अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
ऋषिः - आत्मा
देवता - आस्तार पङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
73
यदया॑तं शुभस्पतीवरे॒यं सू॒र्यामुप॑। विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तद्वा॑मजानन्पु॒त्रः पि॒तर॑मवृणीतपू॒षा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अया॑तम् । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । व॒रे॒ऽयम् । सू॒र्याम् । उप॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अनु॑ । तत् । वा॒म् । अ॒जा॒न॒न् । पु॒त्र: । पि॒तर॑म् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । पू॒षा ।१.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यदयातं शुभस्पतीवरेयं सूर्यामुप। विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रः पितरमवृणीतपूषा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अयातम् । शुभ: । पती इति । वरेऽयम् । सूर्याम् । उप । विश्वे । देवा: । अनु । तत् । वाम् । अजानन् । पुत्र: । पितरम् । अवृणीत । पूषा ।१.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(शुभः पती) हे शुभक्रिया के पालन करनेवाले [स्त्री-पुरुष समूह !] तुम दोनों (यत्) जब (सूर्याम्=सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (वरेयम्) श्रेष्ठ कर्म में (उप) आदर से (अयातम्) पहुँचो। (विश्वे देवाः) सबविद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों के (तत्) उस [कर्म] में (अनु अजानन्) सम्मति दें [कि] (पूषा) पोषण करनेवाला (पुत्रः) पुत्र (पितरम्) पिता को (अवृणीत) स्वीकारकरे ॥१५॥
भावार्थ
शुभचिन्तक स्त्रीपुरुषविवाह में आकर प्रयत्न करें कि विद्वान् लोग प्रसन्न होकर आशीर्वाद दें कि उनवधू-वर का पुत्र पोषण करनेवाला विद्वान् पराक्रमी होवे ॥१५॥यह मन्त्र ऋग्वेद मेंहै−१०।८५।१४, १५ ॥
टिप्पणी
१५−(यत्) यदा (अयातम्) अगच्छतम् (शुभस्पती) शुभक्रियायाःपालकौ (वरेयम्) णलोपः। वरेण्यम्। श्रेष्ठः कर्म (सूर्याम्) षष्ठ्यर्थेद्वितीया। सूर्यायाः। प्रेरिकायाः कन्यायाः (उप) आदरेण (विश्वे) सर्वे (देवाः)विद्वांसः (अनु अजानन्) अनुकूलं जानन्तु। स्वीकुर्वन्तु (तत्) वक्ष्यमाणं कर्म (वाम्) युवयोः (पुत्रः) सुतः (पितरम्) जनकम् (अवृणीत) स्वीकरोतु (पूषा) पोषकः ॥
विषय
वृत युवक द्वारा नये माता-पिता का वरण
पदार्थ
१. (यत्) = जब (शभस्पती) = सब शुभ कर्मों का रक्षण करनेवाले युवक के माता-पिता (सूर्यं वरेयम्) = सूर्या के वरण के लिए (उप अयातम्) = यहाँ समीप प्राप्त हुए तो (विश्वेदेवाः) = सब देव समझदार लोग साथ आये हुए अनुभवी, वृद्ध सज्जन (वाम् तत्) = आप दोनों के उस कार्य की (अनु अजानन्) = अनुज्ञा देनेवाले हुए। सबने सम्बन्ध को सराहा। २. ऐसा हो जाने पर-सब बड़ों की अनुज्ञा मिल जाने पर (पूषा पुत्र:) = अपना ठीक प्रकार से पोषण करनेवाला वृत युवक-वर के रूप में आया हुआ युवक (पितरं अवृणीत) = कन्या के माता-पिता को अपने माता-पिता के रूप में वरता है।
भावार्थ
विवाह के प्रसङ्ग की पूर्ति पर वृत युवक अपने श्वसुर व श्वश्रू को माता-पिता के रूप में वरता है।
भाषार्थ
(शुभस्पती) हे शोभायुक्त वरयात्रा के, या शुभकर्मों के स्वामी वर के माता-पिता ! तुम दोनों (यत्) जो (सूर्याम्, उप) सूर्या ब्रह्मचारिणी के समीप या उस के विवाहार्थ (वरेयम्) वर द्वारा गमनीय वधूगृह को (अयातम्) पहुंचे हों, और जो (वाम्) आप दोनों के (पूषा) परिपुष्ट (पुत्रः) पुत्र ने, (पितरम्) श्वसुर को पितृरूप में (अवृणीत) वरण किया है, (तत्) उन दोनों कर्मों को (विश्वे देवाः) दोनों ओर के सम्बन्धी सब विद्वानों तथा दिव्यजनों ने (अनु) अनुकूलरूप में (अजानन्) जाना है।
टिप्पणी
[सूर्याम्, उप (समीप या उपयन्तुम्)। वरेयम् = वर+एयम् (इण गतौ)। अनु, अजानन्=अथवा अनुज्ञा दी है। अयातम्= अ+या (प्रापणे)। ऋग्वेद १०।८५।१५ में "पितरौ" पाठ है, अर्थात् माता-पिता दोनों को] [व्याख्या–वर के माता-पिता वरयात्रा अर्थात् बरात को शोभायुक्त करें, और यह ध्यान रखें कि विवाह में सब कार्य शुभ हों, इस मौके पर कोई अशुभ काम न होना चाहिये। विवाह के सम्बन्ध के निर्धारण में तथा विवाह कार्यो में, दोनों सम्बन्धियों के दिव्य लोगों, बुजुर्गों तथा विद्वानों की अनुमति, स्वीकृति, वर तथा उस के माता-पिता के साथ होनी चाहियें। वर परिपुष्ट होना चाहिये, निर्बल नहीं। वर, सूर्या के पिता को पितृरूप में स्वीकार करे, और उस की माता को माता जाने। इसी प्रकार सूर्या के अन्य सम्बन्धियों को भी अपने सम्बन्धी जाने]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे (शुभस्पती) शोभा के मालिको ! वरवधुओ ! तुम दोनों जब (उपसूर्याम्) सूर्या= कन्या के (वरेयम्) वरण कार्य के अवसर पर विवाह संस्कार के अवसर पर (यत्) जब तुम दोनों (अयातम्) आते हो (तत्) तब (विश्वेदेवाः) समस्त विद्वान् पुरुष (वाम्) तुम दोनों वर वधू के विषय में (अजानन्) भली प्रकार जान लें और तुम दोनों के विवाह कर लेने की अनुमति दें। और तब (पूषा पुत्रः) हृष्ट पुष्ट पुत्र अपने (पितरम्) उत्पादक माता पिता को (अवृणीत) प्राप्त करे। अर्थात् योग्य वयस् पर विवाह होने पर दोनों के हृष्ट पुष्ट पुत्र उत्पन्न होते हैं। वे दोनों हृष्ट पुष्ट पुत्र के मां बाप बनते हैं।
टिप्पणी
(च०) ‘पुत्रः पितराववृणीत पूषा’ इति ऋ०। ‘पितरावृणीत’ पैप्प० सं०। ‘माता च पिता च पितरौ’, ‘पितरम्’ इति छान्दसमेकवचनम्। पैप्पलाद गतः ‘पितरा = पितरौ’ इति तस्यैक व्याख्यानम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O Ashvins, protectors and promoters of life’s good, noble men and women of reason and passion, when you come to the bride, darling choice of the groom, let all the Vishvedevas, nobilities around and the mind and senses within, know and approve your intent and purpose, and then let Pusha, future progeny for sustenance, select the life-giving parents for the arrival.
Translation
O you two lords of benignancy, when you went to the damsel of the marriageable age, worthy of wooing, all the enlightened ones gave assent to you for that. The nourisher Lord (Pusä) chose ye like a son his father. (Rg. X.85.15; Variation)
Translation
When Ashvinau, Prana and Udana, the pratector of water, come to the sun who has to hand over his daughter to bride-groom for going near Surya, all the rays of sun accept their act and Pusha, the Air which is their son agrees to its father, the sun.
Translation
Ye twin lords of lustre, at the time when you sit for the girl’s marriage, let all learned persons agree to your proposal, may you as father and mother beget a stout son!
Footnote
Twin lords of lustre: Beautiful husband and wife. See Rig. 10-85-15.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(यत्) यदा (अयातम्) अगच्छतम् (शुभस्पती) शुभक्रियायाःपालकौ (वरेयम्) णलोपः। वरेण्यम्। श्रेष्ठः कर्म (सूर्याम्) षष्ठ्यर्थेद्वितीया। सूर्यायाः। प्रेरिकायाः कन्यायाः (उप) आदरेण (विश्वे) सर्वे (देवाः)विद्वांसः (अनु अजानन्) अनुकूलं जानन्तु। स्वीकुर्वन्तु (तत्) वक्ष्यमाणं कर्म (वाम्) युवयोः (पुत्रः) सुतः (पितरम्) जनकम् (अवृणीत) स्वीकरोतु (पूषा) पोषकः ॥
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