ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 81/ मन्त्र 4
एतो॒ न्विन्द्रं॒ स्तवा॒मेशा॑नं॒ वस्व॑: स्व॒राज॑म् । न राध॑सा मर्धिषन्नः ॥
स्वर सहित पद पाठएतो॒ इति॑ । नु । इन्द्र॑म् । स्तवा॑म । ईशा॑नम् । वस्वः॑ । स्व॒ऽराज॑म् । न । राध॑सा । म॒र्धि॒ष॒त् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतो न्विन्द्रं स्तवामेशानं वस्व: स्वराजम् । न राधसा मर्धिषन्नः ॥
स्वर रहित पद पाठएतो इति । नु । इन्द्रम् । स्तवाम । ईशानम् । वस्वः । स्वऽराजम् । न । राधसा । मर्धिषत् । नः ॥ ८.८१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 81; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Come, let us sing and celebrate in honour of Indra, lord and ruler of wealth, self-ruler and self- refulgent. No one would harm us in respect of money, materials and power.
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस ईश्वरावर विश्वास ठेवून त्याच्या आज्ञेप्रमाणे चालतो. त्याला बाह्य व आंतरिक बाधा येत नाही. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! एतो=एत=आगच्छत । नु=इदानीम् । वस्वः=वसुनः धनस्य जगतश्चेशानम् । स्वराजं=स्वयमेव राजमानमिन्द्रम् । स्तवाम । एतेन स्तवेन । नोऽस्मान् । अन्येन राधसा=धनेन । मर्धिषत्=न बाधताम् ॥४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (एत) आइये । हम सब मिलकर (नु) इस समय (इन्द्रम्+स्तवाम) उस परमात्मा का कीर्तिगान और स्तवन करें, जो (वस्वः+ईशानम्) इस जगत् और धन का स्वामी और अधिकारी है और (स्वराजम्) स्वतन्त्र राजा और स्वयं विराजमान देव है । जिसकी स्तुति से अन्य कोई भी (नः) हम लोगों को (राधसा) धन के कारण (न+मर्धिषत्) बाधा नहीं पहुँचा सकता ॥४ ॥
भावार्थ
जो जन ईश्वर में विश्वास कर उसकी आज्ञा पर चलता रहता है, उसको बाह्य या आन्तरिक बाधा नहीं पहुँच सकती ॥४ ॥
विषय
वेरोक दानशील उद्यमार्थं प्रेरक प्रभु।
भावार्थ
( एत उ नु ) आओ भाइयो ! ( वस्वः ईशानं ) धन के स्वामी, ( स्व-राजं ) अर्थात् ‘स्व’ अपने ऐश्वर्य से दीप्तिमान्, धनाधिपति, (इन्द्रं) प्रभु की (स्तवाम) स्तुति करें। कोई भी (राधसा) धन के कारण (नः मर्धिषत् ) हमें पीड़ित न करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ५, ८ गायत्री। २, ३, ६, ७ निचृद गायत्री। ४, ९ त्रिराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1183
ओ३म् एतो॒ न्विन्द्रं॒ स्तवा॒मेशा॑नं॒ वस्व॑: स्व॒राज॑म् ।
न राध॑सा मर्धिषन्नः ॥
ऋग्वेद 8/81/4
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
सोचा धन से जीवन सजता
बात क्या है ! यह धन ने ही मारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
लाँघ गया यह धन मर्यादा
धन ही बन गया मानव का राजा
सर्वोन्नति में बाधक बन कर
सुख-वैभव का आनन्द बिगाड़ा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
धन के जङ्ग ने छेड़ा तमाशा
त्रिविध तेज भी छिनता जाता
त्रिविध वीर्य भी नष्ट हुआ है
मद के अन्धकार ने मारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
इसलिए जागो प्यारे मनुष्यो !
स्वार्थी-धन की मार से बच लो
करें विनम्र स्तुति महेन्द्र की
जिससे जग है विभूषित न्यारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
है ईश्वर ऐश्वर्य सम्राट
नियमकर्ता राजाधिराज
जो उसके नियमों को धारे
लोभ लाचारी का ना हो मारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
आध्यात्मिक भौतिक ऐश्वर्य
हैं ये साधन ना बन जाएँ लक्ष्य
लक्ष्य है दान जो करता उन्नति
निष्कामी नर नारी के द्वारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
भजन किया हमने 'स्वराट्' का
धन सेवक बना आया लाभ का
पूजित धन पाया इन्द्र का धारा
अन्धकार भगा चमका तारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
सोचा धन से जीवन सजता
बात क्या है ! यह धन ने ही मारा
धन के कारण नष्ट हुआ है
देखो आज यह संसार सारा
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- ८.११.२०२१ ११.४०Am
राग :- पहाड़ी
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल गरबा ६ मात्रा
शीर्षक :- सब स्तुति करें भजन ७६३ वां
*तर्ज :- चमका चमका सुबह का तारा
त्रिविध तेज = तीन प्रकार के तेज भौतिक आध्यात्मिक, दैविक
स्वराट् = इन्द्र
धारा = धारण किया हुआ
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
सब स्तुति करें
देखो आजकल यह संसार धन के कारण नष्ट हुआ जा रहा है। लोग धन के पीछे पागल तो इसलिए हो रहे हैं, धन को इतनी बुरी तरह से कमा तो इसलिए रहे हैं कि इससे उन्हें जीवन मिलेगा, किन्तु यह उन्हें मार रहा है। धन आजकल इतना मर्यादा को लांघ गया है वह 'स्व' होने की जगह हमारा स्वामी बन गया है, इसलिए इस धन ने हमारी शारीरिक मानसिक और आत्मिक उन्नति को बिल्कुल रोक दिया है। धन का जङ्ग लगाकर हमारा यह त्रिविध तेज जाता रहा है, भोग में पड़कर हमारा त्रिविध वीर्य नष्ट हो गया है। इसलिए, हे मनुष्यो! आओ, हम इस धन की मार से किसी प्रकार बचें। हे संसार भर के मनुष्यो! आओ, हम उस अपने इन्द्र की स्तुति करें, उसके सामने झुकें, जो हमारा परम ऐश्वर्यवाला प्रभु है। यदि हम उस ऐश्वर्यवाले को न भूलेंगे, यदि हम अपने ऊपर उस 'ऐश्वर्यों के ईश्वर' के राज्य को देखेंगे, यदि हम उस स्वयं राजमान के ' 'स्वराज' के नियमों में सदा चलेंगे तो यह धन हमें पागल नहीं कर सकेंगे, यह हमारे मालिक नहीं हो सकेंगे। हम पागल इसलिए होते हैं, क्योंकि हम अपने उस वस्व: ईशान'यानी ऐश्वर्यों के ईश्वर को भूल जाते हैं जो हमें जब जिस ऐश्वर्य की आवश्यकता होती है तब उसी ऐश्वर्य को हमें स्वयमेव दे रहा है, हम धन के गुलाम इसलिए होते हैं, क्योंकि हम स्वयं ,राजमान होने के स्थान पर धन से राजमान होना चाहते हैं, अपने 'स्व'पर--अपने शरीर, इन्द्रिय आदि धन तथा बाह्य धन पर--राज्य करने की जगह उनके वश वर्ती हो जाते हैं। तभी यह होता है कि भौतिक धन तथा आध्यात्मिक ऐश्वर्य (विभूतियां, सिद्धियां) हमारे साधन होने की जगह हमारे लक्ष्य बन जाते हैं और हमारी उन्नति को रोक देते हैं। इसलिए आओ, भाइयों! अब हम अपने ऐश्वर्यों के ईशान, 'स्वराट'प्रभु का भजन करें। उसका भजन किए बिना कभी उसके धन का भोग ना करें। कहां! क्या ही सुंदर दृश्य होगा जब संसार- भर के हम मनुष्य-भाई मिलकर उस अपने 'इन्द्र' प्रभु की स्तुति करेंगे और उसका पूजन करते हुए ही इन दिनों का भोग करेंगे। तब यह धन भी नौकरों की तरह हमारी सेवा करने वाले हो जाएंगे, हमारी उन्नति कराने के लिए उचित साधन बन जाएंगे।
विषय
प्रभुस्मरणपूर्वक धनार्जन
पदार्थ
[१] हे मित्रो ! (एत उ) = आओ ही । (नु) = अब (इन्द्रं स्तवाम) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का स्तवन करें। जो प्रभु (वस्वः ईशानम्) = धनों के ईशान हैं, (स्वराजम्) = स्वयं देदीप्यमान हैं। [२] वे प्रभु (नः) = हमें (राधसा) = धन से (न मर्धिषत्) = कुचला नहीं जाने देते। प्रभुस्मरण के साथ अर्जित धन हमें हिंसित करनेवाला नहीं होता। इस धन से न हम विलास में फँसते हैं और न विनष्ट होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्मरणपूर्वक धनार्जन करते हुए हम धन से कभी विनष्ट न हों।
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