Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 102 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 102/ मन्त्र 6
    ऋषिः - त्रितः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यमी॒ गर्भ॑मृता॒वृधो॑ दृ॒शे चारु॒मजी॑जनन् । क॒विं मंहि॑ष्ठमध्व॒रे पु॑रु॒स्पृह॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ई॒म् इति॑ । गर्भ॑म् । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । दृ॒शे । चारु॑म् । अजी॑जनन् । क॒विम् । मंहि॑ष्ठम् । अ॒ध्व॒रे । पु॒रु॒ऽस्पृह॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमी गर्भमृतावृधो दृशे चारुमजीजनन् । कविं मंहिष्ठमध्वरे पुरुस्पृहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ईम् इति । गर्भम् । ऋतऽवृधः । दृशे । चारुम् । अजीजनन् । कविम् । मंहिष्ठम् । अध्वरे । पुरुऽस्पृहम् ॥ ९.१०२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 102; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋतवृधः) यज्ञकर्मसु कुशला विद्वांसः (यम्, ईम्) यस्य परमात्मनः (गर्भम्) ज्ञानरूपगर्भं दधति (दृशे) लोकप्रकाशाय तेन (चारुम्) सुन्दरसन्तानम् (अजीजनन्) उत्पादयन्ति, स परमात्मा (कविम्) सर्वज्ञः (मंहिष्ठम्) पूजनीयतमः (पुरुस्पृहम्) सर्वोपास्यः (अध्वरे) ज्ञानयज्ञे चोपास्यः ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋतवृधः) यज्ञकर्म्म में कुशल विद्वान् (यमीम्) जिस उक्त परमात्मा के (गर्भं) ज्ञानरूप गर्भ को धारण करते हैं, (दृशे) संसार के प्रकाश के लिये उससे (चारुं) सुन्दर सन्तान को (अजीजनन्) उत्पन्न करते हैं, वह परमात्मा (कविं) सर्वज्ञ (मंहिष्ठं) अत्यन्त पूजनीय और (पुरुस्पृहं) सबका उपास्यदेव है, (अध्वरे) ज्ञानयज्ञों में उक्त परमात्मा उपासनीय है ॥६॥

    भावार्थ

    जो इस चराचर ब्रह्माण्ड का उत्पादक परमात्मा है, उसकी उपासना ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ, तपोयज्ञ इत्यादि अनन्त प्रकार के यज्ञों द्वारा की जाती है ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वोपास्य प्रभु।

    भावार्थ

    (गर्भम्) सब को वश करने वाले, जगत् को गर्भ में धारण करने वाले (यम् ईम्) जिस (चारुम्) व्यापक को (ऋत-वृधः) सत्य के बढ़ाने वाले, जन (दृशे) दर्शन करने के लिये (अजीजनन्) वाणी वा कर्म-साधनों द्वारा प्रकट करते हैं। उस (कविम्) क्रांतदर्शी (मंहिष्ठम्) अति दानशील, (अध्वरे पुरु-स्पृहम्) अविनाशी, यज्ञ में बहुतों को स्पृहा करने योग्य, सर्व प्रिय को सब (जुषन्त) प्रेम से सेवन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ८ निचृदुष्णिक्। ५-७ उष्णिक्। अष्टर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कविं महिष्ठम्

    पदार्थ

    (यम्) = जिस सोम को (ई) = निश्चय से (ऋतावृधः) = ऋत का अपने अन्दर वर्धन करनेवाले लोग (गर्भम्) = गर्भ के रूप में (अजीजनन्) = उत्पन्न करते हैं। शरीर के अन्दर ही स्थित हुआ हुआ यह सोम (दृशे चारुम्) = दर्शन के लिये अत्यन्त सुन्दर होता है । सोमरक्षण से शरीर तेजस्वी होकर दर्शनीय बन जाता है । उस सोम को ये अपने अन्दर गर्भरूप से करते हैं, जो (किवम्) = उनको क्रान्तदर्शी बनाता है, (महिष्ठम्) = अधिक से अधिक ऐश्वर्यों का देनेवाला है। अतएव (अध्वरे) = इस जीवमय यज्ञ में (पुरुस्पृहम्) = अत्यन्त स्पहणीय है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-व्यवस्थित जीवन से हम सोम का रक्षण करते हैं। यह सोम हमारे जीवन को दर्शनीय व सुन्दर बनाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    To realise and reveal that divine treasure origin of the world and its glory, sages and divines, celebrating his law, truth and yajnic evolution, love and join the presence of Soma, great and glorious, poetic creator, mighty generous, universally adored, and manifesting anew in the world of love and beauty.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो या चराचर ब्रह्मांडाचा उत्पादक परमात्मा आहे. त्याची उपासना ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ, तपोयज्ञ इत्यादी अनंत प्रकारच्या यज्ञांद्वारे केली जाते. ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top