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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
    182

    उ॒त यत्पत॑यो॒ दश॑ स्त्रि॒याः पूर्वे॒ अब्रा॑ह्मणाः। ब्र॒ह्मा चे॒द्धस्त॒मग्र॑ही॒त्स ए॒व पति॑रेक॒धा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । यत् । पत॑य: । दश॑ । स्त्रि॒या: । पूर्वे॑ । अब्रा॑ह्मणा: । ब्र॒ह्मा । च॒ । इत् । हस्त॑म् । अग्र॑हीत् । स: । ए॒व । पति॑: । ए॒क॒ऽधा॥१७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत यत्पतयो दश स्त्रियाः पूर्वे अब्राह्मणाः। ब्रह्मा चेद्धस्तमग्रहीत्स एव पतिरेकधा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । यत् । पतय: । दश । स्त्रिया: । पूर्वे । अब्राह्मणा: । ब्रह्मा । च । इत् । हस्तम् । अग्रहीत् । स: । एव । पति: । एकऽधा॥१७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (उत्) और (यत्) जो (स्त्रियाः) शब्दकारिणी विद्या के (दश) दस (पतयः) रक्षक (पूर्वे) सब (अब्राह्मणाः) ब्राह्मण से भिन्न होवें (च) और [जो] (ब्रह्मा) ब्रह्मा, ब्रह्मज्ञानी ने (इत्) ही (हस्तम्) हाथ (अग्रहीत्) पकड़ा, (सः एव) वही (एकधा) मुख्य प्रकार से (पतिः) रक्षक है ॥८॥

    भावार्थ

    अविद्वान् लोग दस वा अधिक मिलकर वेदविद्या की रक्षा नहीं कर सकते, ब्रह्मज्ञानी अकेला ही उसकी रक्षा कर सकता है ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(उत्) अपि च (यत्) (पतयः) रक्षकाः (दश) दशसंख्याकाः (स्त्रियाः) स्त्यायतेर्ड्रट्। उ० ४।१६६। इति ष्ट्यै स्त्यै शब्दसंघातयोः−ड्रट्, ङीप् यलोपः। स्त्यायति शब्दयति सा स्त्री तस्याः विद्यायाः (पूर्वे) समस्ताः (अब्राह्मणाः) ब्राह्मणेन वेदज्ञेन भिन्नाः (ब्रह्मा) वृद्धिशीलो ब्रह्मवेत्ता (च) (इत्) एव (हस्तम्) वशम् (अग्रहीत्) आनीतवान् (सः) ब्रह्मा (एव) अवधारणे (पतिः) रक्षकः (एकधा) मुख्य प्रकारेण ॥

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    विषय

    वेदवाणी का रक्षक 'ब्रह्मा'

    पदार्थ

    १. (उत) = चाहे (स्त्रिया:) = [स्त्यै शब्दे] इस शब्दात्मक वेदवाणीरूप ब्रह्मजाया के (यत्) = जो (पूर्वे) = पहले (दश) = दस भी (अब्राह्मणा:) = अज्ञानी (पतयः) = रक्षक हो, (चेत्) = यदि (ब्रह्मा) = ज्ञानी (हस्तम् अग्रहीत्) = इस वेदवाणी के हाथ को ग्रहण करता है तो (सः एव) = वही (एकधा) = मुख्यरूप से (पति:) = इसका रक्षक है। २. वेदवाणी के दस भी रक्षक यदि वे ज्ञानी नहीं है, तो इसका रक्षण इसप्रकार से नहीं कर सकते, जैसेकि एक ज्ञानी इसकी रक्षा करता है। वे अज्ञानी प्रथम तो इसका अध्ययन न करके इसपर पत्र-पुष्प ही चढ़ाते रहेंगे। पढेंगे भी तो ऊटपटौंग अर्थ कर बैठेंगे, अत: वेदवाणी का रक्षक तो वस्तुत: ज्ञानी ही है। अल्पश्रुत [अब्राह्मण]से तो यह वेदवाणी डरती ही है। ('बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।')

    भावार्थ

    वेदवाणी का रक्षण यही है कि हम ज्ञानी बनकर समझदारी से इसका अध्ययन करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (उत) तथा (स्त्रियाः) ब्रह्मजाया के, (पूर्व) पहिले के (अब्राह्मणाः) अब्रह्मज्ञ और अवेदज्ञ (यत्) जो (दश पतयः) दस पति अर्थात् रक्षक भी हों परन्तु (चेत्) यदि (ब्रह्मा) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ व्यक्ति ( हस्तम्, अग्रहीत् ) पाणिग्रहण कर लेता है तो (सः एव) वह ही, (एकधा ) एक प्रकार का (पतिः) विवाहित पति होता है।

    टिप्पणी

    [दशपतयः= दस रक्षक [पा रक्षणे], या दस प्रस्तावित पति, परन्तु योग्य न होने के कारण जो ब्रह्मजाया को अवाञ्छनीय हैं। ब्रह्मजाया यदि रक्षक सम्बन्धियों से रहित है तो राज द्वारा उसके रक्षक नियत कर दिये जाएँ, जब तक कि उसका विवाह नहीं होता।]

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    विषय

    ब्रह्मजाया या ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (उत यत् पतयः दश स्त्रियाः पूर्वे अब्राह्मणाः) स्त्री रूप पृथिवी या राष्ट्र-सभा के पति अर्थात् रक्षक अधिकारी पहिले चाहें दस व्यक्ति हों भी, जो कि ब्राह्मण नहीं हैं, तो भी (ब्रह्मा चेत् हस्तामग्रहीत् स एव पतिरेकधा) जब योग्य ब्राह्मण कोई एक भी मिल जाय तो उसे ही इस पृथिवी का या राष्ट्र-सभा का वास्तविक पति अर्थात् रक्षक समझ लेना चाहिये।

    टिप्पणी

    मनु अध्याय १२ में लिखा है कि “एकोऽपि वेद विद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः। स विज्ञेयः परो धर्मः नाज्ञानामुदितौ शतैः॥” इस पर ऋषि दयानन्दजी महाराज लिखते हैं “यदि एक अकेला भी सब वेदों का जानने हारा, द्विजों में उत्तम ‘संन्यासी’ जिस धर्म की व्यवस्था करे वही श्रेष्ठ धर्म जानना चाहिये, सहस्रों, लाखों, करोड़ों अज्ञानी मिलकर जो व्यवस्था करें उसको कभी न मानना चाहिये।” दशावरा परिषत् में कम से कम १० सभासद् चाहियें। यदि ये सभासद् सच्चे ब्राह्मण न हों, और किसी योग्य ब्राह्मण के न मिलने पर ये ही कुछ काल के लिये व्यवस्थापक नियत किये गये हों तो भी जब कभी भी कोई एक भी सच्चा ब्राह्मण मिल जाय तो उन दस व्यक्तियों के स्थान में इसी एक सच्चे ब्राह्मण को ही व्यवस्थापक नियत कर देना चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मजाया देवताः। १-६ त्रिष्टुभः। ७-१८ अनुष्टुभः। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma-Jaya: Divine Word

    Meaning

    Where ten self-proclaimed guardians of Brahma Jaya, all impostors at heart, claim dominion over the divine trust of nature and humanity against one real enlightened sage dedicated to Brahma and the wisdom of eternity, the one deserves to hold the trust in hand with sole authority.

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    Translation

    Even if there have been ten non-intellectual (abrähmamāh) husbands of a ‘women previously, and latter an intellectual seizes her hand, then he alone is her husband.

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    Translation

    If in the process of negotiating betrothal there are first ten suitors of the non Brahmona varna for a woman (the marriageable girl), all of them loose their claims of marriage and, only Brhamana, the learned one, if grasps her hand would be her husband and only he.

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    Translation

    Even if ten former guardians, none of whom is a Brahmin, Cause of Vedic knowledge, they are no match for a Brahman, who takes into his hand the task of propagating her. He alone is her true guardian.

    Footnote

    ‘Her’ refers to Vedic knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(उत्) अपि च (यत्) (पतयः) रक्षकाः (दश) दशसंख्याकाः (स्त्रियाः) स्त्यायतेर्ड्रट्। उ० ४।१६६। इति ष्ट्यै स्त्यै शब्दसंघातयोः−ड्रट्, ङीप् यलोपः। स्त्यायति शब्दयति सा स्त्री तस्याः विद्यायाः (पूर्वे) समस्ताः (अब्राह्मणाः) ब्राह्मणेन वेदज्ञेन भिन्नाः (ब्रह्मा) वृद्धिशीलो ब्रह्मवेत्ता (च) (इत्) एव (हस्तम्) वशम् (अग्रहीत्) आनीतवान् (सः) ब्रह्मा (एव) अवधारणे (पतिः) रक्षकः (एकधा) मुख्य प्रकारेण ॥

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