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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 41
    ऋषिः - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    131

    खे रथ॑स्य॒ खेऽन॑सः॒ खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो। अ॑पा॒लामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्वाकृ॑णोः॒सूर्य॑त्वचम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    खे । रथ॑स्य । खे । अन॑स: । खे । यु॒गस्य॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो । अ॒पा॒लाम् । इ॒न्द्र॒ । त्रि: । पू॒त्वा । अकृ॑णो: । सूर्य॑ऽत्ववचम् ॥१.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    खे रथस्य खेऽनसः खे युगस्य शतक्रतो। अपालामिन्द्र त्रिष्पूत्वाकृणोःसूर्यत्वचम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    खे । रथस्य । खे । अनस: । खे । युगस्य । शतक्रतो इति शतक्रतो । अपालाम् । इन्द्र । त्रि: । पूत्वा । अकृणो: । सूर्यऽत्ववचम् ॥१.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 41
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (शतक्रतो) हे सैकड़ोंप्रकार की बुद्धियों वा कर्मोंवाले ! (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले [पति !] (रथस्य) रथ [रथरूप शरीर] के (खे) गमन [चेष्टा] में, (अनसः) जीवन के (खे) गमन [उपाय] मेंऔर (युगस्य) योग [ध्यान] के (खे) गमन [चलने] में (अपालाम्=अपाराम्)अपार गुणवाली [ब्रह्मवादिनी पत्नी] को (त्रिः) तीन बार [कर्म, उपासना और ज्ञानसे] (पूत्वा) शोधकर (सूर्यत्वचम्) सूर्य के समान तेजवाली (अकृणोः) तू कर ॥४१॥

    भावार्थ

    बुद्धिमान् विद्वान्पति प्रयत्न करे कि विदुषी पत्नी वेदज्ञान से शुद्ध होकर शरीर को उचित चेष्टामें, जीवन को सुन्दर उपाय में, और मन को ईश्वरभक्ति में लगाकर संसार में कीर्तिपावे ॥४१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-सायणभाष्य ८—१।८०।७ और अजमेरवैदिकयन्त्रालय पुस्तक ८।९१।७ ॥

    टिप्पणी

    ४१−(खे) खर्व गतौ-ड। गमने। चेष्टने। उपाये (रथस्य) रथरूपस्य शरीरस्य (खे) उपाये (अनसः) अन जीवने-असुन्। जीवनस्य (खे) गतौ (युगस्य) योगस्य। ध्यानस्य (शतक्रतो) हे बहुप्रज्ञ। बहुकर्मन् (अपालाम्) रस्यलः। अपाराम्। अपारगुणवतीं ब्रह्मवादिनीं पत्नीम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पते (त्रिः) त्रिवारं कर्मोपासनाज्ञानैः (पूत्वा) शोधयित्वा (अकृणोः) त्वं कुर्याः (सूर्यत्वचम्) त्वच संवरणे-असुन्। सूर्यवत्तेजस्विनीम् ॥

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    विषय

    दोष-निराकरण

    पदार्थ

    १. हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले प्रभो! (रथस्य खे) = शरीररूप रथ के छिद्र में (अनसः खे) = [अन प्राणने], प्राणमयकोश के छिद्र में-इन्द्रियों के छिद्र में [प्राणा: वाव इन्द्रियाणि] (युगस्य खे) = आत्मा व इन्द्रियों को परस्पर जोड़नेवाले मन के छिद्र में, हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विद्रावक प्रभो! इस (अपालाम्) = [अप अलम्]-दोषों का सुदूर वारण करने के लिए यत्नशील युवति को (त्रिः पूत्वा) = तीन प्रकार से पवित्र करके-शरीर, इन्द्रियों व मन में पवित्र व निर्दोष बनाकर (सूर्यत्वचम् अकृणो:) = आप सूर्यसम दीप्त त्वचावाला बनाते हैं, इसे नितराम तेजस्वी बनाते हैं। २. शरीर, इन्द्रियों व मन के दोषों का निराकरण होने पर जीवन तेजस्वी व पवित्र बनता ही है। शरीर के दोष रोग हैं, इन्द्रियों के दोष विषयसंग हैं तथा मन का दोष राग-द्वेष परिपूर्णता है। प्रभु अपाला के इन सब दोषों को दूर करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हमारे राष्ट्र में युवतियाँ 'शरीर, इन्द्रियों व मन' के दोषों से रहित होकर सूर्यसम दीप्त त्वचावाली हों।

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    भाषार्थ

    (शतक्रतो) हे सौ वर्षों की आयु में कर्मशील, यज्ञशील तथा उत्तम संकल्पों वाले! तथा (इन्द्र) हे आत्मिक शक्ति सम्पन्न पति! तूने (रथस्य) शरीर-रथ के (खे) आनन्द में, (अनसः) अन्न के (खे) आनन्द में, (युगस्य) पति-पत्नी के जोड़े के (खे) आनन्द में, (अपालाम्) तेरे विना अन्य जिस का पालक नहीं,-ऐसी पत्नी को, (त्रिः) इन तीन प्रकारों से (पूत्वा) पवित्र करके, (सूर्यत्वचम्) सूर्य की त्वचा अर्थात् किरणों के सदृश चमका दिया है, पवित्र कर दिया है।

    टिप्पणी

    [रथस्य= “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु" (कठ, उप० ३।३)। खे=आनन्दे, Happiness, pleasure (आप्टे)। अनस्=अन्न (उ० ४।१९०, महर्षि दयानन्द), “अनिति जीवति येनेति अनः, ओदनं पदवान्नं वा"। क्रतुः=कर्म (निघं० २।१); प्रज्ञा (३।९)। प्रज्ञा, यज्ञ (उणा० १।७६) महर्षि दयानन्द] [व्याख्या— पति का कर्त्तव्य है कि वह पत्नी को ऐसा उपदेश दिया करे ताकि पत्नी तीन प्रकार के आनन्दों में पवित्र हो जाए। वे तीन आनन्द हैं शारीरिक आनन्द, अन्न का आनन्द, तथा पति-पत्नी के जोड़े का आनन्द। पत्नी अपने शारीरिक आनन्द को अपवित्र न होने दे। दैनिक स्नान, उद्यम और निरालसता, तथा विषय वासना का नियन्त्रण शारीरिक पवित्रता है। अन्न को दोषरहित, स्वादु तथा पुष्टिकारक बनाना, और राजस तथा तामस अन्नों का सेवन न करना अन्न सम्बन्धी पवित्रता है। पति और पत्नी के पृथक् पृथक् हो जाने से, परस्पर लड़ाई और मनमुटावों से, दोनों के सहवास जन्य आनन्द में तथा पवित्रता में अन्तर आ जाता है। पत्नी की पवित्रता में सूर्यत्वचा अर्थात् सूर्य की किरणों का दृष्टान्त दिया है। सूर्य की किरणें स्वयं सदा पवित्र, तथा अन्य अपवित्र पदार्थों तथा स्थलों को भी पवित्र कर देती हैं। पत्नी भी पवित्रता में सूर्य की किरणों के सदृश स्वयं पवित्र होनी चाहिये। उस के स्वयं पवित्र होने पर, उस के संपर्क से अन्य अपवित्र भी पवित्र हो जाते हैं। पत्नी में इन तीन पवित्रताओं का डालने वाला पति भी स्वयं पवित्र होना चाहिये। इस लिये पति को शतक्रतु और इन्द्र कहा है। जो उत्तम कर्मों वाला, यज्ञशील, उत्तम संकल्पों वाला, तथा आत्मशक्ति सम्पन्न है,-वह अपवित्र हो ही नहीं सकता। पत्नी को मन्त्र में अपाला कहा है। विवाह के पश्चात् पत्नी और सन्तानों को पालना पति का कर्त्तव्य है। पत्नी का कर्त्तव्य है गृहव्यवस्था तथा सन्तानों की देखभाल तथा सुशिक्षा। पति और पत्नी दोनों ही नौकरी में लगे रहें तो न गृहव्यवस्था रह सकती है, और न सन्तानों की देखभाल और न सुशिक्षा ही हो सकती है।

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे (शतक्रतो) सैंकड़ों कर्म करनेहारे परमात्मन् ! हे शतप्रज्ञ आचार्य ! तू (रथस्य) रथ अर्थात् रमण करने योग्य शरीर के (खे) छिद्र इन्द्रियों में और (अनसः) प्राणमय जीवन के (खे) अवकाश भाग, जीवन काल में और (युगस्य) परस्पर मिलकर जोड़ा बने युगल पति पत्नि के ((खे) गृह में, हे इन्द्र परमेश्वर (अपालाम्) अपाला=अबला युवती स्त्री को (त्रिः पूत्वा) मन, वाणी और कर्म, तीनों प्रकार से पवित्र करके (सूर्यत्वचम्) सूर्य के समान कान्ति वाली (अकृणोः) कर देता है।

    टिप्पणी

    (तु०) ‘पूत्वी’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O Indra, noble and virile groom of a hundredfold power and virtue, in the triple pleasures of body, mind and soul for total living, make the bride, a maiden of boundless virtue exclusively dedicated to you, radiant as sun rays in knowledge, action and piety.

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    Translation

    Thrice, the resplendent Lord, the selfless worker of hundreds of deeds, cleansed the sinning woman, first having dragged her through the hole of a chariot (i.e., body physically cleaned); then she has been passed through the hole of a cart, (i.e., her vital breathing complex cleaned) and lastly from the hole of the yoke (i.e., spiritually cleaned by the system of the Yoga). Her skin thus finally becomes resplendent like the sun. (Rg. VIII.91.7)

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    Translation

    O Almighty God! Thou art doers of hundreds of activities of the cosmic order. Thou making perfect this bride in the bodily defect, in short-comings of Yajna and in the weakness of copulative nature of couple and purifying in speech, action and thought make her as splendid as the sun and Apalam, insurmountable in virtues,.

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    Translation

    O multi-talented husband, purifying thy highly qualified wife through three devices, make her lustrous like the Sun, for realizing the emotions of her body, for successfully passing her life and for deep absorption in contemplation.

    Footnote

    Three devices: (i) Karma (Deed); (ii) Upasana (Contemplation); (iii) Jnana (Know¬ ledge). Griffith, following Sayana considers Apala, a woman afflicted with some cutane¬ ous disease. He has fabricated a legend about her on the basis of Sayana, which cannot be relied upon, as there is no history in the Vedas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४१−(खे) खर्व गतौ-ड। गमने। चेष्टने। उपाये (रथस्य) रथरूपस्य शरीरस्य (खे) उपाये (अनसः) अन जीवने-असुन्। जीवनस्य (खे) गतौ (युगस्य) योगस्य। ध्यानस्य (शतक्रतो) हे बहुप्रज्ञ। बहुकर्मन् (अपालाम्) रस्यलः। अपाराम्। अपारगुणवतीं ब्रह्मवादिनीं पत्नीम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पते (त्रिः) त्रिवारं कर्मोपासनाज्ञानैः (पूत्वा) शोधयित्वा (अकृणोः) त्वं कुर्याः (सूर्यत्वचम्) त्वच संवरणे-असुन्। सूर्यवत्तेजस्विनीम् ॥

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