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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 81/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    न॒हि त्वा॑ शूर दे॒वा न मर्ता॑सो॒ दित्स॑न्तम् । भी॒मं न गां वा॒रय॑न्ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । त्वा॒ । शू॒र॒ । दे॒वाः । न । मर्ता॑सः । दित्स॑न्तम् । भी॒मम् । न । गाम् । वा॒रय॑न्ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि त्वा शूर देवा न मर्तासो दित्सन्तम् । भीमं न गां वारयन्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । त्वा । शूर । देवाः । न । मर्तासः । दित्सन्तम् । भीमम् । न । गाम् । वारयन्ते ॥ ८.८१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 81; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When you give to bless mankind, no one can stop you, O brave lord, neither mortals nor immortals, just as no one can resist the mighty sun.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर सर्वात बलवान आहे व आपले कार्य करण्यात स्वतंत्र आहे. त्यासाठी तेथे इतर कुणाचीही शक्ती काम करत नाही. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्य महत्त्वं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे शूर ! दित्सन्तम्=दातुमिच्छन्तम् । त्वा देवाः । नहि वारयन्ते । न च मर्तासो मनुष्याः । न=यथा । भीमं गां वृषभं न वारयन्ते ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उसका महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (शूर) हे महावीर सर्वशक्ते ईश ! (दित्सन्तम्) इस जगत् को दान देते हुए (त्वा) तुझको (देवाः+नहि+वारयन्ते) देवगण निवारण नहीं कर सकते (न+मर्तासः) मनुष्यगण भी तुझको निवारण नहीं कर सकते । (न) जैसे (भीमम्) भयानक (गाम्) साँड को रोक नहीं सकते ॥३ ॥

    भावार्थ

    वह ईश्वर सबसे बलवान् है और अपने कार्य्य में परम स्वतन्त्र है, अतः वहाँ किसी की शक्ति काम नहीं करती ॥३ ॥

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    विषय

    वेरोक दानशील उद्यमार्थ प्रेरक प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शूरवीर ! सब दुष्टों के दलन करने हारे ! (गां न भीमं ) बड़े बैल के समान भयंकर ( न हि देवाः न मर्त्तासः ) न दानशील विद्वान् और न साधारण मनुष्य ही ( दित्सन्तम् वारयन्ते ) दान देने की इच्छा वाले ( त्वा ) तुझको रोक सकते हैं। प्रत्युत जब देना चाहे तो तेरे को रोकने वाला कोई नहीं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ५, ८ गायत्री। २, ३, ६, ७ निचृद गायत्री। ४, ९ त्रिराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    भीमं न+गाम्

    पदार्थ

    [१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (नहि देवा:) = न देव और (न मर्तासः) = न मनुष्य (दित्सन्तम्) = देने की कामनावाले (त्वा) = आपको (वारयन्ते) = रोक पाते हैं। [२] (भीमं न, गाम्) = आप जैसे शत्रुओं के लिये भयंकर हैं, उसी प्रकार [ गाम् = गम् गतौ] उपासकों के लिये अर्थों के गमक हैं। आप शत्रुओं को नष्ट करके अर्थों को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु शत्रुओं के लिये भयंकर हैं, उपासकों के लिये अर्थों के गमक । देने की कामनावाले प्रभु को कोई रोक नहीं सकता।

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