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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 32
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - सूक्तम् - ओदन सूक्त
    71

    तत॑श्चैनम॒न्येन॑ शी॒र्ष्णा प्राशी॒र्येन॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। ज्ये॑ष्ठ॒तस्ते॑ प्र॒जा म॑रिष्य॒तीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। बृ॑ह॒स्पति॑ना शी॒र्ष्णा। तेनै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तेनै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत॑: । च॒ । ए॒न॒म् । अ॒न्येन॑ । शी॒र्ष्णा । प्र॒ऽआशी॑: । येन॑ । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ ज्ये॒ष्ठ॒त: । ते॒ । प्र॒ऽजा । म॒रि॒ष्य॒ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ बृह॒स्पती॑ना । शी॒र्ष्णा ॥ तेन॑ । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । तेन॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽतनू: । सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: । सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततश्चैनमन्येन शीर्ष्णा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। ज्येष्ठतस्ते प्रजा मरिष्यतीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। बृहस्पतिना शीर्ष्णा। तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत: । च । एनम् । अन्येन । शीर्ष्णा । प्रऽआशी: । येन । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ ज्येष्ठत: । ते । प्रऽजा । मरिष्यति । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ बृहस्पतीना । शीर्ष्णा ॥ तेन । एनम् । प्र । आशिषम् । तेन । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽतनू: । सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: । सम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 32
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जिज्ञासु !] (च) यदि (एनम्) इस [ओदन, अन्नरूप परमेश्वर] को (ततः) उससे (अन्येन) भिन्न (शीर्ष्णा) शिर से (प्राशीः) तूने खाया [अनुभव किया] है, (येन) जिस [शिर] से (च) ही (एतम्) इस [परमेश्वर] को (पूर्वे) पहिले (ऋषयः) ऋषियों [वेदार्थ जाननेवालों] ने (प्राश्नन्) खाया [अनुभव किया] था। (ज्येष्ठतः) अति बड़े से लेकर (ते) तेरे (प्रजा) [राज्य की] प्रजा (मरिष्यति) मरेगी, (इति) ऐसा (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) वह [आचार्य] कहे ॥[जिज्ञासु का उत्तर]−(अहम्) मैंने (वै) निश्चय करके (न) अब (तम्) उस (अर्वाञ्चम्) पीछे वर्तमान रहनेवाले, (न) अब (पराञ्चम्) दूर वर्तमान और (न) अब (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष वर्तमान [परमेश्वर] को [खाया है]। (तेन) उसी [ऋषियों के समान] (बृहस्पतिना) बड़े ज्ञानों के रक्षक (शीर्ष्णा) शिर से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (प्र आशिषम्) मैंने खाया [अनुभव किया] है, (तेन) उसी से (एनम्) इसको (अजीगमम्) मैंने पाया है ॥(एषः) यह (वै) ही (ओदनः) ओदन [सुखवर्षक अन्नसमान परमेश्वर] (सर्वाङ्गः) सब उपायोंवाला, (सर्वपरुः) सब पालनोंवाला और (सर्वतनूः) सब उपकारोंवाला है। वह [मनुष्य] (एव) ही (सर्वाङ्गः) सब उपायोंवाला, (सर्वपरुः) सब पालनोंवाला और (सर्वतनूः) सब उपकारोंवाला (सम् भवति) हो जाता है, (यः) जो [मनुष्य] (एवम्) ऐसा (वेद) जानता है ॥३२॥

    भावार्थ

    आचार्य उपदेश करे−हे शिष्य तू वेदानुगामी ऋषियों के समान परमेश्वर में प्रीति कर, यदि उससे विरुद्ध चलेगा तो शरीर और आत्मा से गिरकर संसार का अपकार करेगा। तब शिष्य परमात्मा में पूर्ण भक्ति से प्रतिज्ञा करके आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक बल बढ़ावे ॥३२॥

    टिप्पणी

    ३२−(ततः) तस्माद् मस्तकात् (च) चेत् (एनम्) ओदनम् (अन्येन) भिन्नेन (शीर्ष्णा) शिरसा। शिरोविचारेण (प्राशीः) म० २६। भक्षितवानसि। अनुभूतवानसि (येन) शिरसा (च) एव (एतम्) ओदनम् (पूर्वे) पूर्वजाः (ऋषयः) वेदार्थज्ञातारः (प्राश्नन्) भक्षितवन्तः। अनुभूतवन्तः (ज्येष्ठतः) ज्येष्ठमारभ्य (ते) तव (प्रजा) राज्यजनता (मरिष्यति) मरणं प्राप्स्यति (इति) अनेन प्रकारेण (एनम्) जिज्ञासुम् (आह) ब्रवीति योगिजनः (तम्) ओदनम् (वै) निश्चयेन (अहम्) जिज्ञासुः (न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। (अर्वाञ्चम्) अवरे पश्चात् काले प्रलये वर्तमानम् (न) सम्प्रति (पराञ्चम्) दूरे गतम् (न) सम्प्रति (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षं प्राप्तम् (बृहस्पतिना) बृहतां ज्ञानानां रक्षकेण (शीर्ष्णा) शिरसा (तेन) (एनम्) ओदनम् (प्राशिषम्) भक्षितवानस्मि। अनुभूतवानस्मि (तेन) (एनम्) (अजीगमम्) गमेः स्वार्थण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। अगमम्। प्राप्तवानस्मि (एषः) (वै) (ओदनः) सुखवर्षकोऽन्नरूपः परमेश्वरः (सर्वाङ्गः) अङ्ग पदे लक्षणे च-अच्। सर्वोपाययुक्तः (सर्वपरुः) अर्तिपॄवपियजितनि०। उ० २।११७। पॄ पालनपूरणयोः उसि। सर्वपालनयुक्तः (सर्वतनूः) कृषिचमितनिधनि०। उ० १।८०। तनु विस्तारे श्रद्धोपकरणयोश्च-ऊ। सर्वोपकारयुक्तः (सर्वाङ्गः) सर्वोपायः (एव) (सर्वपरुः) सर्वपालनः (सर्वतनूः) सर्वोपकारः (सम्) सम्यक् (भवति) (यः) पुरुषः (एवम्) (वेद) वेत्ति परमात्मानम् ॥

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    विषय

    बृहस्पतिना शीर्ष्णा

    पदार्थ

    १. '३।१।१' में कहा था कि ओदन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय [शिर स्थानीय विषय] 'बृहस्पति-सर्वज्ञ प्रभु' ही है। उसी पर बल देने के लिए कहते हैं कि (तत: च) = और तब जबकि वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय वह सब महान् लोकों का रक्षक [बृहतामाकाशादीनां पतिः] सर्वज्ञ प्रभ है, (च) = और (येन) = जिस बृहस्पतिरूप सिर से (पूर्वे ऋषयः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले, वासनाओं का संहार [ऋष् to kill] करनेवाले ज्ञानियों ने (एतं प्राश्नन्) = इस ब्रह्मौदन को खाया तो यदि तू (एनम्) = इस ब्रह्मौदन को (अन्येन च शीर्ष्णा) = बृहस्पति से भिन्न सिर से (प्राशी:) = खाता है-यदि तू इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म को न जानकर कुछ और ही समझता है तो ब्रह्मज्ञ आचार्य (एनम् आह) = इस शिष्य से कहता है कि (ते) = तेरी (प्रजा) = सन्तान (ज्येष्ठत:) = ज्येष्ठादि क्रम से (मरिष्यति इति) = विनष्ट हो जाएगी। (अहम्) = मैंने जो (तम्) = उस ओदन को (वै) = निश्चय से (न अर्वाञ्चम्) = न केवल यहाँ-नीचे [पृथिवी] के विषयों का ज्ञान देनेवाला [अर्वाङ्अञ्चन्तम्] (न पराञ्चम्) = न दूर के [धुलोक के ही] पदार्थों का ज्ञान देनेवाला [परा अञ्चन्तम्] तथा (न प्रत्यञ्चम्) = न ही [प्रति अञ्चन्तम्] केवल सामने के-अन्तरिक्षस्थ पदार्थों का ज्ञान देनेवाला जाना है (अपितु तेन) = उस (बृहस्पतिना शीर्ष्णा) = ब्रह्म' ही इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है, शिर:स्थानीय है, इसप्रकार मानकर (एनं प्राशिषम्) = इस ब्रह्मौदन को खाया है, (तेन एनं अजीगमम्) = उस बृहस्पतिरूप सिर से ही मैंने इसे प्राप्त किया है। २. (एषः ओदन:) = यह ब्रह्मौदन (वै) = निश्चय से (सर्वाङ्गः) = सम्पूर्ण अंगोंवाला (सर्वपरु:) = सम्पूर्ण पर्वों-[अवयव-सन्धियों]-वाला व (सर्वतनू:) = सम्पूर्ण [whole स्वस्थ] शरीरवाला है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार इस ब्रह्मौदन को समझ लेता है वह (सर्वाङ्गः एव) = सब अंगोंवाला ही (सर्वपरु:) = सम्पूर्ण अवयवसन्धियोंवाला व (सर्वतनूः) = स्वस्थ शरीरवाला (संभवति) = होता है, पुण्यलोकों में जन्म लेता है।

    भावार्थ

    हमें वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म को ही जानना। यह वेद केवल पृथिवी के, धुलोक के व सम्मुखस्थ अन्तरिक्ष लोक के ही पदार्थों का वर्णन नहीं करता। इसे तो यही समझकर पढ़ना कि इन सब वाणियों का अन्तिम तात्पर्य उस प्रभु में है। इसप्रकार पढ़ने पर यह हमें पूर्ण स्वस्थ बनाएगा और हमारी सन्ताने भी दीर्घजीवी होंगी।

     

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    भाषार्थ

    (पूर्वे ऋषयः) पूर्व काल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (येन शीर्ष्णा) जिस सिर से (एतम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है (ततः) उस से (च) यदि (अन्येन शीर्ष्णा) भिन्न सिर से (एनम्) इस ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है, तो (ते प्रजा) तेरी प्रजा (ज्येष्ठतः) ज्येष्ठ अंग से प्रारम्भ कर के (मरिष्यति) मर जायेगी (इति) यह (एनम्) इस प्राशन करने वाले को कहे। (तम्) उस ओदन को (वै) निश्चय से, (न अर्वाञ्चम्१) न इधर गति करते हुए को, (न पराञ्चम्१) न दूर के लोकों में गति करते हुए को, (न प्रत्यञ्चम्१) न प्रतीक अर्थात् प्रतिकूल भाव में रहते हुए को (अहम्) मैंने प्राशित किया है। (बृहस्पतिना शीर्ष्णा) बृहस्पति रूप सिर से मैं ने उस ओदन का प्राशन किया हैं। (तेन) उस सिर से (एनम्) इस ओदन का (प्राशिषम्) मैं ने प्राशन किया है, (तेन) उस सिर द्वारा (एनम्) इस ओदन को (अजीगमम्) मैंने प्राप्त किया है। (एषः) यह ओदन (वै) निश्चय से (सर्वाङ्गः) सर्वाङ्ग सम्पूर्ण है, (सर्वपरुः) सब सन्धियों से युक्त हैं, (सर्वतनूः) सम्पूर्ण शरीर अर्थात् स्वरूप वाला है। (एषः) यह प्राशन कर्ता भी (सर्वाङ्गः, सर्वपरुः, सर्वतनूः) सर्वाङ्ग सम्पूर्ण, सब सन्धियों से युक्त, सम्पूर्ण शरीर वाला (स भवति) हो जाता (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार (वेद) ओदन के प्राशन के तत्त्व को (वेद) जानता है।

    टिप्पणी

    [पूर्वे ऋषयः= पुर्व पूरणे, सद्गुणों से सम्पूर्ण। प्रजा ज्येष्ठतः=ब्रह्मौदन का प्राशन यदि बृहस्पतिरूप सिर द्वारा नहीं किया तो प्राशन कर्ता को अभिज्ञ व्यक्ति कहा है कि तेरी प्रजा जो कि तेरे शरीर के भिन्न-भिन्न अवयव और अङ्ग हैं, उन में से ज्येष्ठ अङ्ग जोकि "सिर" है, वहां से प्रारम्भ कर, अवयव और अङ्ग-प्रत्यङ्गरूपी तेरी प्रजा सदा पुनर्जन्मों द्वारा मृत्यु का ग्रास बनी रहेगी। शरीर है जीवात्मा की पुरी और इस पुरी में रहने वाले अङ्ग-प्रत्यङ्ग तथा अन्य शक्तियां जीवात्मा की प्रजाएं हैं। सिर के विकृत हो जाने पर सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग आदि विकृत हो कर विनाशोन्मुख हो जाते हैं। इस से विधि पूर्वक ब्रह्मौदन के आध्यात्मिक प्राशन के लिये प्राशनकर्ता को प्रेरित किया गया है। इसलिये ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन किया है कि ब्रह्म न केवल इधर अर्थात् पृथिवी पर सक्रिय हो रहा है, न केवल दूर के लोकों में ही सक्रिय हो रहा है, अपितु वह सर्वव्यापक हो कर सक्रिय हो रहा है। यथा “तद् दूरे तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः” (यजु० ४०/५)। प्राशनकर्ता यह कहता है कि मैंने प्रत्यङ्भाव अर्थात् प्रतिकूल भाव में रहते हुए ब्रह्मौदन का प्राशन नहीं किया, अपितु उसे सर्वानुग्रहकारीरूप में जान कर उसका मैंने प्राशन किया है। बृहस्पतिना शीर्ष्णा= बृहस्पति और ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर का पारस्परिक सम्बन्ध है। (अथर्व० १५/१०/४,५) के अनुसार बृहस्पति में ब्रह्म का प्रवेश कहा है। प्राशनकर्ता कहता है कि मैंने सिर को बृहस्पति जान कर ब्रह्मौदन का प्राशन किया है, अर्थात् मेरा सिर सामान्य सिर नहीं, अपितु यह बृहस्पतिरूप है, जिस में कि ब्रह्म प्रविष्ट है। इसी प्रविष्ट ब्रह्म का प्राशन मैंने सिर द्वारा किया है। सिर में आज्ञाचक्र तथा सहस्रारचक्र हैं। इन चक्रों में परमेश्वर अर्थात् ब्रह्मौदन का प्राशन योगिजन करते हैं। यदि सिर द्वारा ब्रह्मौदन का प्राशन अर्थात् साक्षात् कर, सिर में ब्रह्मप्रधान विचार और संकल्प स्थित हो जाये, तो समग्र शरीर और शरीरावयव ब्राह्मी शक्ति से आप्लुत हो जायें और खाना-पीना आदि सब व्यवहार ब्राह्म शक्ति से आविष्ट हो जायें। ब्रह्मौदन को सर्वाङ्ग सम्पूर्ण कहा है, इस का प्राशनकर्ता भी सर्वाङ्ग सम्पूर्ण हो जाता है। यह फल निर्देश किया है। अथर्व० ११।३।१ में "शिरः" से अभिप्राय कृष्योदन के प्राशिता का है। क्यों कि वहां औदन-ब्रह्म और कृष्योदन में प्रतिरूपता दर्शाई है। जीवन में दो प्रकार के ओदनों की आवश्यकता है। एक की तो शारीरिक जीवन के लिये आवश्यकता है, और दूसरे की आत्मिक जीवन के लिये। प्राकृतिक-ओदन शरीरोपयोगी है, और ब्रह्मौदन आत्मोपयोगी है। इसलिये इस ओदन-सूक्त में विविध ओदन का संमिश्रित वर्णन किया गया है। सात्विक और ब्रह्मप्रधान जीवन के लिये उभयविध ओदन का सेवन प्रतिदिन आवश्यक है। जीवन भी तो प्रकृति और जीवात्मा का संमिश्रित रूप है]। [१. कृष्योदन पक्ष में, भोजन के नियत काल से अर्वाक-काल में [अर्वाञ्चम्] तथा पराक् काल में (पराञ्चम्) और क्षुधा के अभाव में प्रतिकूलरूप हुए (प्रत्यञ्चम्) ओदन के प्राशन का निषेध किया है। इस प्राशन को विचार पूर्वक करना चाहिये (शीर्ष्णा)। साथ ही मन्त्र में यह भी कहा है कि [कृष्योदन के सात्विक, नीरोग और रोगनाशक होने से, भोजन की दृष्टि से] कृष्योदन सर्वाङ्ग सम्पूर्ण है। कृष्योदन के सम्बन्ध में यही भावना अगले मन्त्रों में भी जाननी चाहिये। देखो मन्त्र ३५ की व्याख्या।]

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    विषय

    ब्रह्मोदन के उपभोग का प्रकार।

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष को उपदेश करे कि हे पुरुष ! (येन च) जिस (शीर्ष्णाः) शिर से (पूर्व ऋषयः एतं प्राश्नन्) पूर्व मन्त्रद्रष्टा ऋषि लोग इसका उपभोग करते रहे (ततः च* अन्येन) उससे दूसरे (शीर्ष्णा) शिर से यदि (प्राशीः) तू भोग करता है तो (ते प्रजा) तेरी सन्तति (ज्येष्ठतः मरिष्यति) ज्येष्ठ काम से मरेगी, प्रथम जेठा, फिर उससे छोटा फिर उससे छोटा इस प्रकार तेरी सन्तान मर जायगी। (इति एनम् आह) इस प्रकार ब्रह्मौदन का तत्वज्ञानी विद्वान् दूसरे पुरुषों को उपदेश करे। तो फिर (अहम्) मैं (तं) उस ओदन को (न अर्वाञ्चं न पराञ्चं) न नीचे के न पराङ्मुख अर्थात् परली तरफ़ के और (न प्रत्यञ्चम्) न अपनी तरफ़ को उपभोग करूं, खाऊं। प्रत्युत (बृहस्पतिना शीर्ष्णा) बृहस्पति रूप शिर से इस ओदन का भोग करूं। (तेन एनं प्राशिषम्) उस शिर से ही इसको मैं भोगू और (तेन एनम् अजीगमम्) उसी शिर से उसको अन्यों का प्राप्त कराऊं। (एषः वा ओदनः) यह ओदन सर्वाङ्ग समस्त अङ्गों में व्याप्त है । (सर्वपरुः) सब पोरुओं में व्याप्त है (सर्वतनुः) समस्त शरीर में व्याप्त है। (य एवं वेद) जो इस रहस्य को जानता है वह स्वयं भी (सर्वाङ्ग सर्वपरुः सर्वतनुः सम्भवति) सर्वाङ्ग पूर्ण सब पोरुतओं वाला सब शरीर में हृष्ट पुष्ट होता है।

    टिप्पणी

    * यद्यर्थश्च।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्तो ब्रह्मौदनो देवता। ३२, ३८, ४१ एतासां (प्र०), ३२-३९ एतासां (स०) साम्नी त्रिष्टुभः, ३२, ३५, ४२ आसां (द्वि०) ३२-४९ आसां (तृ०) ३३, ३४, ४४-४८ आसां (पं०) एकपदा आसुरी गायत्री, ३२, ४१, ४३, ४७ आसां (च०) दैवीजगती, ३८, ४४, ४६ (द्वि०) ३२, ३५-४३, ४९ आसां (पं०) आसुरी अनुष्टुभः, ३२-४९ आसां (पं०) साम्न्यनुष्टुभः, ३३–४९ आसां (प्र०) आर्च्य अनुष्टुभः, ३७ (प्र०) साम्नी पंक्ति:, ३३, ३६, ४०, ४७, ४८ आसां (द्वि०) आसुरीजगती, ३४, ३७, ४१, ४३, ४५ आसां (द्वि०) आसुरी पंक्तयः, ३४ (च०) आसुरी त्रिष्टुप् ४५, ४६, ४८ आसां (च०) याजुष्योगायत्र्यः, ३६, ४०, ३७ आसां (च०) दैवीपंक्तयः, ३८, ३९ एतयोः (च०) प्राजापत्यागायत्र्यौ, ३९ (द्वि०) आसुरी उष्णिक्, ४२, ४५, ४९ आसां (च०) दैवी त्रिष्टुभः, ४९ (द्वि०) एकापदा भुरिक् साम्नीबृहती। अष्टादशर्चं द्वितीय पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Odana

    Meaning

    For that reason, if you eat of this Odana by any other head, i.e., with any other thought, intention and faith, than that by which the ancient Rshis ate and internalised this divine food, then your people and progeny from the eldest onwards would be lost, so said the master to the disciple. And so I eat of the Odana, the divine food in meditation, neither greedily as it is closest, nor desperately as it is farthest, nor out of necessity as it is discordant. I have eaten it with Brhaspati, i.e., with the highest thought and faith. I have eaten it with that, by that I have obtained it. And this Odana is complete in all aspects, perfect in all parts, and perfect whole in body form. He that knows this and eats thus becomes complete in all limbs, perfect in all parts, perfect whole in body, mind and soul.

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    Subject

    PARYAYA - II

    Translation

    If (ca) thou hast eaten it with another head than that (tatas) with which the ancient seers ate this, thy progeny, from the oldest down, will die: so one says to him; it verily I (have) not (eaten) coming hither (arvinc), nor retiring, nor coming on; with Brhaspati (as) head, there-with: have I eaten it, therewith have I made-it go; this rice-dish, verily, is whole-limbed, whole-jointed, whole-bodied; whole-limbed, whole-jointed, whole-bodied becometh he who knoweth thus.

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    Translation

    Wise man tell to one, hence you eat this Odana with a different head from that with which the Rishis celebrated with Vedic knowledge eat it, your children, reckoning from eldest will die. He replies—I do not eat this Odana turned downward and nor I eat it turned away, nor turned hitherward. I eat it with the head called Brihaspati and obtain it by the same. Therefore this Odana is complete in all its parts and in all its aspects. One who knows this Odana likewise is perfect in all his limbs, all joints and in his body.

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    Translation

    The preceptor should say to the seeker after truth, "If thou wilt try to realize God with ears different from those of the ancient sages, thou wilt be deaf.' Verily have I now realized God, Who exists after the Dissolution, of the universe, is far from the ignorant, and near the learned. Like the ancient sages with divine ears of Heaven and Earth, have I visualized God and acquired Him. Verily this God is Resourceful, Nourishing, Serviceable. He who thus knows God, becomes resourceful, nourishing, and serviceable.

    Footnote

    I: A seeker after truth, who thus replies. Divine ears of heaven and earth: Knowledge and meditation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३२−(ततः) तस्माद् मस्तकात् (च) चेत् (एनम्) ओदनम् (अन्येन) भिन्नेन (शीर्ष्णा) शिरसा। शिरोविचारेण (प्राशीः) म० २६। भक्षितवानसि। अनुभूतवानसि (येन) शिरसा (च) एव (एतम्) ओदनम् (पूर्वे) पूर्वजाः (ऋषयः) वेदार्थज्ञातारः (प्राश्नन्) भक्षितवन्तः। अनुभूतवन्तः (ज्येष्ठतः) ज्येष्ठमारभ्य (ते) तव (प्रजा) राज्यजनता (मरिष्यति) मरणं प्राप्स्यति (इति) अनेन प्रकारेण (एनम्) जिज्ञासुम् (आह) ब्रवीति योगिजनः (तम्) ओदनम् (वै) निश्चयेन (अहम्) जिज्ञासुः (न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। (अर्वाञ्चम्) अवरे पश्चात् काले प्रलये वर्तमानम् (न) सम्प्रति (पराञ्चम्) दूरे गतम् (न) सम्प्रति (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षं प्राप्तम् (बृहस्पतिना) बृहतां ज्ञानानां रक्षकेण (शीर्ष्णा) शिरसा (तेन) (एनम्) ओदनम् (प्राशिषम्) भक्षितवानस्मि। अनुभूतवानस्मि (तेन) (एनम्) (अजीगमम्) गमेः स्वार्थण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। अगमम्। प्राप्तवानस्मि (एषः) (वै) (ओदनः) सुखवर्षकोऽन्नरूपः परमेश्वरः (सर्वाङ्गः) अङ्ग पदे लक्षणे च-अच्। सर्वोपाययुक्तः (सर्वपरुः) अर्तिपॄवपियजितनि०। उ० २।११७। पॄ पालनपूरणयोः उसि। सर्वपालनयुक्तः (सर्वतनूः) कृषिचमितनिधनि०। उ० १।८०। तनु विस्तारे श्रद्धोपकरणयोश्च-ऊ। सर्वोपकारयुक्तः (सर्वाङ्गः) सर्वोपायः (एव) (सर्वपरुः) सर्वपालनः (सर्वतनूः) सर्वोपकारः (सम्) सम्यक् (भवति) (यः) पुरुषः (एवम्) (वेद) वेत्ति परमात्मानम् ॥

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