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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - जगती सूक्तम् - विराट् सूक्त
    69

    इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा। म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । ए॒व । सा । या । प्र॒थ॒मा । वि॒ऽऔच्छ॑त् । आ॒सु । इत॑रासु । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्टा । म॒हान्त॑: । अ॒स्या॒म् । म॒हि॒मान॑: । अ॒न्त: । व॒धू: । जि॒गा॒य॒ । न॒व॒ऽगत् । जनि॑त्री ॥९.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा। महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । एव । सा । या । प्रथमा । विऽऔच्छत् । आसु । इतरासु । चरति । प्रऽविष्टा । महान्त: । अस्याम् । महिमान: । अन्त: । वधू: । जिगाय । नवऽगत् । जनित्री ॥९.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (इयम् एव) यही (सा) यह ईश्वरी, [विराट्, ईश्वरशक्ति] है, (या) जो (प्रथमा) प्रथम (व्यौच्छत्) प्रकाशमान हुई है, और (आसु) इन सब और (इतरासु) दूसरी [सृष्टियों] में (प्रविष्टा) प्रविष्ट होकर (चरति) विचरती है। (अस्याम् अन्तः) इसके भीतर (महान्तः) बड़ी-बड़ी (महिमानः) महिमाएँ हैं, उस (नवगत्) नवीन-नवीन गतिवाली (वधूः) प्राप्तियोग्य (जनित्री) जननी ने [अनर्थों को] (जिगाय) जीत लिया है ॥११॥

    भावार्थ

    ईश्वरशक्ति की महिमाओं को अनुभव करके विद्वान् लोग विघ्नों का नाश करते हैं ॥११॥ यह मन्त्र आचुका है-अ० ३।१०।४ ॥

    टिप्पणी

    ११−(इयम्) परिदृश्यमाना विराट् (एव) (सा) ईश्वरी (या) विराट्। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ३।१०।४ ॥

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    विषय

    प्रथमा जनित्री वेदवाणी

    पदार्थ

    १. (इयं एव सा) = यही वह वेदवाणी है [विराट् है], (या) = जो (प्रथमा) = सर्वप्रथम-सृष्टि के आरम्भ में (व्यौच्छत्) = सब अज्ञानान्धकार का विवासन [निराकरण] करती है। (आसु) = इन (इतरास) = सृष्टि के प्रारम्भ के बाद तत्त्वद्रष्टाओं से प्रतिपाद्य ज्ञान की वाणियों में (प्रविष्टा) = प्रविष्ट हुई-हुई यह वेदवाणी ही (चराति) = गतिवाली होती है। इन तत्त्वद्रष्टा पुरुषों की स्मृतियाँ श्रुतिमूलक ही होती है। २. (अस्या अन्त:) = इस वेदवाणी में (महान्त: महिमान:) = महान् दीप्तियाँ व शक्तियाँ [glory. might, power] हैं। (वधूः) = वहन [धारण] करने योग्य यह वेदवाणी (जिगाय) = सब शत्रुओं पर विजय करती है-अन्धकार को दूर करके राक्षसी वृत्तियों का विनाश करती है। (नवगत्) = यह उस स्तुत्य प्रभु की ओर हमें ले-चलनेवाली है और (जनित्री) = सब सद्गुणों का हममें प्रादुर्भाव करनेवाली है।

    भावार्थ

    यह श्रुति [वेदवाणी] ही सर्वप्रथम हमारे अज्ञान को दूर करती है। श्रतिमूलक स्मृतियाँ ही प्रामाणिक होती हैं। यह अति 'शक्ति व दीप्सि' से हमें परिपूर्ण करती है। यह हमारे शत्रुओं का विनाश करती हुई सद्गुणों को हममें भरती है।

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    भाषार्थ

    (इयम्) यह परमेश्वर-माता (एव) ही (सा या) वह है जोकि (प्रथमा) सर्वप्रथम (व्यौच्छत्) चमकी थी, और यह ही (आसु इतरासु) इन तद्भिन्न उषाओं में (प्रविष्टा) प्रविष्ट हुई (चरति) विचर रही है। (अस्याम्, अन्तः) इस परमेश्वर-माता में (महान्तः महिमानः) महामहिमाएं हैं (जिगाय) इस ने सब पर विजय पाई हुई है, जैसे कि (नवगत् जनित्री) पतिगृह में नई-नई गयी और जन्मदात्री माता हुई (वधू) वधू [पतिगृह पर विजय पा लेती है]।

    टिप्पणी

    [वधू पतिगृह में जा कर यदि सन्तानोत्पादन करती है तो वह पतिगृह की वंशवृद्धि कर पतिगृह में मान पाती है, यह पतिगृह पर विजय पाना है। बन्ध्यावधू पतिगृह में मान नहीं पाती]।

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    विषय

    सर्वोत्पादक, सर्वाश्रय परम शक्ति ‘विराट’।

    भावार्थ

    (इयम्) यह (एव) ही (सा) वह विराट् है जो (प्रथमा) सबसे पहले विद्यमान रहकर (वि औच्छत्) नाना प्रकार से अपने को प्रकट करती है। और (आसु) इन (इतरासु) अन्य विकृतियों में (प्रविष्टा) प्रविष्ट होकर (चरति) परिणाम को प्राप्त होती है। (अस्यां) इस विराट् में (महान्तः महिमानः) बड़े बड़े सामर्थ्य हैं। वह ही (जनित्री) सब जगत् को उत्पन्न करनेहारी प्रकृति (नवगत्) नवागता, नवविवाहिता, नवोढा (वधूः) वधू जिस प्रकार अपने पति के अन्तःकरण को जीत लेती है उसी प्रकार वह परम पुरुष के परम अन्तःकरण रूप सामर्थ्य को (जिगाय*) जीत लेती है, अपने भीतर ले लेती है।

    टिप्पणी

    *जि ज्रि अभिभवे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा काश्यपः सर्वे वा ऋषयो ऋषयः। विराट् देवता। ब्रह्मोद्यम्। १, ६, ७, १०, १३, १५, २२, २४, २६ त्रिष्टुभः। २ पंक्तिः। ३ आस्तारपंक्तिः। ४, ५, २३, २४ अनुष्टुभौ। ८, ११, १२, २२ जगत्यौ। ९ भुरिक्। १४ चतुष्पदा जगती। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    This Virat is that divine consortive power and presence which first arises as the dawn of creation and, pervading everything far and near, vibrates in them all. Greatest of the great abide within it and, like a new bride, ever fresh and new, it captivates and, as mother, wins over all that is.

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    Translation

    She is the very same who shone out first of all. She moves about having entered into all these others. Tremendous majesties are within her. Like a bride, newly becoming mother, she overcomes.

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    Translation

    She is that first who first of all spread out her luster and moves through her essence in all the objects of the world created thereof. This virat possesses exalted powers in her and like a newly married bride, this mother of the world prevails in all the world.

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    Translation

    This Matter first of all sent forth her luster. She moves on assuming the shape of these and other worlds. Exalted power and might are storedwithin her. Just as a girl newly made mother wins the heart of her husband,so does Matter captivate all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(इयम्) परिदृश्यमाना विराट् (एव) (सा) ईश्वरी (या) विराट्। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ३।१०।४ ॥

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