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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
    113

    दे॒वा वा ए॒तस्या॑मवदन्त॒ पूर्वे॑ सप्तऋ॒षय॒स्तप॑सा॒ ये नि॑षे॒दुः। भी॒मा जा॒या ब्रा॑ह्म॒णस्योप॑नीता दु॒र्धां द॑धाति पर॒मे व्यो॑मन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । वै । ए॒तस्या॑म् ।अ॒व॒द॒न्त॒ । पूर्वे॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । तप॑सा । ये । नि॒ऽसे॒दु: । भी॒मा । जा॒या । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । अप॑ऽनीता । दु॒:ऽधाम् । द॒धा॒ति॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा वा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसा ये निषेदुः। भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । वै । एतस्याम् ।अवदन्त । पूर्वे । सप्तऽऋषय: । तपसा । ये । निऽसेदु: । भीमा । जाया । ब्राह्मणस्य । अपऽनीता । दु:ऽधाम् । दधाति । परमे । विऽओमन् ॥१७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (पूर्वे) पूर्व काल में (देवाः) वे दिव्य गुणवाले महात्मा (वै) निश्चय करके (एतस्याम्) इस [ब्रह्मविद्या] के विषय में (अवदन्त) बोले, (ये) जो (सप्त ऋषयः) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] के द्वारा देखनेवाले (तपसा) तपके साथ (निषेदुः) बैठे थे। (अपनीता) कुनीति वा खण्डन को प्राप्त हुई (ब्राह्मणस्य) वेदाधिपति परमेश्वर की (जाया) विद्या (भीमा) भयङ्कर होकर (परमे) सब से श्रेष्ठ (ज्योमन्) रक्षणीय स्थान में (दुर्धाम्) दुष्टव्यवस्था (दधाति) जमाती है ॥६॥

    भावार्थ

    महात्माओं ने पूर्ण शक्ति से परीक्षा करके साक्षात् किया है, कि जहाँ पर वेदविद्या को निरादर और कुव्यवहार का आदर होता है, वहाँ अवश्य ही विपत्ति पड़ती है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(देवाः) दिव्यगुणा विद्वांसः (वै) निश्चयेन (एतस्याम्) ब्रह्मविद्यायाम् (अवदन्त) अवदन्। अवोचन् (पूर्वे) पूर्वस्मिन् काले (सप्त ऋषयः) अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः पडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी−निरु०। १२।३७। ऋषिर्दर्शनात्−१।२०। सप्तभिस्त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिभिः दर्शकाः (तपसा) तपश्चरणेन (ये) देवाः (निषेदुः) निषण्णा बभूव (भीमाः) भयङ्करा सती (जाया) म० २। जायतिर्गतिकर्मा−निघ० २।१४। जायति जानाति यया सा। विद्या (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मन्−अण्। वेदाधिपतेः परमेश्वरस्य (अपनीता) अपनीतिं कुनीतिं खण्डनं वा गता (दुर्धाम्) दुर्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−अङ्, टाप्। कष्टेन धरणीयाम्। दुर्व्यवस्थाम् (दधाति) धरति। स्थापयति (परमे) उत्तमे (व्योमन्) वि+अव−मनिन्। सप्तमीलोपः। व्यवने−निरु० ११।४०। विविधं रक्षणीये स्थाने ॥

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    विषय

    वेदवाणी के निरादर का परिणाम

    पदार्थ

    १. (एतस्याम्) = गतमन्त्र में वर्णित इस ब्रह्मजाया के विषय में (पूर्वे देवा:) = पालन व पूरण करनेवाले देववृत्ति के व्यक्ति (वा) = निश्चय से (अवदन्त) = ज्ञान देनेवाले होते हैं। शरीर में स्थित (सप्तऋषयः) = कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्-दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो ऑखें व मुखरूप सात ऋषि (ये) = जोकि (तपसा निषेदुः) = तपस्या के साथ निषण्ण होते हैं, अर्थात् जो विषय-प्रवण नहीं होते, वे इस वेदवाणी के विषय में बात करते हैं। माता-पिता व ज्ञानी आचार्य देव हैं, हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ सप्तऋषि हैं। ये मिलकर ब्रह्मजाया वेदवाणी के विषय में चर्चा करते हैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य में तो यह ज्ञानचर्चा होती ही है, गृहस्थ में भी यह वेदवाणी की चर्चा समाप्त नहीं हो जाती। २. (ब्राह्मणस्य) = उस ज्ञानी प्रभु की (अपनीता) = दूर की हुई यह (जाया) = पत्नीरूप वेदवाणी (भीमा) = भयंकर होती है। जिस घर में से इसका अपनयन [दूरीकरण] हो जाता है, तो वहाँ परमे (व्योमन्) = उस घर के व्यक्तियों के हृदय-आकाश में यह [परमव्योम-हृदय] (दुर्धा दधाति) = बुराइयों को स्थापित करती है। स्वाध्याय के अभाव में हृदय में अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं।

    भावार्थ

    माता-पिता व आचार्य आदि देव तथा हमारे शरीरस्थ आँख, कान, मुख आदि सप्तर्षि वेदवाणी का ही चर्वण करें। यह देववाणी ब्रह्मजाया है, जिस घर में इसका निरादर होता है, वहाँ लोगों के हृदयाकाश अशुभ व मलिन विचारों के धूम से आकुल हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (पूर्वे) पूर्वकाल अर्थात् प्रथमकाल के (देवाः) देवों ने अर्थात् (सप्तऋषयः) सात ऋषियों ने (ये) जोकि (तपसा) तपश्चर्या के साथ (निषेदुः) समाधि में स्थित हुए थे, (वै) निश्चय से (अवदन्त) कहा कि ( अपनीता ) अपकृष्ट गुणोंवाले व्यक्ति द्वारा ली जाई गई (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की (जाया) होनेवाली जाया (भीमा) भयावह है, वह (परमे व्योमन्) परमरक्षक राष्ट्र में (दुर्धाम्) धारण-पोषण करने में दुर्व्यवस्था को ( दधाति ) स्थापित करती है, राष्ट्र में विप्लव पैदा कर देती है ।

    टिप्पणी

    [प्रथमकाल के कथानक देव [मन्त्र १]। सप्तऋषयः= द्युलोकस्थ सप्तर्षिमण्डल, जिसमें कि ताप और प्रकाश के सहित मानो कि सात ऋषि समाधि में बैठे हुए हैं। वे हैं मरीचि, अत्रि, अङ्गिराः, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ। इस मण्डल को "ऋक्षाः" तथा "Ursa major" भी कहते हैं। कविता में इन्हें चेतन माना है, तभी "अवदन्त" का प्रयोग हुआ है।

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    विषय

    ब्रह्मजाया या ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (एतस्याम्) इस राष्ट्र-सभा में (सप्त देवाः पूर्वे ऋषयः अवदन्त) सात देव अर्थात् पूर्ण ऋषि लोग संशयित विषयों पर वाद-विवाद करते हैं, (तपसा ये निषेदुः) तप की महिमा के कारण जो इस राष्ट्र-सभा में बैठते हैं। उन्होंने यह फैसला किया है कि (ब्राह्मणस्य जाया अपनीता भीमा) ब्राह्मण की जाया रूप पृथिवी या राष्ट्र-सभा उससे छीनी जाकर भयानक होजाती है, (दुर्धां दधाति परमे व्योमन्) और वह राष्ट्र के महाकाश में दुःस्थिति उत्पन्न कर देती है। मनुस्मृति अध्याय १२ में दशावरा परिषद् का वर्णन है। ऋषि दयानन्दजी महाराज ने सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास में लिखा है कि “इस सभा में चारों वेद, न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों और वह सभा हो जिसमें कि १० विद्वानों से न्यून सभासद् न होने चाहियें।” मनु से प्रतीत होता है कि सभा में ७ विद्वान् तो भिन्न २ विषयों के जानने वाले होने चाहियें और शेष तीन सभासद् प्रथम तीन आश्रमों के आश्रमी होने चाहियें। भिन्न २ विषयों के विद्वानों को इस मन्त्र में ७ ऋषि कहा गया प्रतीत होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मजाया देवताः। १-६ त्रिष्टुभः। ७-१८ अनुष्टुभः। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma-Jaya: Divine Word

    Meaning

    The divinities of eternal time and seven ancient sages who sit down for tapas and cosmic yajna speak of this Voice of Divinity and communicate it. Mighty, even dreadful, is this voice of Brahma, now residing at heart with the Brahmana, the sagely scholar, and if it is abducted and exploited by clever people, it destroys even the best system of human governance. This mighty voice, Brahma holds in the highest heaven and the sage serves in his highest spirit and intelligence.

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    Translation

    The enlightened ones of old have said about her, even the seven sages, who sit for austere penance terriblé is an intellectual's wife abducted away. She causes discomfort even in the highest places.

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    Translation

    The learned men of complete dexterity and the seers who are present amongst us with great austerity declare in this matter that the wife of Brahmana abducted becomes very dreadful and she creates confusion in the wide range of Kingdom.

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    Translation

    In ancient times the sages who practised penance through seven vital forces, verily thus declared about this divine Vedic knowledge. 'Dreadful is the result of neglecting divine knowledge, which causes confusion and calamity, where its teachings are violated.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(देवाः) दिव्यगुणा विद्वांसः (वै) निश्चयेन (एतस्याम्) ब्रह्मविद्यायाम् (अवदन्त) अवदन्। अवोचन् (पूर्वे) पूर्वस्मिन् काले (सप्त ऋषयः) अ० ४।११।९। सप्त ऋषयः पडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी−निरु०। १२।३७। ऋषिर्दर्शनात्−१।२०। सप्तभिस्त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धिभिः दर्शकाः (तपसा) तपश्चरणेन (ये) देवाः (निषेदुः) निषण्णा बभूव (भीमाः) भयङ्करा सती (जाया) म० २। जायतिर्गतिकर्मा−निघ० २।१४। जायति जानाति यया सा। विद्या (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मन्−अण्। वेदाधिपतेः परमेश्वरस्य (अपनीता) अपनीतिं कुनीतिं खण्डनं वा गता (दुर्धाम्) दुर्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−अङ्, टाप्। कष्टेन धरणीयाम्। दुर्व्यवस्थाम् (दधाति) धरति। स्थापयति (परमे) उत्तमे (व्योमन्) वि+अव−मनिन्। सप्तमीलोपः। व्यवने−निरु० ११।४०। विविधं रक्षणीये स्थाने ॥

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