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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - परसेनाहननम्, इन्द्रः, वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
    50

    ग॑न्धर्वाप्स॒रसः॑ स॒र्पान्दे॒वान्पु॑ण्यज॒नान्पि॒तॄन्। दृ॒ष्टान॒दृष्टा॑निष्णामि॒ यथा॒ सेना॑म॒मूं हन॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रस॑: । स॒र्पान् । दे॒वान् । पु॒ण्य॒ऽज॒नान् । पि॒तृन् । दृ॒ष्टान् । अ॒दृष्टा॑न् । इ॒ष्णा॒मि॒ । यथा॑ । सेना॑म् । अ॒मूम् । हन॑न् ॥८.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गन्धर्वाप्सरसः सर्पान्देवान्पुण्यजनान्पितॄन्। दृष्टानदृष्टानिष्णामि यथा सेनाममूं हनन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गन्धर्वऽअप्सरस: । सर्पान् । देवान् । पुण्यऽजनान् । पितृन् । दृष्टान् । अदृष्टान् । इष्णामि । यथा । सेनाम् । अमूम् । हनन् ॥८.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 8; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्वों [पृथिवी के धारण करनेवालों] और अप्सरों [आकाश में चलनेवालों], (सर्पान्) सर्पों [के समान तीव्र दृष्टिवालों], (देवान्) विजय चाहनेवालों, (पुण्यजनान्) पुण्यात्मा (पितॄन्) पितरों [महाविद्वानों] (दृष्टान्) देखे हुए और (अदृष्टान्) अनदेखे पदार्थों को (इष्णामि) मैं प्राप्त करता हूँ, (यथा) जिससे वे सब (अमूम् सेनाम्) उस सेना को (हनन्) मारें ॥१५॥

    भावार्थ

    राजा विवेकी, दूरदर्शी, शूर, सत्यवादी पुरुषों और गोचर और अगोचर पदार्थों को एकत्र करके शत्रुनाश करे ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(गन्धर्वाप्सरसः) अ० ४।३७।२। पृथिवीधारकान् आकाशे गमनशीलांश्च विवेकिनः (सर्पान्) सर्पवत्तीव्रदृष्टीन् (देवान्) विजिगीषून् (पुण्यजनान्) शुद्धाचारिणः (पितॄन्) महाविदुषः (दृष्टान्) गोचरान् (अदृष्टान्) अगोचरान्। अन्यत्पूर्ववत्-म० १४ ॥

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    विषय

    गन्धर्व, अप्सरस, सर्प, देव, पुण्यजन, पितर

    पदार्थ

    १. (गन्धर्वान्) = [गां धारयन्ति] पृथिवी का धारण करनेवाले 'पदातियों, रथियों व घुड़सवारों' को (अप्सरस:) = जल में विचारनेवाले नौसैनिकों [Navy] को, (सर्पान्) = भूमि पर पेट के बल आगे बढ़नेवाले सैनिकों को, (देवान्) = विजिगीषुओं को, (पुण्यजनान्) = धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को, (पितृन्) = प्रेरणा देनेवाले पितरों को (दृष्टान्) = देखे हुए, अर्थात् परीक्षित रणकुशल पुरुषों को तथा (अदृष्टान्) = अपरीक्षित नव सैनिकों को भी (इष्णामि) = इसप्रकार प्रेरित करता हूँ, (यथा) = जिससे (अमूं सेनाम्) = उस शत्रुसैन्य को ये सब (हनन्) = मारनेवाले हों।

    भावार्थ

    मैं जल, थल के सभी सैनिकों को इसप्रकार प्रेरित करता हूँ, जिससे वे शत्रुसैन्य का विध्वंस करनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (गन्धर्वान्१ अप्सरसः) गानविद्याविज्ञ गायकों और उनकी गायिका पत्नियों (सर्पान्) सर्पों (देवान्) देवों (पुण्यजनान्) पुण्यात्माओं (पितॄन्) बुजुर्गों (दृष्टान-दृष्टान्) जो कि ज्ञात२ और अज्ञात हैं उन्हें (इष्णामि) में बार-बार भेजता हूं, (यथा) ताकि वे (अमूं सेनाम्) उन बन्दीकृत सैनिकों को (हनन्) मार डालें।

    टिप्पणी

    [गायकों और गायिकाओं का प्रेषण सैनिकों के मनोविनोद के लिये है। पुण्यात्मजन और बुजुर्ग बहुरूपिये है, वास्तविक नहीं। ये सर्पसदृश हैं, जो कि गुप्तरूप में विषप्रयोग करते रहेंगे। वास्तविक पुण्यात्मा सर्पकृत्य नहीं कर सकते और न बुजुर्ग ही। बहुरूपियों को और गायक-गायिकाओं को समय-समय पर भेजते रहना चाहिये ताकि वन्दीकृत सैनिकों में इनके प्रति विश्वास और श्रद्धा पैदा हो जाय, और इन द्वारा किये गए सर्पकृत्यों में वे शङ्कास्पद न हों, और शनैः-शनैः मृत्यु को प्राप्त होते जांय]। [१. गान्धर्ववेद सामवेद का उपवेद है, जिसमें गायन विद्या का वर्णन है। २. ऐसे अन्य बहुरूपिए जो कि गुप्तरूप से सर्पकृत्य कर सकें।]

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    विषय

    शत्रुनाशक उपाय।

    भावार्थ

    (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्व अर्थात् पुरुषों को अप्सरस् अर्थात् स्त्रियों को (सर्पान्) सांपों और सर्प स्वभाव के लोगों को (पुण्यजनान्) पुण्यात्मा लोगों और (पितृन्) पालक, वृद्ध पुरुषों को (दृष्टान्) देखे, परिचित और (अदृष्टान्) बिना देखे, अपरिचित लोगों को भी मैं (इष्णामि) इस प्रकार से प्रेरित करूं (यथा) जिस प्रकार (अमूम्) उस शत्रूभूत, अपने से दूरस्थ (सेनाम्) सेना को (हनन्) विनाश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। इन्द्रः वनस्पतिः सेना हननश्च देवताः। १, ३, ५, १३,१८, २,८-१०,२३। उपरिष्टाद् बृहती। ३ विराट् बृहती। ४ बृहती पुरस्तात् प्रस्तारपंक्तिः। ६ आस्तारपंक्तिः। ७ विपरीतपादलक्ष्मा चतुष्पदा अतिजगती। ११ पथ्या बृहती। १२ भुरिक्। १९ विराट् पुरस्ताद बृहती। २० निचृत् पुरस्ताद बृहती। २१ त्रिष्टुप्। २२ चतुष्पदा शक्वरी। २४ त्र्यवसाना उष्णिग्गर्भा त्रिष्टुप शक्वरी पञ्चपदा जगती। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Enemies’ Rout

    Meaning

    I love, develop and employ all those that serve and sustain the fertility of the earth, all streams and rivers, all that creep and move, divine generosities of nature and humanity, all charitable people and seniors, in short all that is seen and unseen assets and powers of the nation, so that I may destroy the negative and destructive forces.

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    Translation

    The sustainer of the earth (gandharvas), and those, who move in the clouds (apsaras), the serpents, the enlightened ones, pious persons, and the elders, seen and unseen - all of them I despatch, so that they may strike the yonder army dead.

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    Translation

    I desire to employ in work on learned men, women, reptiles, mighty persons or physical objects of power, pious persons, experienced and practical elders, the acquainted and unacquainted men in such a way that they may be able to strike that army dead.

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    Translation

    Patriots, aeronauts soldiers keen-sighted like serpents, victory-minded noble, learned, seen and unseen warriors, I send them forth that they may strike the army of the enemy dead.

    Footnote

    Seen and unseen: A king is not expected to know each and every soldier of his army. He knows some of them and some he has not seen.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(गन्धर्वाप्सरसः) अ० ४।३७।२। पृथिवीधारकान् आकाशे गमनशीलांश्च विवेकिनः (सर्पान्) सर्पवत्तीव्रदृष्टीन् (देवान्) विजिगीषून् (पुण्यजनान्) शुद्धाचारिणः (पितॄन्) महाविदुषः (दृष्टान्) गोचरान् (अदृष्टान्) अगोचरान्। अन्यत्पूर्ववत्-म० १४ ॥

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