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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 15
    ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    96

    इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ऽअर्थ॑मे॒तम्।श॒तं जी॑वन्तु श॒रदः॑ पुरू॒चीर॒न्तर्मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। जी॒वेभ्यः॑। प॒रि॒धिमिति॑ परि॒ऽधिम्। द॒धा॒मि॒। मा। ए॒षा॒म्। नु। गा॒त्। अप॑रः। अर्थ॑म्। ए॒तम् ॥ श॒तम्। जी॒व॒न्तु॒। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। अ॒न्तः। मृ॒त्युम्। द॒ध॒ता॒म्। पर्व॑तेन ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमञ्जीवेभ्यः परिधिन्दधामि मैषान्नु गादपरो अर्थमेतम् । शतथ्जीवन्तु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युन्दधताम्पर्वतेन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। जीवेभ्यः। परिधिमिति परिऽधिम्। दधामि। मा। एषाम्। नु। गात्। अपरः। अर्थम्। एतम्॥ शतम्। जीवन्तु। शरदः। पुरूचीः। अन्तः। मृत्युम्। दधताम्। पर्वतेन॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 15
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    अहं परमेश्वर एषां जीवानामेतमर्थमपरो मा नु गादितीमं जीवेभ्यः परिधिं दधाम्येवमाचरन्तो भवन्तः पुरूचीः शतं शरदो जीवन्तु पर्वतेन मृत्युमन्तर्दधताम्॥१५॥

    पदार्थः

    (इमम्) प्रत्यक्षम् (जीवेभ्यः) प्राणधारकेभ्यः स्थावरशरीरेभ्यश्च (परिधिम्) मर्यादाम् (दधामि) व्यवस्थापयामि (मा) (एषाम्) जीवानाम् (नु) सद्यः (गात्) प्राप्नुयात् (अपरः) अन्यः (अर्थम्) द्रव्यम् (एतम्) प्राप्तम् (शतम्) (जीवन्तु) (शरदः) (पुरूचीः) या पुरूणि बहूनि वर्षाण्यञ्चन्ति ताः (अन्तः) मध्ये (मृत्युम्) (दधताम्) धारयन्तु (पर्वतेन) ज्ञानेन ब्रह्मचर्यादिना वा॥१५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! ये परमेश्वरेण व्यवस्थापितां धर्माचरणं कार्य्यमधर्माचरणं त्याज्यमिति मर्यादां नोल्लङ्घन्तेऽन्यायेन परपदार्थान्न स्वीकुर्वन्ति, तेऽरोगाः सन्तश्शतं वर्षाणि जीवितुं शक्नुवन्ति, नेतर ईश्वराज्ञाभङ्क्तारः। ये पूर्णेन ब्रह्मचर्येण विद्या अधीत्य धर्ममाचरन्ति तान् मृत्युर्मध्ये नाप्नोतीति॥१५॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते है॥

    पदार्थ

    मैं परमेश्वर (एषाम्) इन जीवों के (एतम्) परिश्रम से प्राप्त किये (अर्थम्) द्रव्य को (अपरः) अन्य कोई (मा) नहीं (नु) शीघ्र (गात्) प्राप्त कर लेवे, इस प्रकार (इमम्) इस (जीवेभ्यः) जीवों के लिये (परिधिम्) मर्यादा को (दधामि) व्यवस्थित करता हूं, इस प्रकार आचरण करते हुए आप लोग (पुरूचीः) बहुत वर्षों के सम्बन्धी (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं भर (जीवन्तु) जीवो (पर्वतेन) ज्ञान वा ब्रह्मचर्यादि से (मृत्युम्) मृत्यु को (अन्तः) मध्य में (दधताम्) दबाओ अर्थात् दूर करो॥१५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो लोग, परमेश्वर ने नियत किया कि धर्म का आचरण करना और अधर्म का आचरण छोड़ना चाहिये, इस मर्यादा को उल्लङ्घन नहीं करते, अन्याय से दूसरे के पदार्थों को नहीं लेते, वे नीरोग होकर सौ वर्ष तक जी सकते हैं और ईश्वराज्ञाविरोधी नहीं। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर धर्म का आचरण करते हैं, उनको मृत्यु मध्य में नहीं दबाता॥१५॥

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    विषय

    अग्रणी रक्षक के कर्तव्य

    भावार्थ

    ( जीवेभ्यः) जीवों की रक्षा के लिये मैं राजा ( इमम् ) इस ( परिधिम् ) नगर के चारों ओर परकोट के समान रक्षा के साधन ( दधामि ) स्थापित करता हूँ । जिससे (अपर: ) दूसरा शत्रु पुरुष (एषाम् ) इन मेरे प्रजाजनों के ( एतम् ) इस ( अर्थम् ) धन को ( मा नु गात् ) प्राप्त न करे । वे प्रजाजन (पुरूची :) बहुत से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले होकर ( शतं शरदः जीवन्तु) सौ-सौ वर्ष जीवें । (पर्वतेन) शत्रु को जिस प्रकार पर्वत आदि अलङध्य पदार्थ से परे रक्खा जाता है उसी प्रकार ( मृत्युम् ) मृत्यु, उसके कारण रूप शत्रु और हिंसक जीवों को भी (पर्वतेन ) पालन- पोषण सामर्थ्यो से युक्त राजा द्वारा तथा पर्व, अध्यायों और काण्डों से युक्त वेद के ज्ञानकाण्ड द्वारा और पर्व अर्थात् बाण आदि शस्त्रों से युक्त सेना द्वारा ( अन्तःदधताम् ) दूर करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संकसुकः । मनुष्यो मृत्युरीश्वरो वा । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे लोक परमेश्वराचे नियम पाळून धर्माचे आचरण व अधर्माचा त्याग, या मर्यादांचे उल्लंघन करत नाहीत. अन्यायाने दुसऱ्यांचे पदार्थ घेत नाहीत ते निरोगी बनून शंभर वर्षांपर्यंत जगू शकतात. ते ईश्वराज्ञेविरुद्ध नसतात. जे पूर्ण ब्रह्मचर्याचे पालन करून विद्या शिकतात व धर्माचरण करतात त्यांना मृत्यू अकाली येत नाही.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (परमेश्‍वर उपदेश करीत आहे आणि उपासकांना अभय देत आहे. परमेश्‍वर म्हणतो) मी परमेश्‍वर (उपासकांना अभय देत सांगत आहे की) (एषाम्) या जीवांनी (एतम्) पुरुषार्थ आणि सत्याचरणाद्वारे अर्जित (द्रव्यम्) धनाचे (अपरः) अन्य कोणी (मा) (नु) (गात्) अपहार वा नाश करण्यात यशस्वी होऊ नये (वा होणार नाही) अशाप्रकारे (इमम्) या (जीवेभ्यः) प्राण्यांसाठी मी (परिधिम्) मर्यादा (अथवा जीवनावधी) (दधामि) घालून देत आहे (तुमच्यापैकी कोणीही अल्पायू होऊ नये, तुम्ही पूर्ण आयुष्य उपभोगाने, अशी व्यवस्था करीत आहे) अशाप्रकारे सदाचरण करीत तुम्ही सर्वजण (पुरूचीः) अनेक वर्षापर्यंत वा (शतम्) (शरदः) शंभर ऋतूपर्यंत (जीवन्तु) जीवित रहा आणि (पर्वतेम) ज्ञानरूप वा ब्रह्मचर्यरूप पर्वताने (मृत्युम्) तुम्ही मृत्यूला (आन्तः) (दधताम्) दाबून टाका वा दूर ठेवा. ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जे मनुष्य परमेश्‍वराने निश्‍चित केलेल्या धर्माचे आचरण करतात आणि अधर्माचा त्याग करतात, ईश्‍वराने ठरविलेल्या मर्यादेचे उल्लंघन करीत नाहीत, इतरांचे पदार्थ हिसकावून घेत नाहीत, ते लोक अवश्यमेव शंभरवर्ष जिवंत राहू शकतात. तसेच जे ईश्‍वराज्ञेच्या विरुद्ध न जाता पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करून. विद्या प्राप्त करीत धर्माप्रमाणे आचरण करतात, त्यांना मृत्यू अवेळी येऊन अडवू शकत नाही. (वा त्यांना अवेळी मरण येत नाही) ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    So that none may confiscate speedily the wealth amassed through exertion by these souls, I establish a law of morality, following which you can live for a hundred lengthened autumns, and keep death away through celibacy and knowledge.

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    Meaning

    I fix and raise this limit and boundary wall for the safety and discipline of the living souls so that nothing alien may encroach upon their freedom and property. May these abundant souls live for a hundred years and by their law and discipline resist death from within.

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    Translation

    I hereby set this a limit for the living (men). Let none of them follow a different course other than this. May they live a hundred autumns for multi-benevolent activities. May this keep death on the other side of the mountain. (1)

    Notes

    Paridhim, limit; a rampart. According to the ritualists, the Adhvaryu raises a mound of earth (or a brand or enclosing stick) as a line of demarcation between the dead and the living, limiting, as it were, the jurisdiction of death until the natural time of its approach. . Antarmṛtyuin dadhatām parvatena, may that keep death on the other side of the mountain, or keep the mountain between death and us. Purūciḥ, बहु, many; long.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- আমি পরমেশ্বর (এষাম্) এই সব জীবদের (এতম্) পরিশ্রম দ্বারা প্রাপ্ত (অর্থম্) দ্রব্যকে (অপরঃ) অন্য কেহ (মা) না (নু) শীঘ্র (গাৎ) প্রাপ্ত করিয়া লয় এইরকম (ইমম্) এই (জীবেভ্যঃ) জীবদের জন্য (পরিধিম্) মর্য্যাদাকে (দধামি) ব্যবস্থিত করি, এই রকম আচরণ করিয়া তোমরা (পুরূচীঃ) বহু বর্ষের সম্পর্কীয় (শতম্) শত (শরদঃ) শরদ ঋতুগুলি ধরিয়া (জীবন্তু) জীবন ধারণ কর (পর্বতেন) জ্ঞান বা ব্রহ্মচর্য্যাদি দ্বারা (মৃত্যুম্) মৃত্যুকে (অন্তঃ) (দধতাম্) চাপিয়া ধর অর্থাৎ দূর কর ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! পরমাত্মা নিশ্চয় করিয়াছেন যে, ধর্মের আচরণ করা উচিত এবং অধর্মের আচরণ ত্যাগ করা উচিত । যাহারা এই মর্য্যাদার উল্লঙ্ঘন করে না, অন্যায়পূর্বক অপরের পদার্থ হস্তগত করে না, তাহারা নীরোগ হইয়া শত বর্ষ পর্য্যন্ত বাঁচিতে পারে এবং ঈশ্বরাজ্ঞাবিরোধী নয় । যাহারা পূর্ণ ব্রহ্মচর্য্য দ্বারা বিদ্যা পড়িয়া ধর্মের আচরণ করে তাহাদেরকে মৃত্যু জীবনের মধ্যে চাপিয়া ধরে না ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒মং জী॒বেভ্যঃ॑ পরি॒ধিং দ॑ধামি॒ মৈষাং॒ নু গা॒দপ॑রো॒ऽঅর্থ॑মে॒তম্ ।
    শ॒তং জী॑বন্তু শ॒রদঃ॑ পুরূ॒চীর॒ন্তমৃর্ত্॒যুং দ॑ধতাং॒ পর্ব॑তেন ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইমমিত্যস্য সঙ্কসুক ঋষিঃ । ঈশ্বরো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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