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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 15
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त
    57

    पञ्च॒ व्युष्टी॒रनु॒ पञ्च॒ दोहा॒ गां पञ्च॑नाम्नीमृ॒तवोऽनु॒ पञ्च॑। पञ्च॒ दिशः॑ पञ्चद॒शेन॒ क्लृप्तास्ता एक॑मूर्ध्नीर॒भि लो॒कमेक॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पञ्च॑ । विऽउ॑ष्टी: । अनु॑ । पञ्च॑ । दोहा॑: । गाम् । पञ्च॑ऽनाम्नीम् । ऋ॒तव॑: । अनु॑ । पञ्च॑ । पञ्च॑ । दिश॑: । प॒ञ्च॒ऽद॒शेन॑ । क्लृ॒प्ता: । ता: । एक॑ऽमूर्ध्नी: । अ॒भि । लो॒कम् । एक॑म् ॥९.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च। पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्तास्ता एकमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्च । विऽउष्टी: । अनु । पञ्च । दोहा: । गाम् । पञ्चऽनाम्नीम् । ऋतव: । अनु । पञ्च । पञ्च । दिश: । पञ्चऽदशेन । क्लृप्ता: । ता: । एकऽमूर्ध्नी: । अभि । लोकम् । एकम् ॥९.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (पञ्च) पाँच (व्युष्टीः) विविध प्रकार वास करनेवाली [तन्मात्राओं] के (अनु) साथ-साथ (पञ्च) पाँच [पृथिवी आदि पाँच भूत सम्बन्धी] (दोहाः) पूर्तिवाले पदार्थ हैं, (पञ्चनाम्नीम्) पूर्व आदि पाँच नामवाली, यद्वा पाँच ओर झुकनेवाली (गाम् अनु) दिशा के साथ-साथ (पञ्च) पाँच, (ऋतवः) ऋतुएँ हैं [अर्थात् शरद्, हेमन्त, शिशिर सहित, वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा]। (पञ्च) पाँच [पूर्वादि चार और एक ऊपरवाली] (दिशः) दिशाएँ (पञ्चदशेन) [पाँच प्राण अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान+पाँच इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण+पाँच भूत अर्थात् भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन] पन्द्रह पदार्थवाले जीवात्मा के साथ (क्लृप्ताः) समर्थ की गई हैं, (ताः) वे (एकमूर्ध्नीः) एक [परमेश्वर रूप] मस्तकवाली [दिशायें] (एकम्) एक (लोकम् अभि) देश की ओर [वर्तमान हैं] ॥१५॥

    भावार्थ

    उसी परमात्मा की शक्ति से पञ्चभूत, ऋतुएँ और दिशाएँ आदि जीवों के सुख के लिये उत्पन्न हुए हैं ॥१५॥ पाँच ऋतुओं के लिये देखो-अ० ८।२।२२ और निरु० ४।२७ ॥

    टिप्पणी

    १५−(पञ्च) पञ्चसंख्याकाः (व्युष्टीः) म० १०। वि+वस निवासे-क्तिन्। विविधनिवासशीलाः। तन्मात्राः (अनु) अनुसृत्य (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतसम्बन्धिनः (दोहाः) पूरिताः पदार्थाः (गाम्) दिशाम् (पञ्चनाम्नीम्) पूर्वादिचतस्र उच्चस्था चैका, ताभिः सह नामयुक्ताम्। यद्वा पञ्चदिक्षु नमनशीलाम् (ऋतवः) वसन्तादयः (अनु) अनुलक्ष्य (पञ्च) अ० ८।२।२२। पञ्चर्तवः.... हेमन्तशिशिरयोः समासेन-निरु० ४।२७। (पञ्च) पूर्वादिचतस्र उच्चस्था चैका (दिशः) आशाः (पञ्चदशेन) संख्ययाऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये। पा० २।२।२५। इति पञ्चाधिका दश यत्र स पञ्चदशः। बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। पञ्चदशन्-डच्। पञ्चप्राणेन्द्रियभूतानि यस्मिन् तेन जीवात्मना (क्लृप्ताः) समर्थिताः (एकमूर्ध्नीः) श्वन्नुक्षन्पूषन्। उ० १।१५९। मुर्वी बन्धने-कनिन्। एकः परमेश्वरो मूर्धरूपो यासां ता दिशाः (अभि) अभिलक्ष्य (लोकम्) देशम् (एकम्) ॥

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    विषय

    पञ्च

    पदार्थ

    १. (पञ्च व्युष्टीः) = [उष दाहे] (अनु) = पाँच मलों के दहन के पश्चात, अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के मल को दग्ध कर देने पर [प्राणायामदहेद् दोषान्] (पञ्च दोहा:) = पाँचों ज्ञानों का हमारे जीवन में प्रपूरण होता है। निर्मल होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने ज्ञान-प्राप्ति के कार्य को समुचित प्रकार से करती हैं। (पञ्च नाम्नीम्) = [पचि विस्तारे] सर्वव्यापक प्रभु के नामवाली (गां अनु) = बाणी के पीछे (पञ्च ऋतव:) = [ऋगतौ] पाँचों कर्मेन्द्रियों के कार्य नियमित होते हैं-प्रभ-स्मरण के साथ समय पर पाँचों यज्ञ हमारे जीवन में स्थान पाते हैं। २. जिस समय ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान-प्रासि तथा कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि कर्मों को ठीक प्रकार से करती हैं, उस समय (पञ्चदशेन) = [आत्मा पञ्चदश: तां० १९।११।३] 'पाँच प्राणों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों व पाँच कर्मेन्द्रियों' के अधिष्ठाता जीव से (पञ्च दिश: क्लृप्ताः) = पाँचों दिशाएँ शक्तिशाली बनाई जाती हैं। यह उपासक 'प्राची, दक्षिणा, प्रतीची, उदीची व धुवा' इन सब दिशाओं का अधिपति बनने का संकल्प करता है। (ता:) = वे पाँचों दिशाएँ (एकमूर्धनी:) = एक ऊध्वांदिग्रूप शिखरवाली होती हुई-इस साधक को ऊवादिकका अधिपति 'बृहस्पति' बनाती हुई (एकं लोकं अभि) = अद्वितीय प्रकाशमय ब्रह्मलोक की ओर ले-जाती हैं।

    भावार्थ

    हम १. प्राणायाम द्वारा पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के मलों का दहन करें, २. पाँचों कर्मेन्द्रियों से प्रभुस्मरणपूर्वक उत्तम कर्मों को करनेवाले बनें, ३. 'प्राची, दक्षिणा, प्रतीची, उदीची व ध्रुवा' इन पाँचों दिशाओं के अधिपति बनते हुए 'ऊर्खा' दिक् की ओर बढ़ें। अन्ततः प्रकाशमय ब्रह्मलोक को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (पञ्चनाम्नीम्) पांच नसनों अर्थात् झुकावों वाली (गाम् अनु) पृथिवी के अनुसार (पञ्च व्युष्टीः) पांच प्रकार की भिन्न-भिन्न उषाएं हैं, और पाँच व्युष्टियों के (अनु) अनुसार (पञ्चदोहाः) पञ्चविध दोह हैं, पृथिवी में उत्पत्तियां हैं, और पञ्चविध नमनों के अनुसार (पञ्च ऋतवः) पांच ऋतुएं हैं। (पञ्च दिशः) पांच दिशाएं (पञ्चदशेन) १५ कलाओं वाले चन्द्रमा द्वारा (क्लृप्ताः) कल्पित हुई हैं, या निर्मित हुई हैं, (एकमूर्ध्नीः) चन्द्रमारूपी एकमूर्धा वाली (ताः) वे पांच दिशाएं (एकम्, लोकम् अभि) एक पृथिवीलोक की ओर है [फैली हुई हैं]।

    टिप्पणी

    [गाम् = गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। पञ्चनाम्नीम्= पृथिवी अपने अक्ष पर साढ़े ६६ अंश का कोण बनाती हुई सूर्य की परिक्रमा, घड़ी की सुईयों के उल्टे क्रम में अर्थात् दाएं से बाईं ओर करती है । ६६ का कोण पृथिवी का एक "नमन" है। इस "नमन" के साथ पृथिवी के भिन्न-भिन्न भागों के "नमन" अर्थात् झुकाव भी, भिन्न-भिन्न कालों में सूर्य के संमुख होते रहते हैं। इन द्विविध नमनों के कारण ऋतुओं का निर्माण होता है। वेदानुसार ऋतुएं ६ हैं, और इन में से ४ ऋतुओं अर्थात् वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, और शरद् के अपने-अपने विशिष्ट लक्षण अनुभूत होते हैं, परन्तु हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में सर्दी लगभग एक समान होने के कारण इनका पारस्परिक भेद अनुभूत नहीं होता, अतः इन दो ऋतुओं को एक ऋतु मानकर मन्त्र में "ऋतवः पञ्च" कहा है। इस लिये निरुक्त में कहा है कि "इति पञ्चर्तु तथा पञ्चर्तवः संवत्सरस्येति च ब्राह्मणं हेमन्तशिशिरयोः समासेन" (निरुक्त ४।४।२७)। पञ्चदिशः = दिशाएं ५ हैं। मन्त्र में “पञ्च, पञ्च" द्वारा दिशाओं की संख्या भी पांच कही है, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा उर्ध्वा या ध्रुवा दिशाएं। इन दिशाओं का निर्माता कहा है पञ्चदश अर्थात् चन्द्रमा; यथा “चन्द्रमा वै भान्तः पञ्चदश। स च पञ्चदशाहानि आ पूर्यते, पञ्चदशापक्षीयन्ते, भाति च चन्द्रमा ” (शत० ब्राह्मण ४।१।१०)। चन्द्रमा द्वारा भी दिशाओं का निर्माण होता है। अमावस्या के द्वितीय दिन में चन्द्रमा का उदय पश्चिम में, तथा पौर्णमास की रात्री में पूर्व में होता है। इस प्रकार चन्द्रमा भी दिशाओं का ज्ञापक है। दिन में सूर्य द्वारा दिशाओं का निश्चय होता है, और रात्री में चन्द्रमा द्वारा। पांच ऋतुओं की प्रत्येक ऋतु में, पृथिवी के प्रदेशों में उषाओं की चमकों में भी पंचविध भेद हो जाता है। तथा ऋतुभेद के कारण पृथिवी में पञ्चविध दोह अर्थात् उत्पत्तियां भी होती रहती हैं। इन पांच दिशाओं को "एकमूर्ध्नीः" कहा है, अर्थात् एक सिर वाली। जैसे मूर्धा से ज्ञानवाहिनी नाड़ियां समग्र शरीर में व्याप्त हो जाती हैं, इसी प्रकार मानो चन्द्रमा रूपी मूर्धा से पाँच दिशाएं निकल कर "एकलोक" पृथिवी में व्याप्त हो रही हैं। मन्त्र में सब वर्णन कविता में है। इसलिये वेद को काव्य कहते हैं। यथा "देवस्य पश्य काव्यम्" (अथर्व० १०/८/३२; ९।१५।९)। तथा परमेश्वर को कवि कहा है। यथा "कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः" (यजु० ४०।८)। वेदों में कल्पनाएं केवल कल्पनाएं ही नहीं अपितु इन कल्पनाओं में यथार्थता अनुस्यूत रहती है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    In accordance with the laws and states of Prakrti’s five stage evolution, as in accordance with the states of the earth in relation to its own movement on its own axis and around the sun, five are the lights of the dawn, five the showers of natural gifts, and five are the seasons, five the directions set in order with the fifteen facultied human being, all centred on one Divinity and mutually balanced as one macrocosmic as well as one microcosmic personality. Six are the stages of evolution born of the law

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    Translation

    Five-fold dawnings (vyustih), and five milking times corresponding to them; the earth or the cow having five names or titles, and five seasons corresponding to them; and the five quarters have been fashioned by the Pancadaša (Stomti). All of them having one common head are directed towards one abode.

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    Translation

    There in the Virat are included the five elements (Tanmatras) with the five gross elements (Pancha sthula Bhuta); with five directions of the sky are included the five seasons; these are made powerful in their activities by the individual soul which is the master of fifteen—the five vital airs,. five elements and five cognitive organs. They have only one head known as God and one purpose—emancipation.

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    Translation

    Five senses are linked with five elements. Five seasons are like the five breaths of the mind. Five directions are the five organs of cognition, controlled by the soul. These organs are located in the head and, connected with the soul.

    Footnote

    Fourth: Beyond. Satva, Rajas, Tanias or beyond the stages of Jagrit (wakeful) Swapana (sleep) Sushupti (Deep slumber). For detailed explanation consult Mandukya Upanishad.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(पञ्च) पञ्चसंख्याकाः (व्युष्टीः) म० १०। वि+वस निवासे-क्तिन्। विविधनिवासशीलाः। तन्मात्राः (अनु) अनुसृत्य (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतसम्बन्धिनः (दोहाः) पूरिताः पदार्थाः (गाम्) दिशाम् (पञ्चनाम्नीम्) पूर्वादिचतस्र उच्चस्था चैका, ताभिः सह नामयुक्ताम्। यद्वा पञ्चदिक्षु नमनशीलाम् (ऋतवः) वसन्तादयः (अनु) अनुलक्ष्य (पञ्च) अ० ८।२।२२। पञ्चर्तवः.... हेमन्तशिशिरयोः समासेन-निरु० ४।२७। (पञ्च) पूर्वादिचतस्र उच्चस्था चैका (दिशः) आशाः (पञ्चदशेन) संख्ययाऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये। पा० २।२।२५। इति पञ्चाधिका दश यत्र स पञ्चदशः। बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। पञ्चदशन्-डच्। पञ्चप्राणेन्द्रियभूतानि यस्मिन् तेन जीवात्मना (क्लृप्ताः) समर्थिताः (एकमूर्ध्नीः) श्वन्नुक्षन्पूषन्। उ० १।१५९। मुर्वी बन्धने-कनिन्। एकः परमेश्वरो मूर्धरूपो यासां ता दिशाः (अभि) अभिलक्ष्य (लोकम्) देशम् (एकम्) ॥

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