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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः, व्याघ्रः छन्दः - ककुम्मतीगर्भोपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    127

    यत्सं॒यमो॒ न वि य॑मो॒ वि य॑मो॒ यन्न सं॒यमः॑। इ॑न्द्र॒जाः सो॑म॒जा आ॑थर्व॒णम॑सि व्याघ्र॒जम्भ॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । स॒म्ऽयम॑: । न । वि । य॒म॒: । वि । य॒म॒: । यत् । न । स॒म्ऽयम॑: । इ॒न्द्र॒ऽजा: । सो॒म॒ऽजा: । आ॒थ॒र्व॒णम् । अ॒सि॒ । व्या॒घ्र॒ऽजम्भ॑नम् ॥३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्संयमो न वि यमो वि यमो यन्न संयमः। इन्द्रजाः सोमजा आथर्वणमसि व्याघ्रजम्भनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । सम्ऽयम: । न । वि । यम: । वि । यम: । यत् । न । सम्ऽयम: । इन्द्रऽजा: । सोमऽजा: । आथर्वणम् । असि । व्याघ्रऽजम्भनम् ॥३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वैरी के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जिससे (इन्द्रजाः) परमेश्वर से प्रकट हुआ, और (सोमजाः) मथन करनेवाले तत्ववेत्ताओं अथवा सर्वप्रेरक शूरवीर पुरुषों से प्रकाशित हुआ (संयमः) यथावत् नियम (वि यमः) विरुद्ध नियम (न) नहीं होता, और (यत्) जिससे (वि यमः) विरुद्ध नियम (संयमः) यथावत् नियम (न) नहीं होता है, [इस लिये हे मनुष्य तू] (आथर्वणम्) निश्चल वा मङ्गलप्रद परमेश्वर से आया हुआ (व्याघ्रजम्भनम्) व्याघ्रों [व्याघ्र स्वभाववाले शत्रुओं और विघ्नों] के नाश का सामर्थ्य (असि) है ॥७॥

    भावार्थ

    ईश्वर ने, और वेदवेत्ता आप्त पुरुषों ने जिन कर्मों को सत्य, और जिनको विरुद्ध वा असत्य बताया है, वे सर्वदा वैसे ही हैं, इसलिये मनुष्य विवेकपूर्वक विघ्नों को निर्मूल करके सदा आनन्द भोगें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यत्) यस्मात् कारणात् (संयमः) सम्यङ् नियमः सुनियमः प्रबन्धः (वि यमः) विरुद्धनियमः (इन्द्रजाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति इन्द्र+जनी प्रादुर्भावे-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्वम्। इन्द्रात् परमेश्वराज्जातः प्रादुर्भूतः (सोमजाः) पूर्ववद् विट् प्रत्यये सिद्धिः। षुञ् अभिषवे, यद्वा षू प्रेरणे-मन्। सोमेभ्यो मन्थनशीलेभ्यः सर्वप्रेरकेभ्यो वा पुरुषेभ्यः प्रकाशितः (आथर्वणम्) अथर्वा, इति व्याख्यातः-अ० ४।१।७। तत आगतः। पा० ४।३।७४। इति अथर्वन्-अण्। अन्। पा० ६।४।१६७। इति अणि प्रकृतिभावः। अथर्वणो निश्चलात् मङ्गलप्रदाद् वा परमेश्वराद् आगतं प्राप्तम् (असि) हे मनुष्यत्वं भवसि (व्याघ्रजम्भनम्) व्याघ्रस्वभावानां हिंसकानां शत्रूणां नाशसामर्थ्यम् ॥

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    विषय

    संयम न कि वियम

    पदार्थ

    १. (यत्) = चूँकि (संयमः) = जो संयम है-आत्मशासन है वह (वियमः न) = उच्छंखलता नहीं और (यत्) = क्योंकि (वियम:) = उच्छखलता-नियमविरुद्ध गति (संयमः न) = संयम नहीं है। इन संयम और वियम में आकाश-पाताल का अन्तर है। २. जो संयम है, वह (इन्द्रजा:) = [इन्द्रस्य जनयिता] इन्द्र को जन्म देनेवाला है। यह संयम मनुष्य को इन्द्र, अर्थात् देवराट् बनाता है-सब दिव्य गुणों से सम्पन्न करता है। यह संयम (सोमजा:) = [सोमस्य जनयिता] शरीर में सोमशक्ति को उत्पन्न करनेवाला है-सोम [Semen] की स्थिरता का कारण बनता है। हे संयम! तू (व्याघ्रजम्भनम्) = व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं के समान हिंसक वृत्तियों को समाप्त करनेवाला है। संयम मनुष्य को पाशविक वृत्तियों से ऊपर उठाकर दिव्य वृत्तियोंवाला बनाता है। वियम मनुष्य में पाशववृत्तियों को प्रबल करता है।

    भावार्थ

    संयम हमें इन्द्र-देवराट् बनाता है। यह व्यानतुल्य हिंस्रवृत्तियों का विनाश करता है। यह हममें सोम का रक्षण करता है। इसके विपरीत वियम हमें पशु ही बना डालता है।

     

    विशेष

    संयम 'सोमजा:' है, सोम को जन्म देनेवाला है। इस सोम से शक्तिशाली बनकर यह अथर्वा सदा प्रसन्नचित्त व गतिशील होता है। यह सोमजनक औषधियों का ही प्रयोग करता है। अगले सूक्त में इसी बात का वर्णन है।

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    भाषार्थ

    (यत्) यदि (संयमः) गिरफ्तार किया है, (न वियम:) तो उसे गिरफ्तारी से विमुक्त न करना चाहिए, (यत्) यदि (वियम:) गिरफ्तार नहीं किया (न संयमः) तो उसे गिरफ्तार न करना चाहिए। (इन्द्रजाः सोमजाः) संयम और वियम सम्राट् और सेनाध्यक्ष द्वारा होते हैं, [हे संयम और नियम तू] (आथर्वणम्) अथर्ववेद द्वारा कथित (व्याघ्रजम्भनम्) व्याघ्रनाशक (असि) है।

    टिप्पणी

    [इन्द्र="इन्द्रश्च सम्राट्" (यजु:० ८।३७)। सोम=सेनाध्यक्ष (यजुः० १७।४०) व्याघ्र है, व्याघ्रवत् पराक्रमवाला, शत्रु। यथा "व्याघ्रवच्च पराक्रमेत" (मनु तथा सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास ६)। व्याघ्र शक्तिशाली शत्रु है, इसकी गिरफ्तारी, या विमुक्ति इन्द्र और सोम के संयुक्त आदेश द्वारा होनी चाहिए। इन्द्र और सोम न्यायपूर्वक इसे यथोचित दण्ड दिलाते हैं।]

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    भावार्थ

    (यत् संयमः) जिसको एक बार अच्छी प्रकार बांध लिया जाय तो (न वियमः) फिर उसे छोड़ा न जाय और (यत् वियमः) यदि वह छूट गया तो (न संयमः) फिर उसको बांधा ही क्या ! यह संयम तथा बांधने का प्रकार दो प्रकार का है एक तो (इन्द्रजाः) इन्द्र से उत्पन्न अर्थात् शक्ति पूर्वक किसी को वश कर लेना, और दूसरा (सोमजाः) सोम=अन्न के आधार पर उसको वश करलेना। इनमें से (व्याघ्रजम्भनम्) व्याघ्र को वश करने का यह प्रकार ऐसा है कि (आथर्वणम् असि) इस में जीव का घात नहीं किया जाता है, प्रत्युत उस के बल को तोड़ दिया जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्र उत व्याघ्नो देवता। १ पथ्यापंक्ति, २, ४-६ अनुष्टुभः, ३ गायत्री, ७ ककुम्मतीगर्भोपरिष्टद बृहती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Throw off the Enemies

    Meaning

    Control, discipline, law, this is Sanyama. The opposite of Sanyama is neither control, nor discipline, nor law. Control of violence is the gift of Indra, power. Freedom is the gift of Soma, peace. Discipline and law is the condition of freedom. And such freedom-and-law is the gift of Atharvan, power and peace at the optimum: ‘equilibrium, the tiger at peace under law’.

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    Translation

    What can be captured, should not be driven away. Only that should be driven away which cannot be captured. This is the way of destroying tigers initiated by the resplendent one, the blissful one and the fire-producer (atharvana).

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    Translation

    He who is once bound should not be made unbound. If, bound one becomes unbound his binding is meaningless. These are two methods of overpowering creatures—Indraja, the overcoming by might and Somaja, the overpowering through the provision of grain etc. The third one is the Atharvana method of overcoming the tiger which involves mild and nonviolent treatment.

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    Translation

    The law declared by God or the sages as true, cannot be untrue, and the law proclaimed by them as untrue cannot be true. O man, the power thou possessest for overcoming moral foes and impediments halt come unto thee from God.

    Footnote

    Atharvan means God who is Non-violent.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यत्) यस्मात् कारणात् (संयमः) सम्यङ् नियमः सुनियमः प्रबन्धः (वि यमः) विरुद्धनियमः (इन्द्रजाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति इन्द्र+जनी प्रादुर्भावे-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्वम्। इन्द्रात् परमेश्वराज्जातः प्रादुर्भूतः (सोमजाः) पूर्ववद् विट् प्रत्यये सिद्धिः। षुञ् अभिषवे, यद्वा षू प्रेरणे-मन्। सोमेभ्यो मन्थनशीलेभ्यः सर्वप्रेरकेभ्यो वा पुरुषेभ्यः प्रकाशितः (आथर्वणम्) अथर्वा, इति व्याख्यातः-अ० ४।१।७। तत आगतः। पा० ४।३।७४। इति अथर्वन्-अण्। अन्। पा० ६।४।१६७। इति अणि प्रकृतिभावः। अथर्वणो निश्चलात् मङ्गलप्रदाद् वा परमेश्वराद् आगतं प्राप्तम् (असि) हे मनुष्यत्वं भवसि (व्याघ्रजम्भनम्) व्याघ्रस्वभावानां हिंसकानां शत्रूणां नाशसामर्थ्यम् ॥

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