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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 46
    ऋषिः - आत्मा देवता - जगती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    106

    जी॒वं रु॑दन्ति॒वि न॑यन्त्यध्व॒रं दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं दीध्यु॒र्नरः॑। वा॒मं पि॒तृभ्यो॒ यइ॒दं स॑मीरि॒रे मयः॒ पति॑भ्यो ज॒नये॑ परि॒ष्वजे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जी॒वम् । रु॒द॒न्ति॒ । वि । न॒य॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒रम् । दी॒र्घाम् । अनु॑ । प्रऽसि॑तिम् । दी॒ध्यु॒: । नर॑: । वा॒मम् । पि॒तृऽभ्य: । ये । इ॒दम् । स॒म्ऽई॒रि॒रे । मय॑: । पति॑:ऽभ्य: । ज॒नये॑ । प॒रि॒ऽस्वजे॑ ॥१.४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जीवं रुदन्तिवि नयन्त्यध्वरं दीर्घामनु प्रसितिं दीध्युर्नरः। वामं पितृभ्यो यइदं समीरिरे मयः पतिभ्यो जनये परिष्वजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जीवम् । रुदन्ति । वि । नयन्ति । अध्वरम् । दीर्घाम् । अनु । प्रऽसितिम् । दीध्यु: । नर: । वामम् । पितृऽभ्य: । ये । इदम् । सम्ऽईरिरे । मय: । पति:ऽभ्य: । जनये । परिऽस्वजे ॥१.४६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 46
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (नरः) नर [नेता लोग] (जीवम्) [संसार के] जीवन के लिये [प्रेम से] (रुदन्ति) आँसू बहाते हैं, (अध्वरम्) हिंसारहित व्यवहार को (वि) विविध प्रकार (नयन्ति) ले चलते हैं, और (दीर्घाम्) लम्बी (प्रसितिम् अनु) प्रबन्ध क्रिया के साथ (दीध्युः) प्रकाशमानहोते हैं। (ये) जिन [पुरुषार्थियों] ने (पितृभ्यः) पिता आदि मान्य लोगों के लिये (इदम्) यह (वामम्) श्रेष्ठ पदार्थ (समीरिरे) पहुँचाया है, (पतिभ्यः) उन रक्षकपुरुषों के लिये [पति से] (जनये परिष्वजे) पत्नी का मिलना (मयः) सुखदायक है ॥४६॥

    भावार्थ

    करुणाशील, शूरवीरपुरुष गृहाश्रम में हिंसा त्यागकर दृढ़ प्रबन्ध करके यश पाते हैं। जो मनुष्य इसश्रेष्ठ सिद्धान्त को विद्वानों में फैलाते हैं, वे विद्वान् गृहाश्रमी स्त्री-पुरुषों से विद्यावृद्धि में सुख पाते हैं ॥४६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।४०।१०, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू को पितृ-गृह छोड़ते समय आँख में आँसू भर लाने पर वर के बोलने में लिखा है ॥

    टिप्पणी

    ४६−(जीवम्)संसारस्य जीवनार्थम् (रुदन्ति) अश्रून् विमोचयन्ति (वि) विविधम् (नयन्ति)प्रापयन्ति। गमयन्ति (अध्वरम्) हिंसारहितं व्यवहारम् (दीर्घाम्) (अनु) अनुसृत्य (प्रसितिम्) प्रबन्धक्रियाम् (दीध्युः) दीधीङ् दीप्तौ। प्रकाशन्ते (नरः)नयतेर्डिच्च। उ० २।१०। णीञ् प्रापणे-ऋ, डित्। नेतारः पुरुषाः (वामम्) श्रेष्ठंपदार्थम् (पितृभ्यः) पितृतुल्यमाननीयेभ्यः (ये) पुरुषाः (इदम्) (समीरिरे)प्रेरितवन्तः (मयः) सुखप्रद कर्म (पतिभ्यः) तेभ्यः पालकेभ्यः (जनये) भार्यायै (परिष्वजे) क्विबन्तः प्रयोगः। संगमाय। संगन्तुम् ॥

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    विषय

    कन्या को प्रसन्नतापूर्वक पतिगृह में भेजना

    पदार्थ

    १. कन्या को माता-पिता पालते हैं, युवति होने पर उसे पतिगृह में भेजते हैं। उस समय वियोग में रोना कुछ अमंगल-सा हो जाता है, अत: कहते हैं कि (जीवं रुदन्ति) = जो इस जीवित व्यक्ति के लिए ही रोते हैं, वे (अध्वरं विनयन्ति) = इस पवित्र विवाह-यज्ञ को अमंगलयुक्त कर देते हैं। जो (नरः) = अनासक्तिपूर्वक कर्तव्य-कर्मों को करनेवाले [न रमते] लोग हैं वे (दीर्घाम् प्रसितिं अनुदीध्यु:) = अपनी कन्या को लम्बे प्रकृष्ट बन्धन-पति-पत्नी सम्बन्ध को ध्यान करके दीस होते हैं। किस प्रकार उनकी कन्या पति के साथ मिलकर अपने गृहस्थ-यज्ञ को अनुकूलता से चलाएगी' यह सोचकर वे प्रसन्न होते हैं। २.(ये) = जो भी (इदम्) = इस गृहयज्ञ को (सम् ईरिरे) सम्यक् प्रेरित करते हैं वे (पितृभ्यः वामम्) = माता-पिता बड़ों के लिए सुन्दर कार्य को ही करते हैं। यह (जनये परिष्वजे) = पत्नी का आलिंगन (पतिभ्यः मयः) = पतियों के लिए भी कल्याणकर होता है।

    भावार्थ

    अपनी कन्या को पतिगृह में भेजने के अवसर पर माता-पिता प्रसन्नता का अनुभव करें। यही कामना करें कि उनकी कन्या पति के साथ दीर्घ बन्धन में बद्ध होकर रहे। यह गृहस्थ-यज्ञ तो माता-पिता के लिए अत्यन्त सुन्दर वस्तु है तथा पति के लिए यह पत्नी का सम्बन्ध कल्याणकर ही है।

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    भाषार्थ

    (ये) जिन्होंने (इदम्) यह सिद्धान्त (समीरिरे) प्रेरित किया है कि (पतिभ्यः) पतियों के लिए तथा (जनये) जननी अर्थात् पत्नियों के लिए (परिष्वजे) परस्पर आलिङ्गन में ही (मयः) आनन्द और सुख है, (ते) वे (नरः) नर-नारियां (जीवम्) यावज्जीवन (रुदन्ति) रोते हैं, (अध्वरम्) और हिंसारहित गृहस्थ यज्ञ को (वि नयन्ति) धर्मविरुद्ध मार्ग में ले जाते हैं, (दीर्घाम्) दीर्घ अर्थात् लम्बे (प्रसितिम्) प्रबन्धों का (अनु) निरन्तर (दीध्युः) ध्यान अर्थात् चिन्तन करते रहते हैं, तथा (पितृभ्यः) बुजुर्गों के प्रति (वामम्) वामाचार अर्थात् उल्टे आचार-व्यवहार (समीरिरे) प्रेरित करते हैं।

    टिप्पणी

    [समीरिरे=सम्=ईट् (गतौ)। प्रसितिम्=प्र+षिञ् बन्धने=प्रबन्ध] [व्याख्या—गृहस्थ जीवन को भोगस्थली समझना नितान्त भूल है। जो गृहस्थी यह समझते हैं कि गृहस्थ जीवन परस्परालिङ्गन जन्य आनन्द के लिए है उन की अवस्था निम्नलिखित हो जाती है:— ऐसे व्यक्ति आरम्भ में क्षणिक आनन्द में मस्ताने तो हो जाते हैं, परन्तु परिणाम में जीवन भर रोते रहते हैं। वे गृहस्थधर्म के यज्ञियांश को हटा कर गृहस्थ को धर्मविरुद्ध दिशा में ले जाते हैं, और उसे अयज्ञमय बना देते हैं। वे दीर्घ दीर्घ प्रबन्धों की चिन्ता ही करते रहते हैं, परन्तु धैर्य और साहस के अभाव के कारण सफलता उन्हें प्राप्त नहीं होती। वे माता-पिता और अन्य वृद्धों के प्रति ऐसे व्यवहार करते रहते हैं जो कि शिष्टाचार के विरुद्ध होते हैं।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (जीवं रुदन्ति) विदाई के अवसर पर लोग अपने प्रेमी जीव के लिये रोया करते हैं। इसी कारण वे (अध्वरं) पवित्र यज्ञ कर्म को (वि नयन्ति) व्यर्थ कर देते हैं। (नरः) नेता लोग (दीर्घाम्) लम्बे दीर्घकाल के लिये लोग (प्रसितिम्) भविष्य के फांसे को (दीध्युः) विचारा करते हैं। वास्तव में (ये) लोग (पितृभ्यः) माता पिताओं के लिये (इदम्) इस विवाहरूप (वामम्) सुन्दर कार्य को (सम् ईरिरे) रचते हैं वे (पतिभ्यः) पतियों के लिये (जनये) अपनी स्त्री के (परिष्वजे) आलिंगन का (मयः) सुख भी उत्पन्न करते हैं। ऐसे अवसर पर अपने सम्बन्धियों की विदाई के लिये नहीं रोना चाहिये।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘विमयन्ते अध्वरे’ (द्वि०) ‘दीर्घायुः’ (तृ०) ‘समेरिरे जनयः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    People shed joyous tears of separation when a darling of their life leaves home for another. At the same time they extend life’s yajna by matrimony and plan and accomplish a long programme of disciplined and enlightened conjugality. They perform this act of joy and satisfaction for the parents also and for the husband and wife when they are united as a loving married couple. (This mantra has also been interpreted in a totally different manner by Vishvanatha Vidyalankara: ‘People wail for a life time, desecrate a holy yajna and create a long snare for themselves including a painful experience for the parents when they convert holy matrimony into mere physical union of carnal pleasure for the husband and wife.’ This interpretation is based on a different interpretation of the nature of tears, the verb ‘vini’, the noun ‘prasiti’, and the words ‘vaman’ and ‘mayah’, and ‘parishvaje’ in the sense of mere physical union.)

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    Translation

    There are men, who grieve for the life (of their wives lying seriously ill), and get them admitted to sacred places for treatment. In the prayful mood, they wish them a long life and hold them in their embraces; they ask their elders to pray for recovery. Upon such husbands, the wives bestow their love and long for their embraces. (Rg. X.40.10; Variation nominal)

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    Translation

    People weep for living one at the time of giving send off, they carry the Yajna with them, the men who lead (the family and society) ponder over the long fatter of future. These men do this good act of marriage for their father and mother and this the embracing of wife is happy for husband.

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    Translation

    At the time of the departure of the bride people weep for their beloved soul. They thereby destroy the grace and beauty of the sacred rite of marriage. Wise persons think of the distant future of marital tie. In fact those who arrange this beautiful marriage ceremony for the happiness of the parents, provide the lords, the joy of embracing their wives.

    Footnote

    See Rig, 10-40-10. Maharshi Dayananda has explained this verse in the Sanskar Vidhi in the chapter on marriage. Relatives should not weep when the bride departs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४६−(जीवम्)संसारस्य जीवनार्थम् (रुदन्ति) अश्रून् विमोचयन्ति (वि) विविधम् (नयन्ति)प्रापयन्ति। गमयन्ति (अध्वरम्) हिंसारहितं व्यवहारम् (दीर्घाम्) (अनु) अनुसृत्य (प्रसितिम्) प्रबन्धक्रियाम् (दीध्युः) दीधीङ् दीप्तौ। प्रकाशन्ते (नरः)नयतेर्डिच्च। उ० २।१०। णीञ् प्रापणे-ऋ, डित्। नेतारः पुरुषाः (वामम्) श्रेष्ठंपदार्थम् (पितृभ्यः) पितृतुल्यमाननीयेभ्यः (ये) पुरुषाः (इदम्) (समीरिरे)प्रेरितवन्तः (मयः) सुखप्रद कर्म (पतिभ्यः) तेभ्यः पालकेभ्यः (जनये) भार्यायै (परिष्वजे) क्विबन्तः प्रयोगः। संगमाय। संगन्तुम् ॥

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