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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 77/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    चक्रि॑र्दि॒वः प॑वते॒ कृत्व्यो॒ रसो॑ म॒हाँ अद॑ब्धो॒ वरु॑णो हु॒रुग्य॒ते । असा॑वि मि॒त्रो वृ॒जने॑षु य॒ज्ञियोऽत्यो॒ न यू॒थे वृ॑ष॒युः कनि॑क्रदत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चक्रिः॑ । दि॒वः । प॒व॒ते॒ । कृत्व्यः॑ । रसः॑ । म॒हान् । अद॑ब्धः । वरु॑णः । हु॒रुक् । य॒ते । असा॑वि । मि॒त्रः । वृ॒जने॑षु । य॒ज्ञियः॑ । अत्यः॑ । न । यू॒थे । वृ॒ष॒ऽयुः । कनि॑क्रदत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चक्रिर्दिवः पवते कृत्व्यो रसो महाँ अदब्धो वरुणो हुरुग्यते । असावि मित्रो वृजनेषु यज्ञियोऽत्यो न यूथे वृषयुः कनिक्रदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चक्रिः । दिवः । पवते । कृत्व्यः । रसः । महान् । अदब्धः । वरुणः । हुरुक् । यते । असावि । मित्रः । वृजनेषु । यज्ञियः । अत्यः । न । यूथे । वृषऽयुः । कनिक्रदत् ॥ ९.७७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 77; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (चक्रिः) स पुरुषः अनुष्ठानपरायणो भवति तथा (दिवः) द्युलोकं (पवते) पवित्रयति च। अथ च (कृत्व्यः) कर्तव्यशीलः (रसः) आमोदरूपः (महान्) बृहत् (अदब्धः) अदम्भनीयः परमेश्वरः (हुरुग्यते) कुटिलजनं (वरुणः) स्वीयविद्याबलेनाच्छादयति तथा (असावि) ज्ञानबलमुत्पादयति। (मित्रः) सर्वेभ्यः प्रियोऽस्ति। (वृजनेषु) सर्वत्र (अत्यः) गन्तुं शक्नोति। अथ च (यज्ञियः) यज्ञकर्मसु योग्यः (वृषयुः) सर्वासां कामनानां (यूथे) वर्षकगणः (न) इव (कनिक्रदत्) गर्जन् अस्मिन् संसारे यात्रां करोति ॥५॥ इति सप्तसप्ततितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः।

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (चक्रिः) वह पुरुष अनुष्ठानपरायण होता है और (दिवः) द्युलोक को (पवते) पवित्र करता है (कृत्व्यः) और कर्तव्यशील (रसः) आनन्दस्वरूप (महान्) बड़ा (अदब्धः) किसी से न दबाये जानेवाला परमेश्वर (हुरुग्यते) कुटिलता से चलनेवाले पुरुष को (वरुणः) अपने विद्याबल से आच्छादन करता है और (असावि) ज्ञानरूपी बल को उत्पन्न करता है (मित्रः) सर्वमित्र है (वृजनेषु) सब विषयों में (अत्यः) गमन कर सकता है (यज्ञियः) और यज्ञसम्बन्धी कर्म्मों में योग्य (वृषयुः) सब कामनाओं के (यूथे) देनेवाले गण के (न) समान (कनिक्रदत्) गर्जता हुआ इस संसार में यात्रा करता है ॥५॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् धीर, वीर, दृढव्रती और अपने विद्याप्रभाव से कुटिल वा मायावी पुरुषों को दबाने की शक्ति रखता है। वह इस मनुष्यसमाज में वृषभ के समान गर्जता हुआ अपने सदाचारी समाज की रक्षा करता है ॥५॥ यह ७७ वाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सर्व-कामनाप्रद प्रभु।

    भावार्थ

    वह प्रभु (दिवः चक्रिः) आकाश, सूर्य, तेजोमय जगत् का बनाने और प्रकट करने वाला, (कृत्व्यः) ज्ञान-साधना से साक्षात् करने योग्य, (महान्) गुणों में महान् (रसः) बल-आनन्दस्वरूप (अदब्धः) अविनाशी, (वरुणः) सर्व श्रेष्ठ, सब से वरण करने योग्य, सब दुःखों का वारण करने वाला, (यते) संयम करने वाले और यत्नशील पुरुष के लिये (दिवः पवते) प्रकाश और उसकी समस्त कामनाओं को प्रदान करता है। वह (यज्ञियः) समस्त देवपूजन आदि यज्ञों का पात्र (मित्रः) सर्वस्नेही, मरण से वायुवत् त्राण करने वाला प्रभु (वृजनेषु) समस्त गमन करने योग्य लोकों, मार्गों में (असावि) ईश्वर रूप से विराजता है। वह (अत्यः नः यूथे) पदातिसमूह में अश्वारोही के समान अथवा मादा घोडियों में बलवान् अश्व के समान (वृषयुः) समस्त सुखैश्वर्य सेचन करने वाला प्रभु (कनिक्रदत्) मेघ के समान दिव्य वाणी से उपदेश करता है। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कविर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः– १ जगती। २, ४, ५ निचृज्जगती। ३ पादनिचृज्जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'अदब्धः वरुणः ' सोमः

    पदार्थ

    [१] (दिवः चक्रि:) = हमारे जीवनों में ज्ञान के प्रकाश को करनेवाला यह सोम (पवते) = प्राप्त होता है। यह (रसः) = सोम का [सार] (कृत्व्यः) = हमें कर्त्तव्य कर्मों के करने में कुशल बनाता है। यह (महान्) = हमें [मह पूजायाम्] पूजा की वृत्तिवाला करता है। (अदब्धः) = वासनाओं से हिंसित नहीं होता । (वरुणः) = सब द्वेष आदि अशुभ वृत्तियों का निवारण करनेवाला है। [२] (हुरुग्यते) = [हुरुक्- हिरुक् near] प्रभु की उपासना में गति करते हुए के लिये यह सोम (असावि) = उत्पन्न किया जाता है । यह (जनेषु) = संग्रामों में (मित्रः) = हमारा मित्र होता है हमें मृत्यु से बचाता है, अतएव (यज्ञियः) = संगतिकरण योग्य होता है । (अत्यः न) = एक सततगामी अश्व के समान है, यह हमें निरन्तर क्रियाशील बनाता है। यूथे कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व प्राणों के समूह में (वृषयुः) = शक्ति के सेचन को यह करने की कामनावाला है । ऐसा यह सोम (कनिक्रदत्) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। हमें प्रभु का स्तोता बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सोम हमें वासनाओं से हिंसित नहीं होने देता, यह सब अशुभों का निवारण करनेवाला है। हमें शक्ति देता है, संग्रामों में विजयी बनाता है । अगले सूक्त में भी 'कवि' ही 'पवमान सोम का शंसन करता है'-

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The creator of the universe flows omnipresent, purifies, sanctifies and blesses. Constant doer adorable, delight of the celebrants, great, undauntable, lord of judgement and choice, abandons men of crooked nature and behaviour and fulfils the mission of the holy. Friend on all paths of life, companionable, giver of fulfilment, He vibrates in the multitude of existence and roars like thunder in the depth of clouds.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्वान धैर्यवान वीर व दृढव्रती आणि आपल्या विद्येच्या प्रभावाने कुटिल किंवा मायावी (ढोंगी) पुरुषांचे दमन करण्याची शक्ती बाळगतो. तो या मनुष्य समाजात वृषभाप्रमाणे गर्जना करत आपल्या सदाचारी समाजाचे रक्षण करतो. ॥५॥

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