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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - पशुसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    79

    वि ग्रा॒म्याः प॒शव॑ आर॒ण्यैर्व्याप॒स्तृष्ण॑यासरन्। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ग्रा॒म्या: । प॒शव॑: । आ॒र॒ण्यै: । वि । आप॑: । तृष्ण॑या । अ॒स॒र॒न् । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ग्राम्याः पशव आरण्यैर्व्यापस्तृष्णयासरन्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ग्राम्या: । पशव: । आरण्यै: । वि । आप: । तृष्णया । असरन् । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ग्राम्याः) ग्रामवाले (पशवः) जीव (आरण्यैः) जङ्गली जीवों से (वि) अलग, और (आपः) जल (तृष्णया) पियास से (वि) अलग, (असरन्) चले हैं। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे ग्राम्य पशु जङ्गली जीवों से अलग रहकर प्रसन्न रहते हैं और जल की उपस्थिति में पियास से निवृत्ति होती है, इसी प्रकार मनुष्य पाप से निवृत्त होकर सबके सुख में प्रवृत्त हों ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(ग्राम्याः) अ० २।३४।४। ग्राम-य। ग्रामीणाः। (आरण्यैः) अरण्य-ष्यञ्। अरण्यजातैः। (आपः) जलानि। (तृष्णया) तृषिशुषिरसिभ्यः कित्। उ० ३।१२। इति तृषिर् आकाङ्क्षायाम्-न, स च कित्। टाप् पानेच्छया। पिपासया। (वि असरन्) सृ गतौ-लुङ्। विगता अभूवन्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    पाप की अप्रवृत्ति

    पदार्थ

    १. (ग्राम्याः पशव:) = गौ, भेड़, बकरी आदि ग्राम्य पशु (आरण्यैः) = सिंह-व्याघ्र आदि वन्य पशुओं से (वि) = दूर रहते हैं। ये स्वभावत: इकट्ठे नहीं रहते। (आपः) = जल (तृष्णया वि असरन्) = प्यास से दूर रहते हैं, जलरहित प्राणियों को ही प्यास सताती है। इसीप्रकार मैं पाप और रोग से दूर रहूँ तथा दीर्घजीवन से संगत होऊँ। २. पाप की ओर मेरा झुकाव ही न हो, तब मैं पापों व रोगों से पृथक् होकर दीर्घजीवन से संगत होऊँ।

    भावार्थ

    मैं स्वभावतः ही पापवृत्ति से दूर हो जाऊँ, पाप की ओर मेरा झुकाव न रहे, तब पापों व रोगों से पृथक होकर मैं दीर्घजीवन से संयुक्त होऊँगा।

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    भाषार्थ

    (ग्राम्या: पशवः) ग्राम के पशु (आरण्यैः) अरण्य के पशुओं से (वि) वियुक्त हैं, (आप:) जल (तृष्णया) पिपासा से (वि असरन्) वियुक्त हैं; इसी प्रकार (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा रोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ और (आयुषा) स्वस्थ आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊँ।

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय ।

    भावार्थ

    (ग्राम्याः पशवः) ग्राम में रहने वाले गौ, भैंस आदि पशु जिस प्रकार (आरण्यैः) जंगल के निवासी व्याघ्र, सिंह आदि से भयभीत होकर (वि असरन्) परे भागते हैं और जिस प्रकार (तृष्णया) प्यास से (आपः) जल परे रहते हैं। उसी प्रकार (अहं) मैं (सर्वेण पाप्मना वि) सब पापों से परे रहूं। (यक्ष्मणा वि) और मैं सब रोगों से मुक्त और (आयुषा सम्) आयु से सम्पन्न रहूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। पाप्महा देवता। १-३, ६-११ अनुष्टुभः। ७ भुरिग। ५ विराङ् प्रस्तार पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    Domestic animals keep away from forest beasts, waters keep away from thirst and drought. Let me be away from sin and disease, happy with good health and long life.

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    Translation

    Domestic cattle keep away from the wild beasts and the waters keep away from the thirst. I free this man form all the evil and from wasting disease. I unite you with a long life.

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    Translation

    The domestic animals keep them away from the silvan animals, the waters are face from the urge of thirst, may we be free from all evils and let us be free from decline and encompassed with long life.

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    Translation

    Just as tame domestic beasts remain away from wild beasts of the forest, so may I remain aloof from all sins and pulmonary disease. May I be linked with old age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(ग्राम्याः) अ० २।३४।४। ग्राम-य। ग्रामीणाः। (आरण्यैः) अरण्य-ष्यञ्। अरण्यजातैः। (आपः) जलानि। (तृष्णया) तृषिशुषिरसिभ्यः कित्। उ० ३।१२। इति तृषिर् आकाङ्क्षायाम्-न, स च कित्। टाप् पानेच्छया। पिपासया। (वि असरन्) सृ गतौ-लुङ्। विगता अभूवन्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (গ্রাম্যাঃ পশবঃ) গ্রামের পশু (আরণ্যৈঃ) অরণ্যের পশুদের থেকে (বি) বিযুক্ত/পৃথক, (আপঃ) জল (তৃষ্ণয়া) পিপাসা থেকে (বি অসরন্) বিযুক্ত; এইভাবে (অহম্) আমি যেন (সর্বেণ পাপ্মনা) সব পাপ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (যক্ষ্মেণ) যক্ষ্মা রোগ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই এবং (আয়ুষা) সুস্থ আয়ুর সাথে (সম্) সংযুক্ত হয়ে যাই।

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    मन्त्र विषय

    আয়ুর্বর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (গ্রাম্যাঃ) গ্রাম্য (পশবঃ) জীব (আরণ্যৈঃ) জঙ্গলের/অরণ্যের/বন্য জীব থেকে (বি) আলাদা, এবং (আপঃ) জল (তৃষ্ণয়া) তৃষ্ণার থেকে (বি) আলাদা, (অসরন্) হয়েছে। (অহম্) আমি (সর্বেণ) সকল (পাপ্মনা) পাপ কর্ম থেকে (বি) আলাদা এবং (যক্ষ্মেণ) রাজরোগ, ক্ষয়ী ইত্যাদি থেকে (বি=বিবর্ত্তৈ) আলাদা থাকি এবং (আয়ুষা) জীবনে [উৎসাহের] সহিত যেন (সম্=সম্ বর্তে) মিলে থাকি/সঙ্গত থাকি ॥৩॥

    भावार्थ

    যেমন গ্রাম্য পশু জঙ্গলের জীবের থেকে আলাদা থেকে প্রসন্ন থাকে এবং জলের উপস্থিতিতে তৃষ্ণার নিবৃত্তি হয়, এইভাবে মনুষ্য পাপ থেকে নিবৃত্ত হয়ে সকলের সুখে প্রবৃত্ত হোক ॥৩॥

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