अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
य ए॒वाप॑रिमिताः॒पुण्या॑ लो॒कास्ताने॒व तेनाव॑ रुन्द्धे॥
स्वर सहित पद पाठये । ए॒व । अप॑रिऽमिता: । पुण्या॑: । लो॒का: । तान् । ए॒व । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥१३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
य एवापरिमिताःपुण्या लोकास्तानेव तेनाव रुन्द्धे॥
स्वर रहित पद पाठये । एव । अपरिऽमिता: । पुण्या: । लोका: । तान् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥१३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(ते) अतिथि के उन असंख्यात या अनिश्चित संख्या वाली रात्रियों के कारण, (ये, एव) जो ही (अपरिमिताः) अनिश्चित परिणाम वाले (पुण्याः लोकाः) पुण्यलोक हैं, (तान् एव) उन्हें ही गृहस्थी (अवरुद्धे) अपनाता है, प्राप्त करता है।
टिप्पणी -
[एवम् विद्वान्= पूर्व सूक्तों में कथित योगमुद्रासम्पन्न आदि विद्वान्। ऐसा विद्वान् गृहस्थी के घर में जितनी भी रातें वास करेगा, गृहस्थी को सदुपदेशों द्वारा पुण्यकर्मा तथा पुण्यात्मा बना कर, उसे पुण्य, पुण्यतर, और पुण्यतम लोकों के लिए अधिकार सम्पन्न कर देगा। अतः ऐसे व्रती तथा उपकारी अतिथि के सत्संग के लिए गृहस्थी को सदा आकांक्षावान् होना चाहिये। इन मन्त्रों द्वारा पुनर्जन्म भी सूचित किया है, तथा यह भी दर्शाया है कि पृथिवी के अतिरिक्त और भी नाना लोक हैं जिन में पुण्यकर्मा आत्माएं बस रही हैं, और जो कि पुण्यलोक होने के कारण अधिकाधिक सुखों के धाम हैं। वैदिक साहित्य के अनुसार उपरि उपरि ७ भुवन हैं जो कि उत्तरोत्तर पुण्य, पुण्यतर और पुण्यतम हैं, और तदनुसार अधिकाधिक सुखों के धाम हैं। वे हैं भूः, भुवः स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का विचार निम्नलिखित है:- "पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का "वसु" नाम इस लिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ तथा प्रजा वसती हैं, और ये ही सब को बसाते हैं। जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे ? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता, तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है ? अन्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि की•••• कुछ कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है"। (सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास ८)]