ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 102/ मन्त्र 7
स॒मी॒ची॒ने अ॒भि त्मना॑ य॒ह्वी ऋ॒तस्य॑ मा॒तरा॑ । त॒न्वा॒ना य॒ज्ञमा॑नु॒षग्यद॑ञ्ज॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मी॒चीने इति॑ स॒म्ऽई॒ची॒ने । अ॒भि । त्मना॑ । य॒ह्वी । ऋ॒तस्य॑ । मा॒तरा॑ । त॒न्वा॒नाः । य॒ज्ञम् । आ॒नु॒षक् । यत् । अ॒ञ्ज॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
समीचीने अभि त्मना यह्वी ऋतस्य मातरा । तन्वाना यज्ञमानुषग्यदञ्जते ॥
स्वर रहित पद पाठसमीचीने इति सम्ऽईचीने । अभि । त्मना । यह्वी । ऋतस्य । मातरा । तन्वानाः । यज्ञम् । आनुषक् । यत् । अञ्जते ॥ ९.१०२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 102; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
स परमात्मा (ऋतस्य) अस्य संसारस्य (मातरा) निर्मातारौ द्युलोकपृथिवीलोकौ रचयति। तौ च लोकौ (समीचीने) सुन्दरौ (यह्वी) दीर्घौ च (तन्वानाः) अस्य प्रकृतिरूपतन्तुजालस्य विस्तारयितारौ (त्मना) तस्य परमात्मनः स्वसामर्थ्येनोत्पन्नौ च स्तः। (यत्) यदा योगिजनाः (यज्ञम्) इमं ज्ञानयज्ञं (आनुषक्) आनुषङ्गिकरूपेण सेवन्ते तदा (अभ्यञ्जते) उक्तपरमात्मनः साक्षात्कारं प्राप्नुवन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
वह परमात्मा (ऋतस्य) इस संसार के (मातरा) निर्माण करनेवाले द्युलोक और पृथिवीलोक को रचता है, वह द्युलोक और पृथिवीलोक (समीचीने) सुन्दर हैं, (यह्वी) बड़े हैं, (तन्वानाः) इस प्रकृतिरूपी तन्तुजाल के विस्तृत करनेवाले हैं और (त्मना) उस परमात्मा के आत्मभूत सामर्थ्य से उत्पन्न हुए हैं। (यत्) जब योगी लोग (यज्ञं) इस ज्ञानयज्ञ को (आनुषक्) आनुषङ्गिकरूप से सेवन करते हैं अर्थात् साधनरूप से आश्रयण करते हैं, तो (अभ्यञ्जते) उक्त परमात्मा के साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं ॥७॥
भावार्थ
जो लोग इस कार्य्यसंसार और इसके कारणभूत ब्रह्म के साथ यथायोग्य व्यवहार करते हैं, वे शक्तिसम्पन्न होकर इस संसार की यात्रा करते हैं ॥७॥
विषय
महायज्ञ के निर्माता अनादि तत्व आत्मा और प्रकृति।
भावार्थ
(समीचीने) परस्पर सुसम्बद्ध, (यह्वी) दोनों महान् (ऋतस्य) जगत् रूप यज्ञ का निर्माण करने वाले, ब्रह्म और प्रकृति दोनों हैं। (यत्) जिनके रूप को (यज्ञं तन्वानाः) यज्ञ का विस्तार करते हुए विद्वान् जन (आनुषक् अंजते) निरन्तर प्रकट करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः–१–४, ८ निचृदुष्णिक्। ५-७ उष्णिक्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
सशक्त शरीर व दीप्त मस्तिष्क
पदार्थ
(यद्) = जब (यज्ञम्) = श्रेष्ठतम कर्मों को (आनुषक्) = निरन्तर (तन्वानाः) = विस्तृत करते हुए यज्ञशील लोग (अञ्जते) = सोम से अपने को अलंकृत करते हैं, तो यह सोम उन द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (त्मना) = स्वयं (अभि) = [गच्छति] प्राप्त होता है, जो समीचीने परस्पर संगत हैं, यही महान् हैं और (ऋतस्य मातरा) = ऋत का निर्माण करनेवाले हैं। सोम शक्ति से परिपुष्ट मस्तिष्क और शरीर ऋत अर्थात् यज्ञ आदि उत्तम कर्मों का ही निर्माण करते हैं। मनुष्य निरन्तर यज्ञादि कर्मों में लगा रहे तो वासनाओं से बचा रहता है। इस प्रकार यह सोमरक्षण के योग्य बनता है। सुरक्षित सोम मस्तिष्क व शरीर दोनों का पोषण करता है। सोम से शरीर सशक्त बनता है तो मस्तिष्क दीप्त। यही दोनों का संगत होना है। सशक्त शरीर व दीप्त मस्तिष्क मनुष्य को महान् बनाते हैं। ये जीवन को अनृत से दूर करके ऋतमय बनाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञों में लगे रहकर वासनाओं से अनाक्रान्त हम सोम का रक्षण करते हैं। यह हमारे मस्तिष्क व शरीर को दीप्त व सशक्त बनाकर महान् बनाता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
The great joint spontaneous generators of the dynamic world in existence are Soma, supreme Purusha, and Prakrti, which the sages, who enact and advance the meditative yajna of science and direct realisation, constantly adore and glorify.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक या कार्य जगात व याचे कारणभूत असलेल्या ब्रह्माबरोबर यथायोग्य व्यवहार करतात ते शक्तिसंपन्न होऊन या संसाराची यात्रा करतात. ॥७॥
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