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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 139

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त १३९

    आ नू॒नम॑श्विना यु॒वं व॒त्सस्य॑ गन्त॒मव॑से। प्रास्मै॑ यच्छतमवृ॒कं पृथु छ॒र्दिर्यु॑यु॒तं या अरा॑तयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नू॒नम् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । व॒त्सस्य॑ । ग॒न्त॒म् । अव॑से । प्र । अस्मै॑ । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒वृ॒कम् । पृ॒थु । छ॒र्दि: । यु॒यु॒तम् । या: । अरा॑तय: ॥१३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नूनमश्विना युवं वत्सस्य गन्तमवसे। प्रास्मै यच्छतमवृकं पृथु छर्दिर्युयुतं या अरातयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नूनम् । अश्विना । युवम् । वत्सस्य । गन्तम् । अवसे । प्र । अस्मै । यच्छतम् । अवृकम् । पृथु । छर्दि: । युयुतम् । या: । अरातय: ॥१३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (अश्विना) हे नगराधिपति! तथा हे सेनाधिपति! (युवम्) तुम दोनों, (वत्सस्य) राष्ट्र में बसे प्रजाजन की (अवसे) रक्षा के लिए (नूनम्) अवश्य (आ गन्तम्) प्रजाजनों में आया-जाया करो। (अस्मै) इस प्रजाजन के लिए (छर्दिः) निवास-योग्य गृहों की (प्र यच्छतम्) व्यवस्था करो, जो गृह कि (पृथु) बड़े-बड़े हों, तथा (अवृकम्) जिन पर चोर-डाकू आक्रमण न कर सकें। और (याः) जो (अरातयः) राष्ट्र के शत्रु हैं, उन्हें (युयुतम्) राष्ट्र से पृथक् कर दिया करो।

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