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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषि: - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    म॒द॒च्युत्क्षे॑ति॒ साद॑ने॒ सिन्धो॑रू॒र्मा वि॑प॒श्चित् । सोमो॑ गौ॒री अधि॑ श्रि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒द॒ऽच्युत् । क्षे॒ति॒ । सद॑ने । सिन्धोः॑ । ऊ॒र्मा । वि॒पः॒ऽचित् । सोमः॑ । गौ॒री इति॑ । अधि॑ । श्रि॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मदच्युत्क्षेति सादने सिन्धोरूर्मा विपश्चित् । सोमो गौरी अधि श्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मदऽच्युत् । क्षेति । सदने । सिन्धोः । ऊर्मा । विपःऽचित् । सोमः । गौरी इति । अधि । श्रितः ॥ ९.१२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 38; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    यथा (ऊर्मा) वीचयः (सिन्धोः) नदीराश्रयन्ते अथ च (विपश्चित्) विद्वान् (गौरी अधि श्रितः) वेदवाचम् अधितिष्ठति तथैव (सोमः मदच्युत्) आनन्दप्रदः सौम्यस्वभावो भगवान् (सादने क्षेति) यज्ञस्थले सदा सुखेन निवसति ॥३॥

    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    जिस प्रकार (ऊर्मा) तरंगें (सिन्धोः) नदी का आश्रयण करती हैं और (विपश्चित्) विद्वान् (गौरी अधि श्रितः) वेदवाणी में अधिष्ठित होता है, इसी प्रकार (सोमः मदच्युत्) आनन्द के देनेवाला सौम्यस्वभाव परमात्मा (सादने क्षेति) यज्ञस्थल को प्रिय समझता है ॥३॥

    भावार्थ

    कर्मयज्ञ योगयज्ञ जपयज्ञ इस प्रकार यज्ञ नाना प्रकार के हैं, परन्तु ‘यजनं यज्ञः’ जिसमें ईश्वर का उपासनारूप अथवा विद्वानों की संगतिरूप अथवा दानात्मक कर्म किये जायँ, उसका नाम यहाँ यज्ञ है और वह यज्ञ ईश्वर की प्राप्ति का सर्वोपरि साधन है। इसी अभिप्राय से ‘यज्ञो वै विष्णुः’ श. ।३७। परमात्मा का नाम भी यज्ञ है, इसी भाव को वर्णन करते हुये गीता में यह कहा है कि ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’ इस प्रकार के कई एक यज्ञ वेद में वर्णन किये गये हैं ॥३॥

    English (1)

    Meaning

    The joyous waves abide by the sea, the saintly joy of the wise abides in the Vedic voice, and the soma joy that is exuberant in divine ecstasy abides in the hall of yajna.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्मयज्ञ, योगयज्ञ, जपयज्ञ असे नाना प्रकारचे यज्ञ आहेत; परंतु ‘यजनं यज्ञ:’ ज्यात ईश्वराचे उपासनारूप किंवा विद्वानांचे संगतिरूप किंवा दानात्मक कर्म केले जाते त्याचे नाव येथे यज्ञ आहे व तो यज्ञ ईश्वराच्या प्राप्तीचे सर्वश्रेष्ठ साधन याच अभिप्रायाने ‘यज्ञो वै विष्णु’ श. ३७ । परमेश्वराचे नाव ही यज्ञ आहे. याच भावाचे वर्णन करत गीतेत असे म्हटले आहे की ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’ या प्रकारचे कित्येक यज्ञाचे वेदात वर्णन केलेले आहे. ॥३॥

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