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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    94

    अ॑र्य॒मणं॑यजामहे सुब॒न्धुं प॑ति॒वेद॑नम्। उ॑र्वारु॒कमि॑व॒ बन्ध॑ना॒त्प्रेतो मु॑ञ्चामि॒नामुतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्य॒मण॑म् । य॒जा॒म॒हे॒ । सु॒ऽब॒न्धुम् । प॒ति॒ऽवेद॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कम्ऽइ॑व । बन्ध॑नात् । प्र । इ॒त: । मु॒ञ्चा॒मि॒ । न । अ॒मुत॑: ॥१.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्यमणंयजामहे सुबन्धुं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात्प्रेतो मुञ्चामिनामुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्यमणम् । यजामहे । सुऽबन्धुम् । पतिऽवेदनम् । उर्वारुकम्ऽइव । बन्धनात् । प्र । इत: । मुञ्चामि । न । अमुत: ॥१.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुबन्धुम्) सुन्दरबन्धु, (पतिवेदनम्) रक्षक पति के ज्ञान करानेहारे वा देनेहारे (अर्यमणम्)श्रेष्ठों के मान करनेहारे परमात्मा को (यजामहे) हम पूजते हैं। (उर्वारुकम् इव)ककड़ी को जैसे (बन्धनात्) लता बन्धन से, [वैसे दोनों वधू-वर को] (इतः) इस [वियोगपाश] से (प्र मुञ्चामि) मैं [विद्वान्] छुड़ाता हूँ, (अमुतः) उस [प्रेम पाश] से (न) नहीं [छुड़ाता] ॥१७॥

    भावार्थ

    परमात्मा की महती कृपाका ध्यान करके विद्वान् लोग वधू-वर को वियोग के कष्ट से छुड़ाकर परस्परप्रेमास्पद बनावें ॥१७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−७।५९।१२। औरयजुर्वेद में−३।६ ॥

    टिप्पणी

    १७−(अर्यमणम्) श्रेष्ठमानकर्तारम् (यजामहे) पूजयामः (सुबन्धुम्) (पतिवेदनम्) पत्युः प्रज्ञापकं प्रापकं वा (उर्वारुकम् इव)उरु+आरु+कम्। कृवापाजिमि०। उ० १।१। ऋ गतौ-उण्। कर्कटीफलम् (इव) यथा (बन्धनात्)लतावृन्तात् (प्र) (इतः) अस्मात्। वियोगपाशात् (मुञ्चामि) मोचयामि (न) निषेधे (अमुतः) तस्मात्। प्रेमपाशात् ॥

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    विषय

    सुबन्धु-'पतिवेदन-अर्यमा' [Marriges are made in heaven]

    पदार्थ

    १. विवाह में उपस्थित लोग विशेषतया वर-वधू के माता-पिता सब मिलकर इस रूप में प्रभु का उपासन करते हैं कि (अर्यमणम्) = सब शत्रुओं का नियमन करनेवाले [अरीन् यच्छति] अथवा सब-कुछ देनेवाले 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति', उस प्रभु का (यज्ञामहे) = हम पूजन करते हैं। वह प्रभु ही (सुबन्धुम्) = हमारा उत्तम बन्धु है, वही इन वर-वधू को परस्पर बाँधनेवाला है। प्रभु ही तो (पतिवेदनम्) = एक युवति के योग्य पति प्राप्त कराते हैं। २. (इव) = जैसे (उर्वारुकम्) = खरबूजे को (बन्धनात्) = बन्धन से अलग करते हैं-बेल से तोड़कर अलग करते हैं, उसीप्रकार इस युवति को भी (इत: मुञ्चामि) = इधर से, अर्थात् पितृगृह से मैं मुक्त करता हूँ, (अमुतः न श्वसुर) = गृह से नहीं। ये कन्या बिना किसी प्रकार का कष्ट अनुभव करती हुई अपने पितृगृह से छूटे और पतिगृह को प्राप्त करे।

    भावार्थ

    वस्तुत: प्रभुकृपा से ही एक युवति के लिए उत्तम पति की प्राप्ति होती है। युवति पितगृह को प्रसन्नतापूर्वक छोड़कर पतिगृह को प्राप्त करे।

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    भाषार्थ

    (अर्यमणम्) न्यायकारी, (सुबन्धुम्) सर्वोत्तम बन्धु, (पतिवेदनम्) पति प्राप्त कराने वाले परमेश्वर का (यजामहे) हम यजन अर्थात् पूजा संगति तथा उसके प्रति आत्मदान करते हैं। (बन्धनात्) बन्धन से (इव) जैसे (उर्वारुकम्) बेर, ककड़ी या खरबूजा स्वभावतः छूट जाता है, वैसे सूर्या या कन्या को (इतः) इस पितृगृह से (मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूं, (अमुतः) उस पतिगृह से (न) नहीं।

    टिप्पणी

    [अर्यमा= "सत्यन्याय के करने हारे मनुष्यों का मान्य, और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य-सत्य नियमकर्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम अर्यमा है", (सत्यार्थ प्रकाश समु० १)। सुबन्धुम्="स नो बन्धुर्जनिता" (यजु० ३२।१०)। यजामहे= यज् देवपूजा संगतिकरणदानेषु ] [व्याख्या— कन्या पक्ष के लोग कन्या को पतिगृह में भेजने से पूर्व, अर्यमा अर्थात् न्यायकारी परमेश्वर को हृदय का साक्षी तथा अन्तर्यामी जान कर यज्ञ करते हैं। इस यज्ञ के किये विना वधू पत्नी नहीं बन सकती। "पत्युर्नो यज्ञसंयोगे" (अष्टा० ४।१।१३३) द्वारा पति के साथ पत्नी का सम्बन्ध यज्ञ पूर्वक होता है। अर्यमा का विशेषण है, पतिवेदनम्। इस शब्द द्वारा विवाह सम्बन्ध को पवित्र जतलाया है। वेदों में परमात्मा को भी सद्गृहस्थ कहा है। प्रकृतिरूपी पत्नी का वह पति है। इस पत्नी द्वारा वह समग्र संसार को उत्पन्न करता है। परमात्मा ने ही वेदों द्वारा पति-पत्नी के सम्बन्ध की घोषणा की है। यह सम्बन्ध संसार को उत्तम सन्तानें देने के लिए है। संसार में उत्तम सन्तानें तभी उत्पन्न हो सकती हैं जब कि मनुष्य समाज शुभ और पवित्र भावनाओं से प्रेरित हो कर विवाह सम्बन्ध करें। पति-पत्नी के सम्बन्ध में काम वासना का उच्छृंखल राज्य न होना चाहिये। इसीलिये वैदिक धर्म में यह सम्बन्ध परमात्म-यजन से प्रारम्भ होता है। कन्या का पिता उद्घोषित करता है कि मैं अपने गृह के प्रेमबन्धनों से इसे छुड़ाता हूं, परन्तु पतिगृह के प्रेमबन्धनों से इसे नहीं छुड़ाता। नवविवाहिता को पतिगृह में स्थिर करने के लिये माता-पिता के सदुपदेश अधिक प्रभावशाली होते हैं। इसीलिये विवाह-यज्ञ के समय कन्या का पिता अपने धर्मपुत्र को विश्वास दिलाता है कि मैं सर्वथा यत्न करूंगा कि कन्या पतिपक्ष से अपना सम्बन्ध विच्छेद न करे। विवाह के अनन्तर न पति सम्बन्ध त्याग करें पत्नी का, और न पत्नी सम्बन्ध त्याग करे पति का। दोनों ही पारस्परिक पतिपत्नी भाव के दृढ़-सूत्र में बंधे रहें। मन्त्र के पितृगृह के त्याग में "उर्वारुक" का दृष्टान्त दिया है। यह फल जब पक जाता है तब उस का अपने आश्रय से सम्बन्ध स्वयमेव टूट जाता है। इसी प्रकार पितृगृह से सम्बन्ध त्याग का भी वह समय उचित है जब कि वधू की आयु पक जाय और वह विवाहसम्बन्ध के योग्य आयु वाली पूर्णयुवति हो जाए। इस से ज्ञात होता है कि वैदिक दृष्टि में अपरिपक्व आयु में कन्या का विवाह न होना चाहिये।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हम कन्या पक्ष के लोग (अर्यमणम्) सर्वश्रेष्ठ न्यायकारी, (पतिवेदनम्) पति को प्राप्त करानेहारे, (सुबन्धुम्) उत्तम बन्धुस्वरूप परमेश्वर की (यजामहे) पूजा करते हैं। (उर्वारुकम्) खरबूजा जिस प्रकार अपनी बेल से टूटकर आपसे आप अलग हो जाता है उसी प्रकार मैं कार्यकर्ता (इतः) इस पितृगृह से (प्रमुञ्चामि) इस कन्या को पृथक् करता हूँ (अमुतः) उस पतिबन्धन से (न) कभी पृथक् न करूं। बल्कि उसके साथ जोड़ता हूं।

    टिप्पणी

    ‘त्रियम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्’ (च०) ‘मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’ इति ऋ०। (प्र०) तत्रैव ‘सुगन्धिं पतिवेदनम्’ (च०) ‘इतोमुक्षीय मामुतः’ इति यजु०। (च०) ‘मुञ्च मामुतः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    We invoke and adore Aryaman, noble friend and brother, who enlightens us on marriage matters and the husband’s role in maintaining the wife and family. I release you, like a ripe fruit, from your parental branch and your bond here but not from there in your new life and family which you now join.

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    Translation

    We worship the eternal law-giver, a kind friend, a husband- finder. Like a melon from its stalk, from here I release you, not from there.

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    Translation

    We through adoration and supplication restore the communion with impartial God who is like our good brother and who is the masterly knower of all. He, like melon from its binding stalk sets us free from this world not from that world, the salvation, or makes me bride) free from father's family not from the family of husband.

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    Translation

    Worship we pay to God, the Finder of husbands, kindly Friend. As a cucumber is loosened from its stalk, so I release thee from here, not from there.

    Footnote

    We: The family members-of the girl. Thee: The bride. From here: from thy father’s house. From there from thy new home where thy whole; life is to be spent. See Rig 7-59-12.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(अर्यमणम्) श्रेष्ठमानकर्तारम् (यजामहे) पूजयामः (सुबन्धुम्) (पतिवेदनम्) पत्युः प्रज्ञापकं प्रापकं वा (उर्वारुकम् इव)उरु+आरु+कम्। कृवापाजिमि०। उ० १।१। ऋ गतौ-उण्। कर्कटीफलम् (इव) यथा (बन्धनात्)लतावृन्तात् (प्र) (इतः) अस्मात्। वियोगपाशात् (मुञ्चामि) मोचयामि (न) निषेधे (अमुतः) तस्मात्। प्रेमपाशात् ॥

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