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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 132/ मन्त्र 15
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिः छन्दः - याजुषी गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    37

    द्वौ वा॒ ये शि॑शवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वौ । वा॑ । ये । शिशव: ॥१३२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वौ वा ये शिशवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वौ । वा । ये । शिशव: ॥१३२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 132; मन्त्र » 15
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (हिरण्यः) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वौ) दो (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्ड [नीलों निधियों वा निवास स्थानों का पहुँचानेवाला] तथा वाहन [सब का लेचलनेवाला] है, (इति) ऐसा (ये शिशवः) बालक हैं, (एके) वे कोई कोई (अब्रवीत्) कहते हैं ॥१४-१६॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के कारण नामों की गणना में नहीं आ सकता है, जो मनुष्य उसके केवल “हिरण्य” आदि नाम बताते हैं, वे बालक के समान थोड़ी बुद्धिवाले हैं ॥१३-१६॥

    टिप्पणी

    पण्डित सेवकलाल कृष्णदास संशोधित पुस्तक में मन्त्र १३-१६ का पाठ इस प्रकार है ॥ द्वे वा॒ यशः॒ शवः॑ ॥१॥ (एकम्) एक (हिरण्यम्) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वे) दो (यशः) यश [कीर्ति] तथा (शवः) बल है, (इति) ऐसा (अब्रवीत्) [वह, मनुष्य] कहता है ॥१४, १॥१−(द्वौ) (वा) समुच्चये (ये) (शिशवः) वासाः। बालसमानस्वबुद्धयः। (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्डश्च वाहनश्च। [नीलशिखण्डः-अथ० २।२७।६] स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। णीञ् प्रापणे-रक्, रस्य लः। यद्वा नि+इल अतौ-कः। अण्डन् कृसृभृवृञः। उ० १।२९। शिखि गतौ-अण्डन् कित्। नीलानां निधीनां यद्वा नीलानां नीडानां निवासानां शिखण्डः प्रापकः [वाहनः] वह प्रापणे-ल्यु स च णित्। वोढा। सर्ववहनशीलः परमेश्वरः ॥

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    विषय

    उष्ट्र के तीन नाम [शत्रु-नायक बल]

    पदार्थ

    १. प्रकृति के बन्धनों में न फंसनेवाले (उष्ट्रस्य) = वासनाओं को [उष दाहे] दग्ध करनेवाले के (त्रीणि) = तीन (नामानि) = नाम है, अथवा शत्रुओं को झुकानेवाले [नम प्रालीभावे] तीन बल हैं। एक बल 'काम' का पराजय करता है, दूसरा 'क्रोध' का और तीसरा 'लोभ' का। इसप्रकार तीनों शत्रुओं को विनष्ट करके यह स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है। २. प्रभु ने इति (अब्रवीत्) = ऐसा कहा कि (एके) = [same] ये सब सम [समान] हैं। ये बल अलग-अलग नहीं हैं। (हिरण्यम्) = [हिरण्यं वै ज्योतिः] ये बल हिरण्य, अर्थात् ज्योतिरूप है। ज्ञान ही वह बल है जिसमें ये सब शत्रु भस्म हो जाते हैं। ३. ये (शिशव:) = [शो तनूकरणे] जो अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले हैं, वे कहते हैं कि ये बल (वा) = निश्चय से (द्वौ) = दो भागों में बटे हुए हैं-शरीर में इसका स्वरूप 'क्षत्र' है, मस्तिष्क में 'ब्रह्म'। ये ब्रह्म और क्षत्र मिलकर सब शत्रुओं को भस्म कर देते हैं।

    भावार्थ

    वासनाओं को दग्ध करनेवाला व्यक्ति तीन शत्रुओं को नमानेवाले बलों को प्राप्त करता है। ये सब बल समान रूप-'हिरण्य' [ज्योति] ही हैं। अथवा ये 'ब्रह्म व क्षत्र' के रूप में हैं।

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    भाषार्थ

    (वा) तथा (ये) जो (शिशवः) शिशुबुद्धि के लोग हैं, वे कहते हैं कि (द्वौ) उसके दो नाम हैं।

    टिप्पणी

    [शिशवः=तामसिक और राजसिक लोग।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    Others, sharp of intelligence, say It is twofold: of dual power and potential: power and honour.

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    Translation

    Two are the speedier ones-the fire and lighting.

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    Translation

    Two are the speedier ones-the fire and lighting.

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    Translation

    The vital breath in the Brahmrandhra strikes the inner chord of the soul.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    पण्डित सेवकलाल कृष्णदास संशोधित पुस्तक में मन्त्र १३-१६ का पाठ इस प्रकार है ॥ द्वे वा॒ यशः॒ शवः॑ ॥१॥ (एकम्) एक (हिरण्यम्) हिरण्य [तेजोमय], (वा) और (द्वे) दो (यशः) यश [कीर्ति] तथा (शवः) बल है, (इति) ऐसा (अब्रवीत्) [वह, मनुष्य] कहता है ॥१४, १॥१−(द्वौ) (वा) समुच्चये (ये) (शिशवः) वासाः। बालसमानस्वबुद्धयः। (नीलशिखण्डवाहनः) नीलशिखण्डश्च वाहनश्च। [नीलशिखण्डः-अथ० २।२७।६] स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। णीञ् प्रापणे-रक्, रस्य लः। यद्वा नि+इल अतौ-कः। अण्डन् कृसृभृवृञः। उ० १।२९। शिखि गतौ-अण्डन् कित्। नीलानां निधीनां यद्वा नीलानां नीडानां निवासानां शिखण्डः प्रापकः [वाहनः] वह प्रापणे-ल्यु स च णित्। वोढा। सर्ववहनशीलः परमेश्वरः ॥

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