ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
मृ॒जन्ति॑ त्वा॒ दश॒ क्षिपो॑ हि॒न्वन्ति॑ स॒प्त धी॒तय॑: । अनु॒ विप्रा॑ अमादिषुः ॥
स्वर सहित पद पाठमृ॒जन्ति॑ । त्वा॒ । दश॑ । क्षिपः॑ । हि॒न्वन्ति॑ । स॒प्त । धी॒तयः॑ । अनु॑ । विप्राः॑ । अ॒मा॒दि॒षुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मृजन्ति त्वा दश क्षिपो हिन्वन्ति सप्त धीतय: । अनु विप्रा अमादिषुः ॥
स्वर रहित पद पाठमृजन्ति । त्वा । दश । क्षिपः । हिन्वन्ति । सप्त । धीतयः । अनु । विप्राः । अमादिषुः ॥ ९.८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (त्वा, दश, क्षिपः) भवन्तं पञ्च सूक्ष्मभूताः पञ्च च स्थूलभूता एते दश (मृजन्ति) ऐश्वर्यवन्तं कुर्वन्ति तथा (सप्त, धीतयः) सप्त महदादिप्रकृतयः भवन्तम् (हिन्वन्ति) गतिरूपेण वर्णयन्ति (अनु) ततः (विप्राः) मेधाविनः भवन्तं साक्षात्कृत्य (अमादिषुः) प्रहृष्टा भवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (त्वा, दश, क्षिपः) तुमको पाँच सूक्ष्म भूत और पाँच स्थूलभूत (मृजन्ति) ऐश्वर्यसम्पन्न करते हैं और (सप्त, धीतयः) महदादि सात प्रकृतियें तुम्हें (हिन्वन्ति) गतिरूप से वर्णन करती हैं (अनु) इसके पश्चात् (विप्राः) मेधावी लोग आपको उपलब्ध करके (अमादिषुः) हर्षित होते हैं ॥४॥
भावार्थ
पाँच सूक्ष्म और पाँच स्थूलभूत उसकी शुद्धि व ऐश्वर्य का कारण इस अभिप्राय से वर्णन किये गये हैं कि उन्हीं भूतों के कार्यरूप इन्द्रिय कर्म और ज्ञान द्वारा उसको उपलब्ध करते हैं और उस उपलब्धि को पाकर विद्वान् लोग आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥४॥
विषय
दश क्षिपः सप्त धीतयः
पदार्थ
[१] शरीर में दस इन्द्रियाँ हैं । वे जब व्यसनों को अपने से परे फेंकती हैं तो 'दश क्षिपः' कहलाती हैं [क्षिप्= फेंकना] । 'कर्णाविभौ नासिके चक्षणी मुखम्' ये सात जीवनयज्ञ के होता हैं, ये जब प्रभु का ध्यान करनेवाले होते हैं तो 'धीतयः' कहलाते हैं । (त्वा) = हे सोम ! तुझे (दश) = ये दस (क्षिपः) = व्यसनों को दूर फेंकनेवाली इन्द्रियाँ (मृजन्ति) = शुद्ध करती हैं। इन्द्रियाँ विषयों में न फँसी हों तो सोम शक्ति में वासनाओं का उबाल नहीं आता और वह पवित्र बनी रहती है। [२] (सप्त) = सात [दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व वाणी ] (धीतयः) = प्रभु का ध्यान करनेवाले जीवनयज्ञ के होता (हिन्वन्ति) = तुझे शरीर में ही प्रेरित करते हैं। (अनु) = इस शरीर के अन्दर प्रेरण के अनुपात में ही (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष (अमादिषुः) = हर्ष का अनुभव करते हैं। जितना सोमरक्षण, उतना उल्लास ।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्रियां विषयों से रहित हों तथा प्रभु ध्यान में प्रवृत्त रहें तो सोम शरीर में सुरक्षित रहता है, तभी उल्लास का अनुभव होता है ।
विषय
सातों प्रकृतियों द्वारा अभिषेक।
भावार्थ
हे राजन् ! (त्वा दश क्षिपः मृजन्ति) तुझे दसों दिशाओं में बसने वाली प्रजाएं अभिषिक्त करती हैं और (सप्त धीतयः) सातों वेद की छन्दोमय वाणियां वा सातों प्रकृतियां तुझे (हिन्वन्ति) बढ़ाती हैं। (विप्राः अनु अमादिषुः) विद्वान् पुरुष तेरी निरन्तर प्रतिदिन स्तुति करें,तुझे प्रसन्न करें। राष्ट्र में राजा, अमात्य, भूमि, कोश, सेना, दुर्ग ये ७ प्रकृतियां हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २, ५, ८ निचृद् गायत्री। ३, ४, ७ गायत्री। ६ पादनिचृद् गायत्री। ९ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, human soul at peace, ten energized and energizing modes of nature, subtle and gross elements, give you the beautiful body form, and seven inspiring faculties of sense and mind inspire and move you to think and act. Thus equipped, let the wise sages provide you pleasure and enlightenment with secular and sacred literature.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमेश्वरा! पाच सूक्ष्म व पाच स्थूल भूत हे तुझ्या पवित्र ऐश्वर्य संपन्नतेचे कारण आहेत. त्यात भूतांची कार्यरूपी इंद्रिये साधकाला ज्ञान व कर्माद्वारे परमात्म्याची उपलब्धी करून देतात व ही उपलब्धी झाल्यावर विद्वान लोक आनंद प्राप्त करतात. ॥४॥
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