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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 101/ मन्त्र 16
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अव्यो॒ वारे॑भिः पवते॒ सोमो॒ गव्ये॒ अधि॑ त्व॒चि । कनि॑क्रद॒द्वृषा॒ हरि॒रिन्द्र॑स्या॒भ्ये॑ति निष्कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव्यः॑ । वारे॑भिः । प॒व॒ते॒ । सोमः॑ । गव्ये॑ । अधि॑ । त्व॒चि । कनि॑क्रदत् । वृषा॑ । हरिः । इन्द्र॑स्य । अ॒भि । ए॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव्यो वारेभिः पवते सोमो गव्ये अधि त्वचि । कनिक्रदद्वृषा हरिरिन्द्रस्याभ्येति निष्कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव्यः । वारेभिः । पवते । सोमः । गव्ये । अधि । त्वचि । कनिक्रदत् । वृषा । हरिः । इन्द्रस्य । अभि । एति । निःऽकृतम् ॥ ९.१०१.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 101; मन्त्र » 16
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (हरिः) परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (निष्कृतं) संस्कृतान्तःकरणम् (अभि एति) आप्नोति (वृषा) सर्वकामप्रदः सः (गव्ये, अधि, त्वचि) इन्द्रियाधिष्ठातरि मनसि स्थिरो भूत्वा (कनिक्रदत्) गर्जन् (पवते) रक्षति (अव्यः) रक्षकः (सोमः) परमात्मा (वारेभिः) पवित्रभावैः स्वभक्तान् रक्षति ॥१६॥ इत्येकशततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हरिः) उक्त परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (निष्कृतम्) सद्गुणसम्पन्न अन्तःकरण को (अभ्येति) प्राप्त होता है, (वृषा) वह सब कामनाओं की वर्षा करनेवाला (गव्ये अधित्वचि) इन्द्रियों के अधिष्ठाता मन में स्थिर होकर (कनिक्रदत्) गर्जता हुआ (पवते) रक्षा करता है, (सोमः) वह सर्वोत्पादक परमात्मा (अव्यः) जो सर्वरक्षक है, वह (वारेभिः) पवित्र सद्भावों से सन्मार्गानुयायियों की रक्षा करता है ॥१६॥

    भावार्थ

    यहाँ कई एक लोग (गव्ये अधित्वचि) के अर्थ गोचर्म के करते हैं, ऐसा करना वेद के आशय से सर्वथा विरुद्ध है। न केवल वेदाशय से विरुद्ध है, किन्तु प्रसिद्धि से भी विरुद्ध है, क्योंकि अधित्वचि के अर्थ गोचर्म पर गर्जना किये गये हैं और गोचर्म पर गर्जना अनुभव से सर्वथा विरुद्ध है। इस अधित्वचि के अर्थ मनरूप अधिष्ठाता के ही ठीक हैं, किसी अन्य वस्तु के नहीं ॥१६॥ यह १०१ वाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सब वाङ्मय के ऊपर मेघवत् प्रभु।

    भावार्थ

    (गव्ये अधि त्वचि कनिक्रदत् सोमः) चर्म पर विराजमान विद्वान् के तुल्य, (गव्ये अधि त्वचि) वाङ्मय साहित्य के भी ऊपर वह (सोमः) आनन्द रस रूप में साक्षात् करने योग्य प्रभु (अव्यः वारेभिः पवते) स्नेह, समृद्धि, कान्ति, दीप्ति आदि के नाना सुन्दर रूपों से प्रकट होता है। वह (वृषा) सुखों का वर्षक मेघवत् (हरि:) मनोहर, कान्तिमान, (इन्द्रस्य निष्कृतम् अभि एति) आत्मा के स्थान को साक्षात् प्राप्त होता है। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१-३ अन्धीगुः श्यावाश्विः। ४—६ ययातिर्नाहुषः। ७-९ नहुषो मानवः। १०-१२ मनुः सांवरणः। १३–१६ प्रजापतिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, ११—१४ निचृदनुष्टुप्। ४, ५, ८, १५, १६ अनुष्टुप्। १० पादनिचृदनुष्टुप्। २ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    गव्ये अधि त्वचि कनिक्रदत्

    पदार्थ

    (अव्यः) = रक्षणीय (सोमः) = सोम (वारेभिः) = वासनाओं के निवारण के द्वारा पवते हमें प्राप्त होता है । वासनायें ही तो इसके विनाश का कारण होती हैं। यह सोम (गव्ये) = वेद धेनु से प्राप्त होनेवाले ज्ञानदुग्ध के (अधित्वचि) = आधिक्येन सम्पर्क में (कनिक्रदत्) = प्रभु का आह्वान करता है । सोमरक्षण से ज्ञान बढ़ता है और प्रभु स्तवन की वृत्ति उत्पन्न होती है । वृषा यह सुखों का वर्षण करनेवाला (हरिः) = रोगों का हर्ता सोम (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष (निष्कृतम्) = संस्कृत हृदय को (अभ्येति) = प्राप्त होता है। हृदय की परिशुद्धि सोमरक्षण के लिये आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमी पुरुष ज्ञान प्राप्त कर के प्रभु का आह्वान करता है। सुखों की वर्षण व दुःखों का हरण यह सोम ही करता है। पवित्र हृदय में यह आसीन होता है । सोमरक्षण से पवित्र हुआ हुआ यह पुरुष 'त्रित' बनता है, तीनों 'काम, क्रोध, लोभ' को तैर जाता है। यह कहता है- -

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, omnipresent protector, abides with the souls of its choice discipline, vibrating in the heart core across the fluctuations of mind and senses. Loud and bold and voluble, thus, the generous potent saviour spirit blesses the original nature of the soul in its innate purity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे कित्येक लोक (गव्ये अधित्वचि)चा अर्थ गोचर्म असा करतात. असे करणे वेदाच्या आशयाविरुद्ध आहे. केवळ वेदाशयाच्याच विरुद्ध नव्हे तर प्रसिद्धीच्या ही विरुद्ध आहे. कारण अधित्वचिचा अर्थ मनरूपी अधिष्ठाता हाच ठीक आहे. कोणत्या दुसऱ्या वस्तूचा नाही. ॥१६॥

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