अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदार्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
शै॑शि॒रावे॑नं॒मासा॑वू॒र्ध्वाया॑ दि॒शो गो॑पायतो॒ द्यौश्चा॑दि॒त्यश्चानु॑ तिष्ठतो॒ य ए॒वं वेद॑॥
स्वर सहित पद पाठशै॒शि॒रौ । ए॒न॒म् । मासौ॑ । ऊ॒र्ध्वाया॑: । दि॒श: । गो॒पा॒य॒त॒: । द्यौ: । च॒ । आ॒दि॒त्य: । च॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒त॒: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
शैशिरावेनंमासावूर्ध्वाया दिशो गोपायतो द्यौश्चादित्यश्चानु तिष्ठतो य एवं वेद॥
स्वर रहित पद पाठशैशिरौ । एनम् । मासौ । ऊर्ध्वाया: । दिश: । गोपायत: । द्यौ: । च । आदित्य: । च । अनु । तिष्ठत: । य: । एवम् । वेद ॥४.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(शैशिरौ) शिशिर ऋतुसम्बन्धी (मासौ) दो मास (एनम्) इस श्रद्धालु की (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊपर की दिशा से (गोपायतः) रक्षा करते हैं, (द्यौः च) और द्युलोक (आदित्यः च) तथा आदित्य (अनु तिष्ठतः) इस के अनुष्ठानों में सहायक होते हैं (यः) जो व्यक्ति कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार जीवनचर्या करता है।
टिप्पणी -
[दिवम्, द्यौः, आदित्यः= व्रती और परहितकारी संन्यासी, -रात्रि काल में नक्षत्रताराजटित द्युलोक की परमेश्वरीय विभूतियों का, तथा दिन में ताप-प्रकाश द्वारा जीवनशक्ति के प्रदाता आदित्यरूपी परमेश्वरीय विभूति का ध्यान तथा चिन्तन करता है। इस प्रकार द्यौः और आदित्य अनुष्ठान में सहायक होते हैं। शिशिर ऋतु में चन्द्रमा और द्युलोक तथा आदित्य प्रायः मेघावृत न होने से अधिक विभूतिमान् प्रतीत होते हैं। यह ऋतु वर्षकाल की अन्तिम ऋतु है। इस ऋतु में संन्यासी परमेश्वर की अन्तिम वार्षिक विभूतियों का दर्शन करता है।] [विशेष वक्तव्य-सूक्त २ के अनुसार संवत्सरभर प्रचारार्थ उत्थान के पश्चात् सूक्त ३ के अनुसार संवत्सर भर व्रात्य ने स्वाध्यायार्थ आसन्दी पर विश्राम किया। सूक्त ४ में पुनः व्रात्य ने संवत्सरभर प्रचारार्थ उत्थान किया। अतः सम्भवतः एक संवत्सर पुनः विश्राम करना वेदाभिप्राय के अनुकूल हो।]