ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 101/ मन्त्र 5
ऋषिः - ययातिर्नाहुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इन्दु॒रिन्द्रा॑य पवत॒ इति॑ दे॒वासो॑ अब्रुवन् । वा॒चस्पति॑र्मखस्यते॒ विश्व॒स्येशा॑न॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्दुः॑ । इन्द्रा॑य । प॒व॒ते॒ । इति॑ । दे॒वासः॑ । अ॒ब्रु॒व॒न् । वा॒चः । पतिः॑ । म॒ख॒स्य॒ते॒ । विश्व॑स्य । ईशा॑नः । ओज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दुरिन्द्राय पवत इति देवासो अब्रुवन् । वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्दुः । इन्द्राय । पवते । इति । देवासः । अब्रुवन् । वाचः । पतिः । मखस्यते । विश्वस्य । ईशानः । ओजसा ॥ ९.१०१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 101; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दुः) सर्वप्रकाशकः परमात्मा (इन्द्राय) कर्मयोगिने (पवते) पवित्रतां प्रददाति (देवासः) विद्वांसः (इति अब्रुवन्) इति भाषन्ते यत् कर्मयोगी हि तज्ज्ञानपात्रमस्ति (वाचस्पतिः) स परमात्माखिलवागधिपतिः (मखस्यते) ज्ञानयज्ञयोगयज्ञ-तपोयज्ञादिसर्वयज्ञानामधिपश्च (ओजसा) स्वबलेन (विश्वस्य, ईशानः) सर्वब्रह्माण्डस्वाम्यस्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दुः) सर्वप्रकाशक परमात्मा (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (पवते) पवित्रता प्रदान करता है (देवासः) विद्वान् लोग (इत्यब्रुवन्) यह कहते हैं कि कर्मयोगी उद्योगी पुरुष ही उसके ज्ञान का पात्र है, (वाचस्पतिः) वह सम्पूर्ण वाणियों का पति परमात्मा है और (मखस्यते) ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ, तपोयज्ञ, इत्यादि सब यज्ञों का अधिष्ठाता है, वह परमात्मा (ओजसा) अपने स्वाभाविक बल से (विश्वस्य) सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का (ईशानः) स्वामी है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी को अपने सद्गुणों द्वारा पवित्र करता है अर्थात् परमात्मा के गुण कर्म स्वभावों के धारण करने का नाम ही परम पवित्रता है ॥५॥
विषय
प्रभु की उपासना का उपदेश।
भावार्थ
(इन्दुः) इन्दु, आत्मा (इन्द्राय पवते) इन्द्र परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये जाता है (इति) इस प्रकार (देवासः) विद्वान् लोग: (अब्रुवन्) उपदेश करते हैं। (वाचः पतिः) वाणी का पालक प्रभु (मखस्यते) पूजा की अपेक्षा करता है वह (ओजसा) बल से (विश्वस्यईशानः) समस्त जगत् का स्वामी है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१-३ अन्धीगुः श्यावाश्विः। ४—६ ययातिर्नाहुषः। ७-९ नहुषो मानवः। १०-१२ मनुः सांवरणः। १३–१६ प्रजापतिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, ११—१४ निचृदनुष्टुप्। ४, ५, ८, १५, १६ अनुष्टुप्। १० पादनिचृदनुष्टुप्। २ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ओजसा विश्वस्य ईशानः
पदार्थ
('इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये पवते प्राप्त होता है' इति यह बात (देवासः) = देववृत्ति के विद्वान् पुरुष अब्रुवन् कहते हैं। सोम जितेन्द्रिय को ही प्राप्त होता है। (ओजसा) = ओजस्विता से (विश्वस्य) = सब का (ईशान:) = स्वामी यह सोम (वाचस्पतिः) = सब ज्ञान की वाणियों का रक्षक है। अर्थात् सोमरक्षण से बुद्धि की तीव्रता होकर जीवन में इन ज्ञानवाणियों का रक्षण होता है। यह सोम (मखस्यते) = यज्ञ की कामना करता है। अर्थात् एक पुरुष यज्ञशील बनता है, तो उसे सोम की अवश्य प्राप्ति होती है। यज्ञशीलता सोमरक्षण में साधन बनती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण जितेन्द्रिय ही कर पाता है। सुरक्षित सोम ज्ञान को प्राप्त कराता है। इस के रक्षण के लिये यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में लगे रहना आवश्यक है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, divine, brilliant and blissful, flows for Indra, the soul, say the noble sages, and thus Soma, divine source and master of speech and thought, ruler and sustainer of the entire world by his own lustre and power, is honoured at all yajnas of knowledge, yoga and austerity, for advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा कर्मयोगी व ज्ञानयोगी यांना आपल्या सद्गुणांद्वारे पवित्र करतो. अर्थात, परमात्म्याच्या गुण, कर्म, स्वभावाला धारण करण्याचे नाव पवित्रता आहे. ॥५॥
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