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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - मरुद्गणः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०
    38

    इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒न: । अबि॑भ्युषा ॥ म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥७०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मान: । अबिभ्युषा ॥ मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥७०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    १-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे प्रजागण !] (अबिभ्युषा) निडर (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के साथ (हि) ही (संजग्मानः) मिलता हुआ तू (सम्) अच्छे प्रकार (दृक्षसे) दिखाई देता है। (समानवर्चसा) एक से तेज के साथ (मन्दू) तुम दोनों [राजा और प्रजा] आनन्द देनेवाले हो ॥३॥

    भावार्थ

    जिस राज्य में प्रजागण राजा से और राजा प्रजा से प्रसन्न रहते हैं, वही राज्य विद्या और धन में उन्नति करता है ॥३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३, ४ आचुके हैं-अथ० २०।४०।१, २ ॥ ३, ४-मन्त्रौ व्याख्यातौ अथ० २०।४०।१०२ ॥

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    विषय

    मन्दू समानवर्चसा

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु-स्तवन करता हुआ तू (अबिभ्युषा) = सब प्रकार के भयों से रहित उस (इन्द्रेण) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से (संजग्मानः) = संगत होता हुआ (हि) = निश्चय से (संदृक्षसे) = दिखता है। यह प्रभु-संगम तुझे भी भीतिरहित व परमैश्वर्यवाला बनाता है। २. प्रभु-संगम के होने पर ये (उपास्य) = उपासक दोनों (मन्दू) = आनन्दमय व (समानवर्चसा) = समान तेजवाले हो जाते हैं। प्रभु की गोद में पूर्ण निर्भीक यह उपासक भी आनन्दमय हो जाता है और प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न हो जाता है। जैसे अग्नि में पड़कर लोहशलाका भी अग्निमय हो जाती है, इसी प्रकार यह उपासक भी प्रभु की भाँति हो जाता है। उपनिषदों के शब्दों में 'ब्रह्म इब'।

    भावार्थ

    प्रभु की उपासना से प्रभु से संगत होकर हम भी प्रभु के समान 'आनन्द व शक्ति' का अनुभव करते हैं।

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    भाषार्थ

    हे उपासक! तू (हि) निश्चय से, (अबिभ्युषा) स्वयं निर्भय और उपासकों को निर्भय कर देनेवाले (इन्द्रेण) परमेश्वर के साथ (सम्) संगति को प्राप्त हुआ (दृक्षसे) दृष्टिगोचर हो रहा है। अब तुम दोनों (मन्दू) आनन्दित और (समानवर्चसा) समानकान्तिवाले हो।

    टिप्पणी

    [दोनों=परमेश्वर और उपासक।]

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    विषय

    राजा परमेश्वर।

    भावार्थ

    मरुत् नामक वायु के समान तीव्र वेगवान् एवं शत्रु रूप वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने वाला सैन्यगण ! (अबिभ्युषा) भय रहित साधन या बल से युक्त होकर ही (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् राजा या सेनापति के साथ (संजग्मानः) संगति लाभ करता हुआ (सं दृक्षसे) भला प्रतीत होता है। (हि) क्योंकि दोनों (समानवर्चसा) समान तेज को धारण करने हारे होकर (मन्दू) एक दूसरे की आवश्यकता को पूरा करने वाले एवं परस्पर आनन्द और संतोषदायक होते हैं। ईश्वर पक्ष में—प्राणाभ्यासी योगी (अबिभ्युषा) अभय चित से संगत होकर परमेश्वर के साथ अपने को मिला पाता है। वे दोनों समान तेज के आनन्दमय होकर एक दूसर को आनन्दित करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मधुच्छन्दाः। देवता—१,२,६-२० इन्द्रमरुतः, ३-५ मरुतः॥ छन्दः—गायत्री॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    Marut, wind energy, is seen while moving alongwith the indomitable sun, both beautiful and joyous, divinities coexistent, equal in splendour by virtue of omnipresent Indra, Lord Supreme.

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    Translation

    Thesc Marut (airs) without any hindrance, possessing the splenbour alike, co-operating each other and moving together are seen with Indra, the sun.

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    Translation

    These Marut (airs) without any hindrance, possessing the splendor alike, co-operating each other and moving together are seen with Indra, the sun.

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    Translation

    The soul (i.e., Jivatma) fearlessly well-united with the mighty Lord, verily looks charming. Both, having the same Glory and splendour, rejoice together.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३, ४ आचुके हैं-अथ० २०।४०।१, २ ॥ ३, ४-मन्त्रौ व्याख्यातौ अथ० २०।४०।१०२ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৯ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে প্রজাগণ!] (অবিভ্যুষা) নির্ভয় (ইন্দ্রেণ) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যবান রাজার] সাথে (হি)(সংজগ্মানঃ) মিলিত হওয়া তুমি (সম্) উত্তমরূপে (দৃক্ষসে) দর্শিত হও। (সমানবর্চসা) সমান তেজের সাথে (মন্দূ) তোমরা উভয়ে [রাজা ও প্রজা] আনন্দ দানকারী হও ॥৩॥

    भावार्थ

    যে রাজ্যে প্রজাগণ রাজার মাধ্যমে এবং রাজা প্রজার মাধ্যমে উৎপন্ন হয়, সেই রাজ্য বিদ্যা ও ধনে উন্নতি করে ॥৩॥ মন্ত্র ৩, ৪ আছে- অ০ ২০।৪০।১, ২।

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    भाषार्थ

    হে উপাসক! তুমি (হি) নিশ্চিতরূপে, (অবিভ্যুষা) স্বয়ং নির্ভয় এবং উপাসকদের নির্ভয়কারী (ইন্দ্রেণ) পরমেশ্বরের সাথে (সম্) সঙ্গতি প্রাপ্ত হয়েছো (দৃক্ষসে) দৃষ্টিগোচর হয়েছো। এখন তোমরা উভয় (মন্দূ) আনন্দিত এবং (সমানবর্চসা) সমানকান্তিসম্পন্ন হও।

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