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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 12
    ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः देवता - कृषीबला देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    136

    सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒।योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒मि॒त्रिया इति॑ सुऽमित्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः। स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒ ॥ यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुमित्रिया नऽआप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु यो स्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुमित्रिया इति सुऽमित्रियाः। नः। आपः। ओषधयः। सन्तु। दुर्मित्रिया इति दुःऽमित्रियाः। तस्मै। सन्तु॥ यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 12
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! या आप ओषधयो नोस्मभ्यं सुमित्रियाः सन्तु, ता युष्मभ्यमपि तादृशो भवन्तु, योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तस्मा एता दुर्मित्रियाः सन्तु॥१२॥

    पदार्थः

    (सुमित्रियाः) शोभना मित्रा इव (नः) अस्मभ्यम् (आपः) प्राणा जलानि वा (ओषधयः) सोमाद्याः (सन्तु) (दुर्मित्रियाः) दुर्मित्राः शत्रव इव दुःखप्रदाः (तस्मै) (सन्तु) (यः) (अस्मान्) धर्मात्मनः (द्वेष्टि) अप्रसन्नयति (यम्) दुष्टाचारिणम् (च) (वयम्) (द्विष्मः) अप्रीतयामः॥१२॥

    भावार्थः

    ये रागद्वेषादिदोषान् विहाय सर्वेषु स्वात्मवद्वर्त्तन्ते तेभ्यो धर्मात्मभ्यः सर्वे जलौषध्यादयः पदार्थाः सुखकरा भवन्ति। ये च स्वात्मपोषकाः परद्वेषिणस्तेभ्योऽधर्मात्मभ्यः सर्व एते दुःखकरा भवन्ति, मनुष्यैर्धर्मात्मभिः सह प्रीतिर्दुष्टात्मभिः सहाऽप्रीतिश्च सततं कार्या, परन्तु तेषामप्यन्तःकरणेन कल्याणमेषणीयम्॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो (आपः) प्राण वा जल तथा (ओषधयः) सोमादि ओषधियां (नः) हमारे लिये (सुमित्रियाः) सुन्दर मित्रों के तुल्य हितकारिणी (सन्तु) होवें, तुम्हारे लिये भी वैसी हों। (यः) जो (अस्मान्) हम धर्मात्माओं से (द्वेष्टि) द्वेष करता (च) और (यम्) जिस दुष्टाचारी से (वयम्) हम लोग (द्विष्मः) अप्रीति करें, (तस्मै) उसके लिये वे पदार्थ (दुर्मित्रियाः) शत्रुओं के तुल्य दुःखदायी (सन्तु) होवें॥१२॥

    भावार्थ

    जो राग-द्वेष आदि दोषों को छोड़ कर सबमें अपने आत्मा के तुल्य वर्त्ताव करते हैं, उन धर्मात्माओं के लिये सब जल, ओषधि आदि पदार्थ सुखकारी होते और जो स्वार्थ में प्रीति तथा दूसरों से द्वेष करनेवाले हैं, उन अधर्मियों के लिये ये सब उक्त पदार्थ दुःखदायी होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्माओं के साथ प्रीति और दुष्टों का भी चित्त से सदा कल्याण ही चाहें॥१२॥

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    विषय

    उत्तम आप्तजन ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अ० ६ । २२ ॥ अ० २० । १९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आपः । निचृदनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    सुमित्रिय आप् और ओषधियाँ

    पदार्थ

    छठे मन्त्र में उत्कृष्ट मार्ग पर चलने का उल्लेख था और परिणामतः आधिदैविक कष्टों के न होने का वर्णन आठवें व नववें मन्त्र में था। ग्यारहवें मन्त्र में पापों को दूर करने का उल्लेख करके इस बारहवें मन्त्र में कहते हैं कि (न:) = हमारे लिए, जिन हम लोगों ने 'अघ, किल्बिष, कृत्या व रपस्' को दूर करने का निश्चय किया है, (आप:) = जल और (ओषधयः) = ओषधियाँ (सुमित्रयाः सन्तु) = उत्तम स्नेह करनेवाली हों [ञिमिदा स्नेहने], अर्थात् हमारे लिए हितकारी हों। ये जल व ओषधियाँ हमारे रोगों को दूर करके मृत्यु से बचानेवाली हों [प्रमीते: त्रायते] (तस्मै) = उस व्यक्ति के लिए ये जल व ओषधियाँ (दुर्मित्रियाः सन्तु) = दुर्मित्रिय हों (यः) = जो (अस्मान्) = हम सबसे (द्वेष्टि) = द्वेष करता है (यं च) = और परिणामतः जिसको (वयम्) = हम सब (द्विष्मः) = प्रीति के योग्य नहीं समझते। यदि कोई व्यक्ति ऐसा है जो सारे समाज से सदा वैर-विरोध करता रहता है, समझाने से भी समझता नहीं तो वह फिर अवाञ्छनीय हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ये जल व ओषधियाँ हितकर न हों। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह बात है भी ठीक। जो व्यक्ति सदा ईर्ष्या-द्वेष व लड़ाई-झगड़े में चलता है उसकी इस मनोवृत्ति के परिणामस्वरूप कुछ विष उत्पन्न हो जाते हैं जो इन जलों व ओषधियों का परिणाम हितकर नहीं होने देते। जो व्यक्ति सब स्थानों से अच्छाई को ही लेने का अभ्यास करते हैं और इस प्रकार देववृत्तिवाले होते हैं वे 'आदित्यदेव' ही प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि हैं, इनका मन ईर्ष्या-द्वेषादि से सदा ऊपर रहता है। इस मनःप्रसाद के कारण इनके खान-पान का इनके जीवन में उत्तम प्रभाव होता है। सर्पवृत्ति के कुटिल व औरों का घातपात करनेवाले लोग दुग्धामृत भी पीएँ तो उसका परिपाक विष के रूप में होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- पापों को दूर करके हम देवों के प्रिय हों, जलौषधि हमारे लिए हितकर हों ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे रोग द्वेष इत्यादी दोष सोडून सर्वांशी आपल्या आत्म्याप्रमाणे वागतात त्या धर्मात्मा व्यक्तीसाठी सर्व जल, औषधे इत्यादी पदार्थ सुखकारी असतात व जे स्वार्थी आणि दुसऱ्यांचा द्वेष करतात त्या अधार्मिक लोकांसाठी वरील सर्व पदार्थ दुःखदायी असतात. माणसांनी धर्मात्मा लोकांबरोबर प्रेम व दुष्टांबरोबर सतत अप्रीती करावी; परंतु त्या दुष्टांचेही मनाने नेहमी कल्याणच इच्छावे.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दाथ -हे मनुष्यानो, जे (आप) प्राण अथवा जल तसेच (ओषधयः) सोम आदी औषधी (नः) आमच्यासाठी (सुमित्रियाः) सन्मित्राप्रमाणे हितकारिणी (सन्तु) व्हाव्यात. तसेच (यः) जो कोणी (अस्मान्) आम्हा धर्मात्मा लोकांशी (द्वेष्टि) द्वेष करतो (च) आणि (यम्) ज्या दुष्टात्मा जनाशी (वयम्) आम्ही (द्विष्मः) द्वेष करतो, (तस्मै) ते सर्व पदार्थ (दुर्मित्रियाः) त्या दुष्टासाठी शत्रूप्रमाणे दुखदायी ((सन्तु) व्हावेत. ॥12॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे मनुष्य राग-द्वेष आदी दोषांचा त्याग करून सर्वांशी स्वतःप्रमाणे म्हणजे आपले मानून वागतात, त्या धर्मात्मा लोकांसाठी सर्व जल, औषधी आदी पदार्थ सुखकारी होतात. या उलट जे लोक स्वार्थात लिप्त असून इतरांशी द्वेष करतात, त्या अधर्मी लोकांसाठी ते पूर्वोक्त पदार्थ दु:खदायी होतात. मनुष्यांनी धर्मात्माजनांशी प्रीती जोडावी आणि दुष्टजनांविषयी सदैव अप्रातीभाव ठेवावा, तथापी तसे करतांना त्या दुष्टांविषयी देखील मनात मंगलकामना असू द्यावी. ॥12॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    To us let waters, and the medicinal plants be friendly, to him who hates us, whom we hate, unfriendly.

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    Meaning

    May the waters and pranic energies, and herbs such as somalata be good friends to us, and may they be antidotes to those negativities which harm us and which we hate to suffer.

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    Translation

    May the waters and herbs be friendly to us; and unfriendly to him, who hates us and whom we do hate. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কিং কুর্য়্যুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্য কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (আপঃ) প্রাণ বা জল তথা (ওষধয়ঃ) সোমাদি ওষধি সকল (নঃ) আমাদের জন্য (সুমিত্রিয়াঃ) সুন্দর মিত্রদের তুল্য হিতকারিণী (সন্তু) হউক, তোমাদের জন্য ও তদ্রূপ হউক (য়ঃ) যে (অস্মান্) আমাদের মতো ধর্মাত্মাদের প্রতি (দ্বেষ্টি) দ্বেষ করে (চ) এবং (য়ম্) যে দুষ্টাচারীর সহিত (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি (তস্মৈ) তাহার জন্য সেই সব পদার্থ (দুর্মিত্রিয়াঃ) শত্রুদের তুল্য দুঃখদায়ী (সন্তু) হউক ॥ ১২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যাহারা রাগদ্বেষ ত্যাগ করিয়া সকলের মধ্যে নিজের আত্মার তুল্য আচরণ করে সেই সব ধর্মাত্মাদিগের জন্য সব জল ওষধি আদি পদার্থ সুখকারী হয় এবং যাহারা স্বার্থবশতঃ প্রীতি এবং অন্যের সহিত দ্বেষ করে, সেই সব অধর্মীদের জন্য এই সব উক্ত পদার্থ দুঃখদায়ী হইয়া থাকে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, ধর্মাত্মাদের সহ প্রীতি ও দুষ্টদিগের সহিত নিরন্তর অপ্রীতি করিবে কিন্তু সেই দুষ্টদেরও চিত্ত দ্বারা সর্বদা কল্যাণ কামনা করিবে ॥ ১২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সু॒মি॒ত্রি॒য়া ন॒ऽআপ॒ऽওষ॑ধয়ঃ সন্তু দুর্মিত্রি॒য়াস্তস্মৈ॑ সন্তু॒ ।
    য়ো᳕ऽস্মান্ দ্বেষ্টি॒ য়ং চ॑ ব॒য়ং দ্বি॒ষ্মঃ ॥ ১২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সুমিত্রিয়া ন ইত্যস্যাদিত্যা দেবা ঋষয়ঃ । আপো দেবতাঃ । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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