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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 81/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र स्तो॑ष॒दुप॑ गासिष॒च्छ्रव॒त्साम॑ गी॒यमा॑नम् । अ॒भि राध॑सा जुगुरत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । स्तो॒ष॒त् । उप॑ । गा॒सि॒ष॒त् । श्रव॑त् । साम॑ । गी॒यमा॑नम् । अ॒भि । राध॑सा । जु॒गु॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र स्तोषदुप गासिषच्छ्रवत्साम गीयमानम् । अभि राधसा जुगुरत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । स्तोषत् । उप । गासिषत् । श्रवत् । साम । गीयमानम् । अभि । राधसा । जुगुरत् ॥ ८.८१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 81; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 37; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let man adore and celebrate Indra, sing in honour of divinity, hear songs of adoration, and with all wealth, power and honour thank and praise Indra as the giver.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व प्रकारे त्याच्यावर (परमेश्वरावर) मन केंद्रित करावे. हा आशय आहे. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    मनुष्यस्तमीषम् । प्र+स्तोषत्=प्रकर्षेण स्तौतु । उप+गासिषत्=उपगायति । गीयमानं साम । श्रवत्=शृणोतु । तथा राधसा=अभ्युदयेन=अभि । जुगुरत्=अभिगृणातु ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    मनुष्यगण उस परमात्मा की (प्र+स्तोषत्) अच्छे प्रकार स्तुति करें (गासिषत्) गान करें (गीयमानम्+साम) गीयमान स्तुति को (श्रवत्) सुनें और (राधसा) अभ्युदय से युक्त होकर (अभि+जुगुरत्) सर्वत्र ईश्वरीय आज्ञा का प्रचार करें ॥५ ॥

    भावार्थ

    सब प्रकार उसमें मन लगावें, यह इसका आशय है ॥५ ॥

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    विषय

    वेरोक दानशील उद्यमार्थं प्रेरक प्रभु।

    भावार्थ

    वह प्रभु ही हमें ( प्र स्तोषत् ) उत्तम स्तुति कराता है (उप गासिषत् ) उपासना या गान कराता है और ( गीयमानं साम श्रवत् ) गाये गये साम को सुनता है। वही ( राधसा ) धनैश्वर्य द्वारा हमें (अभि-जुगुरत् ) उद्यम कराता है। इति सप्तत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ५, ८ गायत्री। २, ३, ६, ७ निचृद गायत्री। ४, ९ त्रिराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभुस्तवन व पुरुषार्थ से धनार्जन

    पदार्थ

    [१] जीव को चाहिए कि (प्र स्तोषत्) = प्रभुस्तवन करे। (उप गासिषत्) = प्रभु का ही गायन करे । (गीयमानं साम श्रवत्) = गाये जाते हुए प्रभुस्तोत्रों को ही सुने, अर्थात् जीवन को प्रभुस्तवन व गुणगानमय बना दे। [२] यह जीव (राधसा) = कार्यसाधक धन की प्राप्ति के हेतु (अभिजुगुरत्) = उद्यमशील हो, अर्थात् पुरुषार्थ से जीवनयात्रा की सिद्धि के लिये धनार्जन करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभुस्तवन करें और पुरुषार्थ से धनार्जन करें।

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