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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - शक्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    64

    व्यार्त्या॒ पव॑मानो॒ वि श॒क्रः पा॑पकृ॒त्यया॑। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । आर्त्या॑ । पव॑मान: । वि । श॒क्र: । पा॒प॒ऽकृ॒त्यया॑ । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पापकृत्यया। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । आर्त्या । पवमान: । वि । शक्र: । पापऽकृत्यया । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (पवमानः) शोधन करनेवाला पुरुष (आर्त्या) पीड़ा से (वि) अलग, और (शक्रः) शक्तिमान् पुरुष (पापकृत्यया) पाप क्रिया से (वि=वि वर्तताम्) अलग रहे। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य शुद्ध आचरण से सामाजिक आत्मिक और शारीरिक पीड़ा मिटावे और बलवान् होकर पाप को हटावे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(वि) विवर्तताम्। वियुक्तो भवतु। (आर्त्या) आङ्+ऋ हिंसने-क्तिन्। पीडया। रोगेन। (पवमानः) पूङ्यजोः शानन्। पा० ३।२।१८। इति पूञ् शोधने-शानन्। आने मुक्। पा० ७।२।८२। इति मुक्। संशोधकः (शक्रः) अ० २।५।४। शक्तः। इन्द्रः। (पापकृत्यया) पापम् इति व्याख्यातम्-अ० २।१२।५। कृञः श च। पा० ३।३।१०। इति डुकृञ् करणे, यद्वा, कृञ् हिंसायाम्-क्यप्, तुक्। पापक्रियया महाहिंसया। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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    विषय

    पवित्रता व शक्ति

    पदार्थ

    १. (पवमानः) = अपने जीवन को पवित्र बनानेवाला पुरुष (आर्त्या वि) = पीड़ाओं से पृथक रहता है। जीवन की अपवित्रता ही विविध पीड़ाओं का कारण बनती है। २. (शक्र:) = शक्तिशाली पुरुष (पापकृत्यया वि) = पाप कर्मों से दूर रहता है। निर्बलता पाप का कारण बनती है। मैं भी सब पापों व रोगों से दूर होकर उत्कृष्ट दीर्घजीवनवाला बनता हूँ।

    भावार्थ

    हम जीवन को सदा पवित्र रखने का प्रयत्न करें, यही पीड़ाओं से बचने का मार्ग है। शक्तिशाली बनकर हम पाप कर्मों से दूर रहें।

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    भाषार्थ

    (पवमानः) पवित्र व्यक्ति (आर्त्या) पीड़ा से (वि) वियुक्त होता है, (शक्रः) धर्म में शक्तिशाली (पापकृत्यया) पापकर्म से (वि) वियुक्त होता है; इसी प्रकार (अहम) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा रोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (आयुषा) और स्वस्थ आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊं ।

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय ।

    भावार्थ

    (पवमानः) सब को पवित्र करने वाला सूर्य और उसके समान परमात्मा और वायु (आर्त्या वि) सब प्रकार की पीड़ा से दूर रखे। और (शकः) शक्तिमान् परमात्मा (पापकृत्यया वि) सब पापकर्म, बुरे आचरणों से (वि) परे रक्खे । (अहं सर्वेण पाष्मना वि०) इत्यादि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। पाप्महा देवता। १-३, ६-११ अनुष्टुभः। ७ भुरिग। ५ विराङ् प्रस्तार पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    Let the pious and pure be free from suffering and adversity. Let the powerful keep away from evil doing, let me be free from cancer and consumption, and happy with good health and long age, free from all sin.

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    Translation

    May the purifier Lord keep this man away from physical pain and the almighty away from sinful actions. I free this man from ali evil, and from wasting disease. I unite him with a long life.

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    Translation

    May the man of purity be free from pain, may the mighty person be free from evil dealings, may we be free from all evils and let us be free from decline and encompassed with long life.

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    Translation

    A pure soul remains free from physical and mental pain. An energetic and strong soul commits no sin. May I remain aloof from all sins and pulmonary disease. May I be linked with old age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(वि) विवर्तताम्। वियुक्तो भवतु। (आर्त्या) आङ्+ऋ हिंसने-क्तिन्। पीडया। रोगेन। (पवमानः) पूङ्यजोः शानन्। पा० ३।२।१८। इति पूञ् शोधने-शानन्। आने मुक्। पा० ७।२।८२। इति मुक्। संशोधकः (शक्रः) अ० २।५।४। शक्तः। इन्द्रः। (पापकृत्यया) पापम् इति व्याख्यातम्-अ० २।१२।५। कृञः श च। पा० ३।३।१०। इति डुकृञ् करणे, यद्वा, कृञ् हिंसायाम्-क्यप्, तुक्। पापक्रियया महाहिंसया। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (পবমানঃ) পবিত্র ব্যক্তি (আর্ত্যা) পীড়া থেকে (বি) বিযুক্ত হয়, (শক্রঃ) ধর্মে শক্তিশালী (পাপকৃত্যয়া) পাপকর্ম থেকে (বি) বিযুক্ত/পৃথক হয়। এইভাবে (অহম্) আমি যেন (সর্বেণ পাপ্মনা) সব পাপ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (যক্ষ্মেণ) যক্ষ্মা রোগ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (আয়ুষা) এবং সুস্থ আয়ুর সাথে (সম্) সংযুক্ত হয়ে যাই।

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    मन्त्र विषय

    আয়ুর্বর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পবমানঃ) সংশোধনকারী/সংশোধক পুরুষ (আর্ত্যা) পীড়া থেকে (বি) আলাদা/পৃথক, এবং (শক্রঃ) শক্তিমান্ পুরুষ (পাপকৃত্যযা) পাপ ক্রিয়া থেকে (বি=বি বর্ততাম্) আলাদা থাকুক। (অহম্) আমি (সর্বেণ) সকল (পাপ্মনা) পাপ কর্ম থেকে (বি) আলাদা এবং (যক্ষ্মেণ) রাজরোগ, ক্ষয়ী ইত্যাদি থেকে (বি=বিবর্ত্তৈ) আলাদা থাকি এবং (আয়ুষা) জীবনে [উৎসাহের] সহিত যেন (সম্=সম্ বর্তে) মিলে থাকি/সঙ্গত থাকি॥২॥

    भावार्थ

    মনুষ্য শুদ্ধ আচরণের মাধ্যমে সামাজিক আত্মিক ও শারীরিক পীড়া দূর করুক এবং বলবান্ হয়ে পাপের বিনাশ করুক॥২॥

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