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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    रु॒जा दृ॒ळ्हा चि॑द्र॒क्षस॒: सदां॑सि पुना॒न इ॑न्द ऊर्णुहि॒ वि वाजा॑न् । वृ॒श्चोपरि॑ष्टात्तुज॒ता व॒धेन॒ ये अन्ति॑ दू॒रादु॑पना॒यमे॑षाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रु॒जा । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । र॒क्षसः॑ । सदां॑सि । पु॒ना॒नः । इ॒न्दो॒ इति॑ । ऊ॒र्णु॒हि॒ । वि । वाजा॑न् । वृ॒श्च । उ॒परि॑ष्टात् । तु॒ज॒ता । व॒धेन॑ । ये । अन्ति॑ । दू॒रात् । उ॒प॒ऽना॒यम् । ए॒षा॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुजा दृळ्हा चिद्रक्षस: सदांसि पुनान इन्द ऊर्णुहि वि वाजान् । वृश्चोपरिष्टात्तुजता वधेन ये अन्ति दूरादुपनायमेषाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रुजा । दृळ्हा । चित् । रक्षसः । सदांसि । पुनानः । इन्दो इति । ऊर्णुहि । वि । वाजान् । वृश्च । उपरिष्टात् । तुजता । वधेन । ये । अन्ति । दूरात् । उपऽनायम् । एषाम् ॥ ९.९१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 91; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    अपि च स कर्मयोगी (रक्षसः) राक्षसानां (दृळ्हा, सदांसि) दृढसमितीः (चित्) अपि (रुजा) आत्मीयनाशकशक्त्या विनाशयति, अपि च (विवाजान्) न्यायकारिणां बलशालिनां पुरुषाणां शक्तीः (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! त्वं (ऊर्णुहि) आच्छादय, किञ्च (उपरिष्टात्) उपरिष्टात् (ये, दूरात्) दूरदेशाद्वागच्छन्ति (एषां) एषां राक्षसानां (उपनायं) स्वामिनं (तुजता, वधेन) तीक्ष्णेन शस्त्रेण विनाशय ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    और वह कर्म्मयोगी (रक्षसः) राक्षसों की (दृळ्हा सदांसि) दृढ़ सभाओं को (चित्) भी (रुजा) अपनी नाशक शक्ति से नष्ट कर देता है और (विवाजान्) न्यायकारी बलयुक्त पुरुषों की शक्तियों को (इन्दो) हे प्रकाशमान परमात्मन् ! तुम (ऊर्णुहि) आच्छादन करो और (उपरिष्टात्) जो ऊपर की ओर से आते हैं अथवा (दूरात्) दूर देश से जो आते हैं, (एषां) इन राक्षसों के (उपनायं) स्वामी को (तुजता वधेन) तीक्ष्ण वध से नाश करो ॥४॥

    भावार्थ

    जो पुरुष शम-दमादि साधनसम्पन्न होकर परमात्मपरायण होते हैं, परमात्मा उनके सब विघ्नों को दूर करता है और उनके विघ्नकारी राक्षसों का दमन करके उनके मार्ग को सुगम करता है ॥४॥

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    विषय

    वर के गुण।

    भावार्थ

    वह पुरुष जो विवाह करना चाहता है ( कुवित् शकत् ) स्वयं भी बहुत समर्थ हो, हमें भी बहुत समर्थ करे वह स्वयं भी ( कुवित् करत् ) बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। और वह ( नः ) हमें ( कुवित् ) बहुत प्रकार से ( वस्यसः करत् ) उत्तम धनादि ऐश्वर्य से सम्पन्न करे। ( कुवित् ) बहुतसी ( पतिद्वषः ) बन्धु आदि पालक जनों से प्रीति न करती हुई हम स्त्रियां ( यतीः ) घरों से पृथक् होकर ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान्, अन्न देने में समर्थ पुरुष से ही ( संगमामहै ) संगत, सम्बद्ध हो जाती हैं इसलिये स्त्रियों के साथ विवाह करने वा को चाहिये कि वह अपनी पत्नी को अधिक समर्थ करे, स्वयं भी श्रमशील हो, स्त्रियों को उत्तम वस्त्र आभूषणादि से भी सन्तुष्ट करे जिससे वह अपने पालक जन की निर्धनता से खिन्न होकर द्रव्यवानों के प्रलोभन में न जावें।

    टिप्पणी

    पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः। तस्मादेता सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः। भूतिकामैर्नरैनित्यं सत्कारेपूत्सवेषु च। मनु० अ० ३। श्लो०५५, ५६, ५९॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'रक्षः सदो-विनाश'

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = सोम ! (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (रक्षसः) = राक्षसों की, राक्षसी भावों की (दृढाचित्) = बड़ी दृढ़ भी (सदांसि) = नगरियों को आवास स्थानों को (रुजः) = छिन्न-भिन्न कर । काम ने इन्द्रियों में, क्रोध ने मन में तथा लोभ ने बुद्धि में जो किले बनाये हैं, उन्हें तू तोड़नेवाला बन । हे सोम ! (वाजान्) = हमारे बलों को (वि ऊर्णुहि) = सम्यक् आच्छादित रख। ये बल शत्रुओं से विनष्ट न कर दिये जायें। ये जो भी शत्रु (उपरिष्टात्) = ऊपर से (ये अन्ति) = जो समीपदेश से (दूरात्) = दूर से हमारे पर आक्रमण करते हैं, उन्हें (वृश्च) = काट डाल । (एषाम्) = इन शत्रुओं के (उपनायम्) = वेता को (तुजतावधेन) = हिंसक आयुध से विनष्ट कर काम-क्रोध आदि शत्रुओं का मुखिया यह काम ही है, इस काम को तू विनष्ट करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से सब राक्षसी भावों का विनाश होकर हमारे बलों का रक्षण होता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of power, break down the strongholds of demonic destroyers. Pure, purifying and consecrated, cover the forces of positive strength of creativity. Uproot the saboteurs and the destroyers coming from above, break with the bolt those who are far off or near within, destroy their leaders.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष शमदम इत्यादी साधनसंपन्न होऊन परमात्मपरायण असतात. परमात्मा त्यांच्या सर्व विघ्नांना दूर करतो व त्यांच्या विघ्नकारी राक्षसांचे दमन करून त्यांचा मार्ग सुगम करतो. ॥४ण्।

    टिप्पणी

    स प्रत्नवन्नव्यसे विश्ववार सूक्ताय पथ: कृणुहि प्राच: ।

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