अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
वा॑स॒न्तौ मासौ॑गो॒प्तारा॒वकु॑र्वन्बृ॒हच्च॑ रथन्त॒रं चा॑नुष्ठा॒तारौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒स॒न्तौ । मासौ॑ । गो॒प्तारौ॑ । अकु॑र्वन् । बृ॒हत् । च॒ । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । च॒ । अ॒नु॒ऽस्था॒तारौ॑ ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वासन्तौ मासौगोप्तारावकुर्वन्बृहच्च रथन्तरं चानुष्ठातारौ ॥
स्वर रहित पद पाठवासन्तौ । मासौ । गोप्तारौ । अकुर्वन् । बृहत् । च । रथम्ऽतरम् । च । अनुऽस्थातारौ ॥४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(वासन्तौ) वसन्तऋतु सम्बन्धी (मासौ) दो मासों को [वैदिक विधियों ने] (गोप्तारौ) व्रात्य संन्यासी के लिये रक्षक (अकुर्वन्) निर्दिष्ट किया है, (बृहत् च) और बृहत् नाम वाले सामगान को (रथन्तरम् च) तथा रथन्तर नाम वाले सामगान को (अनुष्ठातारौ) व्रात्य-संन्यासी के (अनुष्ठातारौ) अनुष्ठानों को सिद्ध करने वाला निर्दिष्ट किया है।
टिप्पणी -
[व्याख्या – व्रात्य संन्यासी ऋतुमयी-तथा-वेदमयी आसन्दी (सूक्त ३) पर स्थित हो कर जीवन्मुक्त की अवस्था में जब पहुंच जाता है, तब उस की मृत्यु या मोक्ष में केवल काल की ही प्रतीक्षा रहती है। इस के लिये किसी अन्य नई साधना की प्रतीक्षा अवशिष्ट नहीं होती। इस लिये जीवन्मुक्त के जीवन को बनाएं रखने में केवल काल ही कारण होता है। जन्म, जीवन तथा मृत्यु का काल के साथ सम्बन्ध अवश्यंभावी है। इसलिये मन्त्र में ऋतुओं को अर्थात् काल को गोप्ता कहा है। "तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्ष्येऽथ" (छां० उ० ६।१४।२)। जीवन्मुक्त भी जब तक जीवित रहता है निज अनुष्ठानों को करता रहता है। भक्ति के सामगान उसके अनुष्ठानों में सहायक होते हैं। इसलिये ये सामगान तब तक चलते रहते हैं जब तक की व्रात्य जीवित रहता है। ऐसो ही भावना अगले मन्त्रों में भी जाननी चाहिये। वासन्तमास= चैत्र, वैशाख। “बृहत्-रथन्तर", चैत्र और वैशाख मासों के सामगान हैं जोकि वसन्त ऋतु के अनुकूल हैं। इसी प्रकार अगले मन्त्रों में निर्दिष्ट सामगान भी कथित ऋतुओं तथा प्रदेशों के अनुकूलरूप जानने चाहिये।]