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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - त्वष्टा छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    49

    त्वष्टा॑ दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं यु॑न॒क्तीती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ वि या॑ति। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । दु॒हि॒त्रे । व॒ह॒तुम् । यु॒न॒क्ति॒ । इति॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । वि । या॒ति॒ । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा दुहित्रे वहतुं युनक्तीतीदं विश्वं भुवनं वि याति। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा । दुहित्रे । वहतुम् । युनक्ति । इति । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । वि । याति । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वष्टा) सूक्ष्मदर्शी पिता (दुहित्रे) बेटी को (वहतुम्) दायज [स्त्री धन] (युनक्ति=वि युनक्ति) अलग करके देता है। (इति) इसी प्रकार (इदम् विश्वम्) यह प्रत्येक (भुवनम्) लोक (वि याति) अलग-अलग चलता है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे पिता पुत्री को दायज देकर सदा हित करता रहता है, सब लोक और पदार्थ अलग-अलग रहकर परस्पर उपकार करते हैं, इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य आत्मिक और शारीरिक दोष हटाकर परस्पर सुख बढ़ावें ॥५॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋग्वेद १०।१७१।१। में इस प्रकार है−त्वष्टा॑ दुहि॒त्रे वह॒तुं कृ॑णो॒तीतीदं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति ॥ (त्वष्टा) सूक्ष्मदर्शी पिता (दुहित्रे) बेटी के लिये (वहतुम्) दायज (कृणोति) करता है, (इति) इस प्रकार (इदम् विश्वम् भुवनम्) यह सब जगत् (समेति) मिलकर चलता है ॥

    टिप्पणी

    ५−(त्वष्टा) अ० २।५।६। व्यवहाराणां तनूकर्ता, पिता। (दुहित्रे) अ० २।१४।२। दोग्धि प्रपूरयति कार्याणीति दुहिता तस्यै। पुत्र्यै। (वहतुम्) एधिवह्योश्चतुः। उ० १।७७। इति वह प्रापणे-चतु। विवाहकाले कन्यायै देयवस्तु (युनक्ति) वियुनक्ति पृथग् बध्नाति। (इति) अनेन प्रकारेण। (भुवनम्) अ० २।१।३। भूतजातम्। लोकः। (वि याति) पृथग् गच्छति। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    पापों से ऐसे दूर जैसे दहेज पितृगृह से दूर

    पदार्थ

    १. (त्वष्टा) = [त्विषेः दीप्तिकर्मण:] एक समझदार पिता (दुहित्रे) = अपनी दुहिता के लिए (बहतुम्) = दहेज को [उहाते जामातृगृहं प्रति] (युनक्ति) = देने के लिए अलग करता है, (इति) = इसप्रकार (इदं विश्वं भुवनम्) = यह सारा संसार (वियाति) = अलग-अलग चलता है, संसार में लोग एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं। कन्या पितृगृह से दूर हो जाती है। २. इसीप्रकार मैं भी पापों से पृथक् होता हूँ, रोगों से पृथक् होता हूँ और उत्कृष्ट दीर्घजीवन से संगत होता हूँ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार दहेज पितृगृह से पृथक् होकर दूर जामातृगृह में जाता है, इसीप्रकार पाप व रोग मुझसे पृथक् होते हैं। पापों और रोगों से पृथक् होकर मैं दीर्घजीवन से संगत होता हूँ।

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    भाषार्थ

    (त्वष्टा) सूर्य (दुहित्रे) निज दुहिता के लिए (वहतुम्)१ विवाह की (युनक्ति) योजना करता है, (इति) इस हेतु (विश्वम् भुवनम्) समग्र भूतजात (वियाति) विगत हो जाता है; (अहम्) मैं भी (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मरोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (आयुषा) और स्वस्थ आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊँ।

    टिप्पणी

    [त्वष्टा=सूर्य, यथा-"त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मणः" (निरुक्त ८।२।१३)। सूर्य की दुहिता है सौररश्मि। इसकी एकरश्मि चन्द्रमा में जाकर चन्द्रमा के गृह को प्रकाशित करती है, यह है सौरदुहिता का चन्द्रमा के साथ विवाह। "अथाप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते। आदित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति" (निरुक्त २।२।६)। तथा "सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः" (यजु० १८।४०), अर्थात् सूर्य की रश्मि उत्तम सुखदायी है, और चन्द्रमा उस गो-नामक रश्मि को धारण करता है। तथा "अत्राह गोरमन्यत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्या चन्द्रमसो गृहे॥" (ऋ० १।८४।१५), पद ५४ (निरुक्त ४।४।२५), अर्थात् सूर्य की रश्मियों ने सूर्य से पृथक होकर चन्द्रमा के घर में जाना मान लिया, स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि सूर्य की दुहिता का विवाह चन्द्रमा के साथ होता है। इस विवाहकाल में "वि याति" की भावना निम्नलिखित है— वेदानुसार बाल-विवाह निषिद्ध है और युवा-विवाह अनुमोदित है। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा का युवापन पूर्णिमा के दिन होता है। इस दिन आदित्य भी अस्तंगत हुआ होता है और द्युलोक के नक्षत्र और तारागण भी चन्द्रमा के पूर्ण प्रकाश में दृष्टिगोचर नहीं होते और छिप जाते हैं। यह है "विश्वं भुवनं वियाति"] [१. बहतुम्=विवाह (अथर्व० १४।१।१४)]

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (त्वष्टा) पिता (दुहित्रे) अपनी कन्या के लिये (वहतुं) विदाई के अवसर पर उसको जामाता के घर भेजने के लिये रथ को (युनक्ति) जोड़ता और उस पर बैठा कर दूर भेज देता है और जिस प्रकार (इदं विश्वं भुवनं) यह समस्त ब्रह्माण्ड (वि याति) एक एक से अलग २ रहता है उसी प्रकार इच्छापूर्वक (अहं सर्वेण पाप्मना वि, यक्ष्मेण वि, आयुषा सम्) मैं स्वयं अपने आपको सब पापों से दूर रक्खूं, सब रोगों से दूर रक्खूं और उत्तम आयु से सम्पन्न रहूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। पाप्महा देवता। १-३, ६-११ अनुष्टुभः। ७ भुरिग। ५ विराङ् प्रस्तार पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    The father harnesses the chariot to send away his daughter after marriage and is free from responsibility. This entire universe goes on, each particle being separate. Let me too be away from all sin, free from cancer and consumption, and happy with good health and full long age.

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    Translation

    Knowing that the supreme architect (of destinies) prepares bridal-gifts for her daughter, all this creation parts off (to make way for him). I free this man from all evil, and‘ from wasting disease. I unite him with a long life.

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    Translation

    The Sun prepares the bridal of her daughter, the dawn and all the worlds move in apart, etc. etc, etc.

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    Translation

    Just as a prudent father sets apart dowry for his daughter, just as planets revolve separately in the universe, so may I remain aloof from all sins and pulmonary disease. May I be linked with old age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(त्वष्टा) अ० २।५।६। व्यवहाराणां तनूकर्ता, पिता। (दुहित्रे) अ० २।१४।२। दोग्धि प्रपूरयति कार्याणीति दुहिता तस्यै। पुत्र्यै। (वहतुम्) एधिवह्योश्चतुः। उ० १।७७। इति वह प्रापणे-चतु। विवाहकाले कन्यायै देयवस्तु (युनक्ति) वियुनक्ति पृथग् बध्नाति। (इति) अनेन प्रकारेण। (भुवनम्) अ० २।१।३। भूतजातम्। लोकः। (वि याति) पृथग् गच्छति। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ত্বষ্টা) সূর্য (দুহিত্রে) নিজ দুহিতার জন্য (বহতুম্)১ বিবাহের (যুনক্তি) যোজনা করে, (ইতি) এই হেতু (বিশ্বম্ ভুবনম্) সমগ্র ভূতজাত/উৎপন্ন জগৎ (বিযাতি) বিগত হয়ে যায়; (অহম্) আমিও যেন (সর্বেণ পাপ্মনা) সব পাপ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (যক্ষ্মেণ) যক্ষ্মা রোগ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (আয়ুষা) এবং সুস্থ আয়ুর সাথে (সম্) সংযুক্ত হয়ে যাই।

    टिप्पणी

    [ত্বষ্টা= সূর্য, যথা- "ত্বিষের্বা স্যাদ্ দীপ্তিকর্মণঃ" (নিরুক্ত ৮।২।১৪)। সূর্যের দুহিতা হলো সৌররশ্মি। এর একরশ্মি চন্দ্রে গিয়ে চন্দ্রের গৃহকে আলোকিত করে, এটাই হলো সৌরদুহিতার চন্দ্রের সাথে বিবাহ। "অথাপ্যস্যৈকো রশ্মিশ্চন্দ্রমসং প্রতি দীপ্যতে। আদিত্যতোঽস্য দীপ্তির্ভবতি" (নিরুক্ত ২।২।৬)। এবং "সুষুম্ণঃ সূর্যরশ্মিশ্চন্দ্রমা গন্ধর্বঃ" (যজু০ ১৮।৪০), অর্থাৎ সূর্যের রশ্মি হলো উত্তম সুখদায়ী, এবং চন্দ্র সেই গো-নামক রশ্মিকে ধারণ করে। এবং "অত্রাহ গোরমন্বত নাম ত্বষ্টুরপীচ্যম্। ইত্থা চন্দ্রমসো গৃহে ॥" (ঋ০ ১।৮৪।১৫) পদ ৫৪ (নিরুক্ত ৪।৪।২৫), অর্থাৎ সূর্যের রশ্মি-সমূহ সূর্য থেকে পৃথক্ হয়ে চন্দ্রের ঘরে যাওয়া মেনে নিয়েছে, স্বীকার করে নিয়েছে। এইভাবে উপরিউক্ত প্রমাণ থেকে এটা স্পষ্ট যে, সূর্যের দুহিতার বিবাহ চন্দ্রের সাথে হয়। এই বিবাহকালে "বি যাতি" এর ভাবনা নিম্নলিখিত— বেদানুসারে বাল্য-বিবাহ নিষিদ্ধ এবং যুবা-বিবাহ অনুমোদিত। শুক্লপক্ষে চন্দ্রের যৌবনত্ব পূর্ণিমার দিন হয়। এই দিন আদিত্যও অস্তগত হয় এবং দ্যুলোকের নক্ষত্র এবং তারাগণ ও চন্দ্রের পূর্ণ আলোকে দৃষ্টিগোচর হয়না। এটাই “বিশ্বং ভুবনং বিযাতি"।] [১. বহতুম=বিবাহ (অথর্ব০ ১৪।১।১৪)।]

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    मन्त्र विषय

    আয়ুর্বর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ত্বষ্টা) সূক্ষ্মদর্শী পিতা (দুহিত্রে) নিজের মেয়েকে (বহতুম্) দায়জ/যৌতুক [স্ত্রী ধন] (যুনক্তি=বি যুনক্তি) পৃথকভাবে/আলাদা করে দেয়। (ইতি) এইভাবে (ইদম্ বিশ্বম্) এই প্রত্যেক (ভুবনম্) লোক (বি যাতি) পৃথক-পৃথকভাবে চলে। (অহম্) আমি (সর্বেণ) সকল (পাপ্মনা) পাপ কর্ম থেকে (বি) পৃথক এবং (যক্ষ্মেণ) রাজরোগ, ক্ষয়ী ইত্যাদি থেকে (বি=বিবর্ত্তৈ) পৃথক থাকি এবং (আয়ুষা) জীবনে [উৎসাহের] সহিত যেন (সম্=সম্ বর্তে) মিলে থাকি/সঙ্গত থাকি॥৫॥

    भावार्थ

    যেভাবে পিতা পুত্রীকে যৌতুক দিয়ে সদা হিত করতে থাকে, সমস্ত লোক ও পদার্থ আলাদা আলাদা থেকে পরস্পর উপকার করে, এইভাবে প্রত্যেক মনুষ্য আত্মিক ও শারীরিক দোষ দূর করে পরস্পর সুখ বৃদ্ধি করুক ॥৫॥ এই মন্ত্রের পূর্বার্ধ ঋগ্বেদ ১০।১৭১।১। এ এরূপ রয়েছে - ত্বষ্টা॑ দুহি॒ত্রে বহ॒তুং কৃ॑ণো॒তীতীদং বিশ্বং॒ ভুব॑নং॒ সমে॑তি ॥ (ত্বষ্টা) সূক্ষ্মদর্শী পিতা (দুহিত্রে) মেয়ের জন্য (বহতুম্) যৌতুক (কৃণোতি) করে, (ইতি) এইভাবে (ইদম্ বিশ্বম্ ভুবনম্) এই সমস্ত জগৎ (সমেতি) একসাথে চলে ॥

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