अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॑ देवज॒नाःप॑रिष्क॒न्दा आस॑न्त्संक॒ल्पाः प्र॑हा॒य्या॒ विश्वा॑नि भू॒तान्यु॑प॒सदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । दे॒व॒ऽज॒ना: । प॒रि॒ऽस्क॒न्दा: । आस॑न् । स॒म्ऽक॒ल्पा: । प्र॒ऽहा॒य्या᳡: । विश्वा॑नि । भू॒तानि॑ । उ॒प॒ऽसद॑: ॥३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य देवजनाःपरिष्कन्दा आसन्त्संकल्पाः प्रहाय्या विश्वानि भूतान्युपसदः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । देवऽजना: । परिऽस्कन्दा: । आसन् । सम्ऽकल्पा: । प्रऽहाय्या: । विश्वानि । भूतानि । उपऽसद: ॥३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(देवजनाः) व्रात्य के सहवासी देव-जन (तस्य) उस व्रात्य-संन्यासी के (परिष्कन्दाः) सब ओर से रक्षक (आसन्) हुए, (संकल्पाः) व्रात्य के संकल्प (प्रहाय्याः) सन्देशहर हुए, और (विश्वानि) सब (भूतानि) प्राणी-अप्राणी (उपसदः) उस के समीप उपस्थित हुए।
टिप्पणी -
[देवजनाः=विद्वान् जन (मन्त्र १५।२।२,३), विद्वांसो वै देवाः। संकल्पाः- शिवसंकल्प। शिवसंकल्प अधिक शक्तिशाली होते हैं। प्रहाय्याः= प्र+हा (ओहाङ् गतौ)+आय्यः (उणा० ३।९६, ९७, बाहुलकात्)। प्रहाय्याः=प्रेष्याः सन्देशहराः, दूताः। भूतानि उपसदः= योगी संन्यासी के शिवसंकल्परूपी-सन्देशहरों द्वारा संन्यासी के समीप, यथेष्ट प्राणी-तथा-अप्राणी "भूत" उपस्थित हो जाते हैं। यथाः- "यं यमन्तमभिकामो भवति यं कामं कामयते सोऽस्य संकल्पादेव समुत्तिष्ठति तेन संपन्नो महीयते॥" (छान्दो० उप० अ० ८।२।१०) अर्थात् "योगी जिस-जिस वस्तु की समीपता चाहता है, जिस-जिस की कामना करता है, वह इस के संकल्प से ही उपस्थित जाता है। उससे सम्पन्न होकर योगी महत्त्वशाली हो जाता है"। योगी अपने संकल्प रूपी-सन्देशहरों द्वारा जिस-जिस को अपनी इच्छा का सन्देश पहुंचाता है, वह वह उसके समीप उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार सभी भूत उस के पास उपस्थित हो सकते हैं।