अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 28
ऋषिः - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - ओदन सूक्त
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परा॑ञ्चं चैनं॒ प्राशीः॑ प्रा॒णास्त्वा॑ हास्य॒न्तीत्ये॑नमाह ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ञ्चम् । च॒ । ए॒न॒म् । प्र॒ऽआशी॑: । प्रा॒णा: । त्वा॒ । हा॒स्य॒न्ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥३.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
पराञ्चं चैनं प्राशीः प्राणास्त्वा हास्यन्तीत्येनमाह ॥
स्वर रहित पद पाठपराञ्चम् । च । एनम् । प्रऽआशी: । प्राणा: । त्वा । हास्यन्ति । इति । एनम् । आह ॥३.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सृष्टि के पदार्थों के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
“(च) यदि (पराञ्चम्) दूरवर्ती (एनम्) इस [ओदन] को (प्राशीः) तूने खाया है, (प्राणाः) श्वास के बल (त्वा) तुझे (हास्यन्ति) त्यागेंगे” (इति) ऐसा वह [आचार्य] (एनम्) इस [जिज्ञासु] से (आह) कहता है ॥२८॥
भावार्थ
मन्त्र २९ के साथ ॥२८॥
टिप्पणी
२८−(पराञ्चम्) म० २६। दूरे गच्छन्तम् (च) चेत् (एनम्) ओदनम् (प्राशीः) म० २६। प्रकर्षेण भक्षितवानसि (प्राणाः) श्वासबलानि (त्वा) (हास्यन्ति) ओहाक् त्यागे। त्यक्ष्यन्ति (इति) एवम् (एनम्) जिज्ञासुम् (आह) ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि लट्। ब्रवीति ॥
विषय
पराञ्चं+प्रत्यञ्चम् [न अहम्, न माम्]
पदार्थ
१. (ब्रह्मवादिनः) = ज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले (वदन्ति) = प्रश्न करते हुए कहते हैं कि तुने (पराञ्चम्) = [पर अञ्च] परोक्ष ब्रह्म में गतिवाले (ओदनम्) = ज्ञान के भोजन को (प्राशी:) = खाया है, अर्थात् पराविद्या को ही प्राप्त करने का यन किया है अथवा (प्रत्यञ्बम् इति) = [प्रति अञ्च] अपने अभिमुख-सामने उपस्थित इन प्रत्यक्ष पदाथों का ही, अर्थात् अपराविद्या को ही जानने का यत्न किया है? एक प्रश्न वे ब्रह्मवादी और भी करते हैं कि यह जो तू संसार में भोजन करता है तो क्या (त्वम् ओदन प्राशी:) = तूने भोजन खाया है, या (ओदनः त्वाम् इति) = इस ओदन ने ही तुझे खा डाला है? २. प्रश्न करके वे ब्रह्मवादी ही समझाते हुए (एनं आह) = इस ओदनभोक्ता से कहते हैं कि (पराञ्चं च एनं प्राशी:) = [च-एव] यदि तू केवल परोक्ष ब्रह्म का ज्ञान देनेवाले इस ज्ञान के भोजन को ही खाएगा तो (प्राणा: त्वा हास्यन्ति इति) = प्राण तुझे छोड़ जाएंगे, अर्थात् तू जीवन को धारण न कर सकेगा और वे (एनं आह) = इसे कहते हैं कि (प्रत्यञ्च च एनं प्राशी:) = केवल अभिमुख पदार्थों का ही ज्ञान देनेवाले इस ओदन को तू खाता है तो (अपाना: त्वा हास्यन्ति इति) = दोष दूर करने की शक्तियाँ तुझे छोड़ जाएँगी, अर्थात् केवल ब्रह्मज्ञानवाला मृत ही हो जाएगा, और केवल प्रकृतिज्ञानवाला दूषित जीवनवाला हो जाएगा। ३. इसी प्रकार सांसारिक भोजन के विषय में वह कहता है कि (न एव अहम् ओदनम्) = न तो मैं ओदन को खाता हैं और (न माम् ओदनः) = न ओदन मुझे खाता है। अपितु (ओदनः एव) = यह अन्न का विकार अन्नमयकोश ही (ओदनं प्राशीत्) = अन्न खाता है, अर्थात् जितनी इस अन्नमयकोश की आवश्यकता होती है, उतने ही अन्न का यह ग्रहण करता है। मैं स्वादवश अन्न नहीं खाता। इसीलिए तो यह भी मुझे नहीं खा जाता। स्वादवश खाकर ही तो प्राणी रोगों का शिकार हुआ करता है।
भावार्थ
हम परा व अपराविद्या दोनों को प्राप्त करें। अपराविद्या के अभाव में जीवनधारण सम्भव न होगा और पराविद्या के अभाव में जीवन दोषों से परिपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि तब हम प्राकृतिक भोगों में फंस जाएंगे। इसी बात को इसप्रकार कहते हैं कि शरीर की आवश्यकता के लिए ही खाएँगे तब तो ठीक है, यदि स्वादों में पड़ गये तो इस अन्न का ही शिकार हो जाएंगे।
भाषार्थ
(पराञ्चम्१, च, एनम्) इस पराक्-ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है, तो (त्वा प्राणाः हास्यन्ति) तुझे प्राण छोड़ जायेंगे (इति, एनम्, आह) इस प्रकार इस जगद् भोक्ता को कहे।
टिप्पणी
[मन्त्र में प्राणशक्ति के ह्रास का वर्णन हुआ है। भोग प्रधान जीवन में जीवनीय शक्ति का ह्रास होता ही है। जीवनीयशक्ति है, प्राण। "भोगे रोगभयम्", भोगों द्वारा रोगों का भय होता है, और रोगों के कारण प्राणशक्ति कम होती जाती है। इसलिये मन्त्र में अधिक भोग विरत रहने का निर्देश किया है।][१."पराञ्चम् और प्रत्यञ्चम" शब्दों के अर्थों पर औपनिषद श्लोक अधिक प्रकाश डालता है यथा “पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्। कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥” (कठ० २/४/१)। मन्त्र २८, २९ में पठित पराञ्चम् और प्रत्यञ्चम् और श्लोक पठित पराञ्चि खानि, पराङ् पश्यति; तथा प्रत्यगात्मानम्, शब्दों में परस्पर साम्य देखना चाहिये।]
विषय
विराट् प्रजापति का बार्हस्पत्य ओदन रूप से वर्णन।
भावार्थ
(एनं च पराञ्चं प्राशीः) हे पुरुष ! यदि तू इस ‘ओदन’ को (पराञ्चं) अपने से पराङ्मुख, परोक्ष में रख कर भोग करता है। तो विद्वान् (एनम् आह) इस भोक्ता के प्रति कहता है कि (त्वाः प्राणाः हास्यन्ति) तुझे प्राण छोड़ देंगे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बार्हस्पत्यौदनो देवता। १, १४ आसुरीगायत्र्यौ, २ त्रिपदासमविषमा गायत्री, ३, ६, १० आसुरीपंक्तयः, ४, ८ साम्न्यनुष्टुभौ, ५, १३, १५ साम्न्युष्णिहः, ७, १९–२२ अनुष्टुभः, ९, १७, १८ अनुष्टुभः, ११ भुरिक् आर्चीअनुष्टुप्, १२ याजुषीजगती, १६, २३ आसुरीबृहत्यौ, २४ त्रिपदा प्रजापत्यावृहती, २६ आर्ची उष्णिक्, २७, २८ साम्नीबृहती, २९ भुरिक्, ३० याजुषी त्रिष्टुप् , ३१ अल्पशः पंक्तिरुत याजुषी। एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Odana
Meaning
If you ate the remote Odana, i.e., if you are lost in the external world, then the pranas, i.e., life-sustaining energies (Yajurveda, 17, 71) will forsake you. So says the master, (because the external world will eat you).
Translation
I thou hast eaten it retiring, thy breaths (prana) will quit thee: says to him.
Translation
He says to one: If you have eaten this Odana averted your inward breath will leave you.
Translation
If thou believest God to be near at hand, the preceptor will say, "The Apänäs will abandon thee."
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(पराञ्चम्) म० २६। दूरे गच्छन्तम् (च) चेत् (एनम्) ओदनम् (प्राशीः) म० २६। प्रकर्षेण भक्षितवानसि (प्राणाः) श्वासबलानि (त्वा) (हास्यन्ति) ओहाक् त्यागे। त्यक्ष्यन्ति (इति) एवम् (एनम्) जिज्ञासुम् (आह) ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि लट्। ब्रवीति ॥
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