ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
ऋषिः - कश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वी॒ती जन॑स्य दि॒व्यस्य॑ क॒व्यैरधि॑ सुवा॒नो न॑हु॒ष्ये॑भि॒रिन्दु॑: । प्र यो नृभि॑र॒मृतो॒ मर्त्ये॑भिर्मर्मृजा॒नोऽवि॑भि॒र्गोभि॑र॒द्भिः ॥
स्वर सहित पद पाठवी॒ती । जन॑स्य । दि॒व्यस्य॑ । क॒व्यैः । अधि॑ । सु॒वा॒नः । न॒हु॒ष्ये॑भिः । इन्दुः॑ । प्र । यः । नृऽभिः॑ । अ॒मृतः॑ । मर्त्ये॑भिः । म॒र्मृ॒जा॒नः । अवि॑ऽभिः । गोभिः॑ । अ॒त्ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीती जनस्य दिव्यस्य कव्यैरधि सुवानो नहुष्येभिरिन्दु: । प्र यो नृभिरमृतो मर्त्येभिर्मर्मृजानोऽविभिर्गोभिरद्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठवीती । जनस्य । दिव्यस्य । कव्यैः । अधि । सुवानः । नहुष्येभिः । इन्दुः । प्र । यः । नृऽभिः । अमृतः । मर्त्येभिः । मर्मृजानः । अविऽभिः । गोभिः । अत्ऽभिः ॥ ९.९१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 91; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अद्भिः) कर्मभिः “अप इति कर्मनामसु पठितम्” नि०।२।१। (गोभिः) ज्ञानद्वारा (अविभिः) रक्षया (मर्मृजानः) संशोध्यमान एवम्भूतः (मर्त्येभिः, नृभिः) मनुष्यैः क्रियमाणः (अमृतः) अमृतरूपो भवति, यो यज्ञः (दिव्यस्य, जनस्य) ज्ञानिनः पुरुषस्य (कव्यैः) हवनैः (अधि, सुवानः) प्रादुर्भूतः सन् (इन्दुः) दीप्तिशाली भवति, किञ्च (वीती) देवमार्गाय भवति, यश्चोक्तयज्ञः स (नहुष्येभिः) मानवैर्विधीयमानः शोभनफलवान् भवति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अद्भिः) कर्म्मों के द्वारा “अप इति कर्म्मनामसु पठितम्” निघण्टौ ।२।१ (गोभिः) ज्ञान के द्वारा (अविभिः) रक्षा से (मर्मृजानः) जिसका संशोधन किया गया है, ऐसा यज्ञ (मर्त्येभिर्नृभिः) मनुष्यों से किया हुआ (अमृतः) अमृत होता है। जो यज्ञ (दिव्यस्य जनस्य) ज्ञानी पुरुष के (कव्यैः) हवनों के द्वारा (अधिसुवानः) उत्पन्न हुआ (इन्दुः) दीप्तिवाला होता है और (वीती) देवमार्ग के लिये होता है और यह उक्त यज्ञ (नहुष्येभिः) मनुष्यों के द्वारा किया हुआ उत्तम फलवाला होता है ॥२॥
भावार्थ
जो लोग सत्कर्मों के द्वारा कर्मयज्ञ का सम्पादन करते हैं, वे उत्तम सुख के भागी होते हैं ॥२॥
विषय
उपास्य आत्मा का स्वरूप।
भावार्थ
(यः) जो (मर्त्येभिः) मरणधर्मा (नृभिः) उत्तम पुरुषों द्वारा शुद्ध किया जाता है और (अविभिः) प्राणों द्वारा, (गोभिः) स्तुति-वाणियों द्वारा और (अद्भिः) जलों के तुल्य आप्त पुरुषों द्वारा (मर्मृजानः) पुनः २ शुद्ध किया जाता है, वह (अमृतः) अमर आत्मा है। वह (इन्दुः) दीप्तिमान् (दिव्यस्य जनस्य) दिव्य उत्पत्ति या जन्म को (वीती) भोगने के लिये है और वही (मर्त्येभिः) मनुष्यों द्वारा (कव्यैः) उत्तम विद्वानों के सुन्दर वचनों द्वारा (प्र सुवानः) उपासना किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
दिव्यजन का प्रजनन
पदार्थ
(दिव्यस्य जनस्य) = दिव्यगुण युक्त मनुष्यों के (वीती) = [प्रजनन] विकास के लिये (कव्यैः) = स्तुतिशील (नहुष्येभिः) = मनुष्यों से (अधि सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ यह (इन्दुः) = सोम है। प्रभु का सवन करनेवाले लोग इस सोम को अपने अन्दर उत्पन्न करते हैं, और इसके रक्षण के द्वारा वे एक 'दिव्यजन' का विकास करते हैं, अर्थात् अपने जीवन को दिव्य बना पाते हैं। (यः) = जो सोम (मर्त्येभिः) = मनुष्यों से (प्र मर्मृजान:) = खूब शुद्ध किया जाता हुआ, वासना के उबाल से रहित किया हुआ (अमृत:) = अमृतत्त्व का कारण बनता है। यह सोम (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले पुरुषों से तथा (अविभिः) = वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाले पुरुषों से (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा तथा (अद्भिः) = कर्मों के द्वारा [अप-कर्म] शुद्ध किया जाता है। सोम को रक्षित करने के लिये आवश्यक है कि हम प्रगतिशील बनें [नृभिः], वासनाओं से अपना रक्षण करें [अविभिः], ज्ञान की वाणियों को अपनायें [गोभिः] सदा उत्तम कर्मों में लगे रहें [अद्भिः] ।
भावार्थ
भावार्थ-स्तोता लोग सोम का शरीर में रक्षण करके जीवन को दिव्य बनाते हैं । इसके रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम स्वाध्याय व यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें ।
इंग्लिश (1)
Meaning
The high priest of the yajnic social order, brilliant and benevolent, immortal soul, consecrated by wisest of the brilliant people and the general community and exalted by leading lights and ordinary mortals with common voice, supportive actions and protective thoughts and opinions, goes forward leading the yajnic order for their common good.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक सत्कर्माद्वारे कर्मयज्ञाचे संपादन करतात ते उत्तम सुखाचे भागीदार बनतात. ॥२॥
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