अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 13/ मन्त्र 14
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - अक्षर पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्या॑मे॒वास्य॒तद्दे॒वता॑यां हु॒तं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्या॑म् । ए॒व । अ॒स्य॒ । तत् । दे॒वता॑याम् । हु॒तम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१३.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यामेवास्यतद्देवतायां हुतं भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतस्याम् । एव । अस्य । तत् । देवतायाम् । हुतम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१३.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(यः) जो गृहस्थी (एवम्) इस प्रकार जानता तथा तदनुसार व्यवहार करता है (अस्य) इस गृहस्थी का अन्न, (तस्याम्, एव) अतिथिनिष्ठ-देवतापन में ही (हुतम्) अतिथि यज्ञ में आहुति रूप (भवति) होता है।
टिप्पणी -
[अतिथि को देवता कहते हैं। यथा “अतिथि देवो भव" (तैत्तिरीय उप० बल्ली० १ । अनुवाक ११)। अतिथि देव की सेवा, अतिथि यज्ञ है। अतिथि को दिया अन्न, अतिथि यज्ञ में, अतिथि में जो देवत्व है उस के प्रति आहुत होता है। अतः अभ्यागत की सेवा करना गृहस्थी का धर्म है। विद्वान् तथा व्रात्य अतिथि की सेवा तो गृहस्थी स्वयं करे, परन्तु अव्रात्य अतिथि की सेवा भृत्यों द्वारा कराएं, अतिथि यज्ञ की भावना बनी रहे। अतिथि यज्ञ में अतिथि, देवता है]