू (नः) हमको (पश्चात्) आगे से (अधरात्) नीचे और ऊपर से (उत्तरात्) उत्तर और दक्षिण से (पुरः) पूर्व से अर्थात् (विश्वतः) सर्व प्रदेश से (नि+पाहि) बचा । हे भगवन् ! (दैव्यम्+भयम्) देवसम्बन्धी भय को (अस्मत्) हमसे (आरे+कृणुहि) दूर करो और (अदेवीः+हेतीः) अदेवसम्बन्धी आयुधों को भी (आरे) दूर करो ॥१६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यसमाज को जितना भय है, उतना किसी प्राणी को नहीं । कारण इसमें यह है−देखा गया है कभी-२ उन्मत्त राजा सम्पूर्ण देश को विविध यातनाओं के साथ भस्म कर देता है । कभी किसी विशेष वंश को निर्मूल कर देता है । कभी इस भयङ्करता से अपने शत्रु को मारता है कि सुनने मात्र से रोमाञ्च हो जाता है । इसके अतिरिक्त खेती करने में भी स्वतन्त्र नहीं है, राजा और जमींदार उससे कर लेते हैं । चोर डाकू आदि का भी भय सदा बना रहता है । इसी प्रकार विद्युत्पात, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी आदि अनेक उपद्रवों के कारण मनुष्य भयभीत रहता है, अतः इस प्रकार की प्रार्थना आती है ॥१६ ॥

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    पदार्थ


    पदार्थ = हे इन्द्र प्रभो ! ( नः पश्चात् ) = हमारी पीछे से ( अधरात् ) = नीचे से  ( उत्तरात् ) = ऊपर से ( पुरः ) = आगे से और ( विश्वतः ) = सब ओर से ( निपाहि ) = सदा रक्षा करें। ( दैव्यम् भयम् ) = आधिदैविक भय को और ( अदेवी:) = मनुष्य और राक्षसों से होनेवाले ( हेती: ) भय को भी ( अस्मत् ) = हम से ( आरे कृणुहि ) = दूर करें ।

     

    भावार्थ

    भावार्थ = हे कृपासिन्धो परमात्मन्! पीछे से, नीचे से, ऊपर से, आगे से और सब दिशाओं से हमारी सब प्रकार सदा रक्षा करें। अग्नि, बिजली आदि होनेवाले आधिदैविक भय से और चिन्ता ज्वरादि से होनेवाले आध्यात्मिक भय, सिंह, सर्प, चोर, डाकू, राक्षस, पिशाचादिकों से होनेवाले, अनेक प्रकार के आधिभौतिक भय, हम से दूर हटावें, जिससे हम निर्भय होकर आप जगत्पिता की भक्ति में और आपकी वैदिक ज्ञान के प्रचार की आज्ञापालन में सदा तत्पर रहें ॥

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    विषय

    प्रभु से अभय की याचना।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! ( त्वं ) तू ( नः पश्चात् अधरात् उत्तरात् पुरः विश्वतः निपाहि ) हमारे पीछे से नीचे से ऊपर से आगे से और सब ओर से अच्छी प्रकार रक्षा कर। ( अस्मत् दैव्यं भयम् आरे कृणुहि ) हम से देव, विद्वान्, विजयेच्छुक व्यवहार चतुरादि जनों से उत्पन्न होने वाला भय दूर कर और ( अदेवीः हेती: आरे कृणुहि ) अविद्वान् दुष्ट जनों के शस्त्रों को भी दूर कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भर्गः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ११, १५, निचृद् बृहती। ३, ९ विराड् बृहती। ७, १७ पादनिचृद् बृहती। १३ बृहती। २, ४, १० पंक्तिः। ६, १४, १६ विराट् पंक्तिः। ८, १२, १८ निचृत् पंक्तिः॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    रक्षक प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वं) = आप (नः) = हमें (पश्चात्) = पीछे से (पुरः) = सामने से (अधरात्) = नीचे से [दक्षिण से ] तथा (उत्तरात्) = ऊपर से [उत्तर से] (विश्वतः) = सब ओर से (निपाहि) = रक्षित करिये। [२] आप (दैव्यं भयं) = आधिदैविक आपत्तियों के भय को (अस्मत्) = हमारे से (आरे) = दूर (कृणुहि) = करिये तथा (अदेवी:) = अदिव्य - राक्षसी (हेती:) = आयुधों को भी (आरे) = हमारे से दूर करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सब ओर से हमारा रक्षण करें। आधिदैविक आपत्तियों को प्रभु दूर करें तथा राक्षसी वृत्ति के लोगों के आयुधों को भी हमारे से पृथक् करें।

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্বং নঃ পশ্চাদধরাদুত্তরাৎপুর ইন্দ্র নি পাহি বিশ্বতঃ।

    আরে অস্মৎকৃণুহি দৈব্যং ভয়মারে হেতীরদেবীঃ।।৫৫।।

    (ঋগ্বেদ ৮।৬১।১৬)

    পদার্থঃ (ইন্দ্রঃ) হে ইন্দ্র ! (ত্বম্) তুমি (নঃ পশ্চাৎ) আমাদের পশ্চাৎ হতে (অধরাৎ) নিচ হতে (উত্তরাৎ) ঊর্ধ্ব হতে (পুরঃ) সম্মুখ হতে এবং (বিশ্বতঃ) সকল দিক হতে (নি পাহি) সদা রক্ষা কর। (দৈব্যম্ ভয়ম্) আধিদৈবিক ভয়কে এবং (অদেবীঃ) মনুষ্য এবং রাক্ষস থেকে আগত (হেতীঃ) ভয়কেও (অস্মৎ) আমাদের থেকে (আরে কৃণুহি) দূর করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে কৃপাসিন্ধু পরমাত্মা! তুমি আছ আদিতে ও সম্মুখে,‌ ঊর্ধ্বে এবং নিচে, তুমি সমস্ততেই পরিব্যাপ্ত আর সমস্ত দিক হতেই আমাদেরকে সকল প্রকারে সদা রক্ষা করো। অগ্নি বিদ্যুৎ ইত্যাদি থেকে হওয়া আধিদৈবিক ভয় এবং অজ্ঞানতা হতে হওয়া আধ্যাত্মিক ভয়, সিংহ, সর্প, চোর, ডাকাত আদি থেকে হওয়া অনেক প্রকারের আধিভৌতিক ভয়কে আমাদের থেকে দূরে বিতাড়িত করো। যাতে আমরা নির্ভয় হয়ে  জগৎপিতা তোমার ভক্তিতে এবং তোমার বৈদিক জ্ঞানের প্রচারের আজ্ঞা পালন করতে সদা তৎপর থাকি।।৫৫।।

     

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