ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 102/ मन्त्र 8
क्रत्वा॑ शु॒क्रेभि॑र॒क्षभि॑ॠ॒णोरप॑ व्र॒जं दि॒वः । हि॒न्वन्नृ॒तस्य॒ दीधि॑तिं॒ प्राध्व॒रे ॥
स्वर सहित पद पाठक्रत्वा॑ । शु॒क्रेभिः॑ । अ॒क्षऽभिः॑ । ऋ॒णोः । अप॑ । व्र॒जम् । दि॒वः । हि॒न्वन् । ऋ॒तस्य॑ । दीदि॑तिम् । प्र । अ॒ध्व॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वा शुक्रेभिरक्षभिॠणोरप व्रजं दिवः । हिन्वन्नृतस्य दीधितिं प्राध्वरे ॥
स्वर रहित पद पाठक्रत्वा । शुक्रेभिः । अक्षऽभिः । ऋणोः । अप । व्रजम् । दिवः । हिन्वन् । ऋतस्य । दीदितिम् । प्र । अध्वरे ॥ ९.१०२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 102; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! भवान् (व्रजम्) ज्ञानरूपप्रकाशेन व्रजनाद् व्रजोऽन्धकारं तत् (क्रत्वा) कर्मणा (शुक्रेभिः, अक्षभिः) बलवद्भिर्ज्ञानेन्द्रियैश्च (दिवः) द्युलोकात् (अपर्णोः) अपसारयतु (प्राध्वरे) अस्मिन् ज्ञानयज्ञे च (ऋतस्य, दीधितम्) सत्यताप्रकाशं (हिन्वन्) प्रेरयन् मदज्ञानमपनयतु ॥८॥ इति द्व्युत्तरशततमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! आप (व्रजम्) व्रजतीति व्रजः–अन्धकार, जो ज्ञानरूप प्रकाश से दूर भाग जाय, उसको (क्रत्वा) कर्म्मों के द्वारा (शुक्रेभिः, अक्षभिः) बलवान् ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा (दिवः) द्युलोक से (अपर्णोः) दूर करें और (प्राध्वरे) इस ज्ञानयज्ञ में (ऋतस्य, दीधितिं) सच्चाई के प्रकाश को (हिन्वन्) प्रेरणा करते हुए आप हमारे अज्ञान को दूर करें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में अज्ञान की निवृत्ति के साधनों का वर्णन है अर्थात् जो पुरुष ज्ञानादि द्वारा जप-तप आदि संयमसम्पन्न होकर तेजस्वी बनते हैं, वे अज्ञान को निवृत्त करके प्रकाशस्वरूप ब्रह्म में विराजमान होते हैं ॥८॥ यह १०२ वाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभु से शुद्ध निष्पाप होने की प्रार्थना।
भावार्थ
(क्रत्वा) अपने ज्ञान और कर्म-सामर्थ्य से हे विभो ! प्रभो ! (शुक्रेभिः) शुद्ध कांतियुक्त और शीघ्र ही कार्य-सम्पादन करने वाले तेज:-सामर्थ्यों से (दिवः व्रजं ऋणोः) आकाश के गतिशील लोकसमूह को दूर २ तक चलाता है। वह तू (अध्वरे) अविनाशी आत्मा में (ऋतस्य दीधितिं) सत्य-ज्ञान की किरण को प्रेरता हुआ हमारे (दिवः) प्रकाशमय आत्मा से (व्रजं) पापवृत्ति के समूह को (अप ऋणोः) दूर कर। इति पञ्चमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ८ निचृदुष्णिक्। ५-७ उष्णिक्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान के प्रकाश की प्राप्ति
पदार्थ
हे सोम ! तू (ऋत्वा) = प्रज्ञान के द्वारा तथा (शुक्रेभिः) = निर्मल [शुचि] (अक्षभिः) = इन्द्रियों के द्वारा (दिवः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक से (व्रजं) = अन्धकार समूह को (अप ऋणोः) = दूर कर । सोम ज्ञान को बढ़ाने व इन्द्रियों को निर्मल बनाने के द्वारा मस्तिष्क रूप द्युलोक को ज्ञान सूर्य से दीप्त कर देता है । यह सोम (प्र अध्वरे) = इस प्रकृष्ट जीवनयज्ञ में (ऋतस्य दीधितिम्) = सत्य ज्ञान के प्रकाश को (हिन्वन्) = प्रेरित करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम प्रज्ञानवृद्धि व इन्द्रियों के नैर्मल्य के द्वारा ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कराता है। सोमरक्षण के द्वारा शरीर को सशक्त व मस्तिष्क को दीप्त बनाता हुआ यह 'द्वित' बनता है। यह दोनों का विस्तार करनेवाला [द्वौ तनोति] आप्त बनना है, प्रभु को प्राप्त करने वालों में उत्तम । यह कहता है-
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, creative spirit of the universe, by holy action, brilliant light of pure knowledge and the inner vision of the spirit, pray open wide the paths and doors of the light of divinity, thereby inspiring and advancing yajnic revelations of the divine law and its operation in this advancing world of love and non-violence.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात अज्ञानाच्या निवृत्तीसाधनांचे वर्णन आहे. अर्थात्, जे पुरुष ज्ञान इत्यादीद्वारे जप-तप करतात व संयम संपन्न बनून तेजस्वी होतात ते अज्ञान निवृत्त करून प्रकाशस्वरूप ब्रह्मात विराजमान होतात. ॥८॥
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