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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बार्हस्पत्यौदनः छन्दः - साम्न्युष्णिक् सूक्तम् - ओदन सूक्त
    34

    याव॑द्दा॒ताभि॑मन॒स्येत॒ तन्नाति॑ वदेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑त् । दा॒ता । अ॒भि॒ऽम॒न॒स्येत॑ । तत् । न । अति॑ । व॒दे॒त् ॥३.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावद्दाताभिमनस्येत तन्नाति वदेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावत् । दाता । अभिऽमनस्येत । तत् । न । अति । वदेत् ॥३.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (यावत्) जितना [ब्रह्मज्ञान] (दाता) दाता [ज्ञानदाता] (अभिमनस्येत) मन से विचारे, (तत्) उस को (अति) अधिक करके वह [ज्ञानदाता] (न वदेत) न बोले ॥२५॥

    भावार्थ

    उपदेशक गुरु विचारपूर्वक ब्रह्मज्ञान का सत्य-सत्य उपदेश करे, कदापि मिथ्या न बोले ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(यावत्) यत्प्रमाणं ब्रह्मज्ञानम् (दाता) ज्ञानदाता गुरुः (अभिमनस्येत) भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हलः। पा० ३।१।१२। अभिमनस्-क्यङ्, न सलोपः। मनसा विचारयेत् (तत्) ब्रह्मज्ञानम् (न) निषेधे (अति) अधिकम् (वदेत्) ब्रूयात् ॥

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    विषय

    न अल्पः, न अनुपसेचनः

    पदार्थ

    १. वेदज्ञान को यहाँ 'ब्रह्मौदन' कहा गया है। इस ब्रह्मौदन का सर्वमहत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य विषय प्रभु हैं, अत: एक आचार्य से जिज्ञासु [विद्यार्थी] कहता है कि (तं त्वा) = उन आपसे मैं (ओदनस्य) = ओदन के विषय में (पृच्छामि) = पूछता हूँ, (य:) = जो (अस्य) = इस ब्रह्मौदन की (महान् महिमा) = महनीय महिमा है। इसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य विषय प्रभु के विषय में मैं आपसे पूछता हूँ। २. आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि (स:) = वह (य:) = जो (ओदनस्य) = इस ब्रह्मौदन की (महिमानम्) = महिमा को-सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिपाद्य विषय को (विद्यात्) = जाने वह (इति ब्रूयातू) = इतना ही कहे [कह सकता है] कि (न अल्पः) = वे प्रभु अल्प नहीं हैं-सर्वमहान् हैं, सर्वत्र व्याप्त है। (न अनुपसेचनः इति) = वे उपासक को आनन्द से सिक्त न करनेवाले नहीं। प्रभु उपासक को आनन्द से सर्वत: सिक्त कर देते हैं। उपासक एक अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है। वह उस प्रभु के विषय में यही कह सकता है कि (इदं च किञ्चन इति) = वे प्रभु यह जो कुछ प्रत्यक्ष दिखता है, वह नहीं है। आँखों से दिखनेवाले व कानों से सुनाई पड़नेवाले व नासिका से प्राणीय, जिह्वा से आस्वादनीय व त्वचा से स्पर्शनीय' वे प्रभु नहीं है। वे 'यह नहीं है-यह नहीं हैं' यही उस ओदन की महान् महिमा के विषय में कहा जा सकता है। ३. (दाता) = ब्रह्मज्ञान देनेवाला (यावत्) = जितना (अभिमनस्येत) = उस ब्रह्म के विषय में मन से विचार करे, (तत् न अतिवदेत्) = उससे अधिक न कहे, अर्थात् ब्रह्म के विषय में मनन पर ही वह अधिक बल दे और जितना उसका मनन कर पाये उतना ही जिज्ञासु से कहे।

    भावार्थ

    वेदज्ञान का मुख्य प्रतिपाद्य विषय 'ब्रह्म' है। ब्रह्म के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि वह 'सर्वमहान्' हैं, आनन्ददाता हैं, इन्द्रियों का विषय नहीं हैं। हमें उसके मनन का ही प्रयत्न करना है। उसका शब्दों से ज्ञान देना कठिन है।

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    भाषार्थ

    (दाता) दाता (यावत्) जितना (अभिमनस्येत) देने का मन करे, (तत् न अति वदेत्) उस से अधिक के लिये न कहे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २४, २५ में खाद्य ओदन के सम्बन्ध में यह भी उपदेश दिया है कि दाता जितना देना चाहे उस से अधिक न मांगे। यदि ओदन, विना दाल-सब्जी के, दाता ने दिये हैं, तो उस से इन उपसेचनों की मांग न करे। यह उपदेश धनादि के दान के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    As much as the Giver pleases to give ... don’t under-estimate, don’t understate, don’t say it should have been more ... because it is not enough.

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    Translation

    As much as the giver may set his mind upon, that one should not overbid (ati-vad).

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    Translation

    He cannot declare it to be greater than the giver imagines it to be.

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    Translation

    The theologians say, O man, hast thou realized the distant or proximate God.

    Footnote

    God is near the learned, who seek Him in their heart, and away from the ignorant, who seek Him in material objects. He is everywhere, neither near nor far.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(यावत्) यत्प्रमाणं ब्रह्मज्ञानम् (दाता) ज्ञानदाता गुरुः (अभिमनस्येत) भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हलः। पा० ३।१।१२। अभिमनस्-क्यङ्, न सलोपः। मनसा विचारयेत् (तत्) ब्रह्मज्ञानम् (न) निषेधे (अति) अधिकम् (वदेत्) ब्रूयात् ॥

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