अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 9
प॒नाय्यं॒ तद॑श्विना कृ॒तं वां॑ वृष॒भो दि॒वो रज॑सः पृथि॒व्याः। स॒हस्रं॒ शंसा॑ उ॒त ये गवि॑ष्टौ॒ सर्वाँ॒ इत्ताँ उप॑ याता॒ पिब॑ध्यै ॥
स्वर सहित पद पाठप॒नाय्य॑म् । तत् । अ॒श्वि॒ना॒ । कृ॒तम् । वा॒म् । वृ॒ष॒भ: । दि॒व: । रज॑स: । पृ॒थि॒व्या: ॥ स॒हस्र॑म् । शंसा॑: । उ॒त । ये । गोऽइ॑ष्टौ । सर्वा॑न् । इत् । तान् । उप॑ । या॒त॒ । पिब॑ध्यै ॥१४३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
पनाय्यं तदश्विना कृतं वां वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः। सहस्रं शंसा उत ये गविष्टौ सर्वाँ इत्ताँ उप याता पिबध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठपनाय्यम् । तत् । अश्विना । कृतम् । वाम् । वृषभ: । दिव: । रजस: । पृथिव्या: ॥ सहस्रम् । शंसा: । उत । ये । गोऽइष्टौ । सर्वान् । इत् । तान् । उप । यात । पिबध्यै ॥१४३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(अश्विना) हे अश्वियो! (वाम्) आप दोनों का, (कृतम्) किया (तत्) वह कर्म (पनाय्यम्) स्तुत्य है, प्रशंसनीय जोकि आप में से प्रत्येक (दिवः) द्युलोक से, (रजसः) अन्तरिक्षलोक से, (पृथिव्याः) तथा पृथिवी लोक से (वृषभः) सुखों की वर्षा करता है। (उत) तथा (शंसा=शंसौ) हे प्रशंसनीय अश्वियो! (गविष्टौ) गो अर्थात् पृथिवी के उत्तमशासनरूपी यज्ञ के निमित्त आप, (पिबध्यै) प्रजा द्वारा भेंट किये विविध अन्नरसों के पानार्थ, (ये) जो (सहस्रम्) हजारों नर-नारियाँ हैं, (तान् सर्वान् उप) उन सबके समीप, (इत्) अवश्य (याता=आ यात) आया करो।
टिप्पणी -
[१३९ से १४३ सूक्तों में अश्वियों का वर्णन हुआ है। आधिभौतिक दृष्टि में इन सूक्तों में, नागरिक प्रजाधिपति तथा सैनिक प्रजाधिपति प्रतीत होते हैं, अर्थात् civil head तथा military-head। निरुक्त में “अश्विनौ” के सम्बन्ध में एक मत यह भी दर्शाया है कि ये “पुण्यकृतौ राजानौ” हैं (निरु০ १२.१.१)। यद्यपि यह मत ऐतिहासिकों का दर्शाया है, परन्तु इन अश्वियों के सूक्तों में “पुण्यकृतौ राजानौ” की दृष्टि से व्याख्या करते हुए कहीं भी इतिहास का सम्बन्ध प्रतीत नहीं हुआ। सम्भवतः आधिभौतिक अर्थ की सम्पुष्टि अथर्ववेद ५.२०.९ में “द्विराजे” शब्द द्वारा भी की गई है। “द्विराजे” का अभिप्राय है “द्विराजे राष्ट्रे” अर्थात् राष्ट्र जिसके कि दो राजा हैं। “पुण्यकृतौ राजानौ” में राजानौ और “द्विराजे” पद में “दो-राजा”—इन अर्थों में समन्वय भी है। राष्ट्र में इतने ऊँचे पदों का और तदनुसारी मान और सत्कार का मिलना—पुण्यकर्मों का ही तो फल है। इसी प्रकार ऋग्वेद ७.३९.२ में “विश्पतीव” इस द्विवचन के प्रयोग के द्वारा भी राष्ट्र के या प्रजा के दो पतियों, अर्थात् राजाओं का निर्देश किया गया है। निरुक्त ५.४.२७ में “विश्पतीव” का अर्थ किया है “सर्वपतीव राजानौ”। सर्वपति का अभिप्राय है—राष्ट्र में रहनेवाले सभी प्रजावर्गों के दो राजा”। “विशः” पद सभी प्रजावर्ग के लिए प्रयुक्त होता है। “अश्विना” के साथ “इन्द्र” का भी वर्णन हुआ है। प्रकरणवश यहाँ “इन्द्र” पद द्वारा सम्राट् अर्थ किया है। सम्राट् का अभिप्राय यहाँ राष्ट्रपति है। सम्राट् के निरीक्षण में, और सम्राट् के निर्देशानुसार ये दोनों अश्वी (=अश्विनौ) राष्ट्र के दो विभागों का शासन करते हैं। मन्त्रों में “इन्द्र” को ऋषि-कोटि का कहा है, और “अश्विनौ” को नासत्यौ कह कर इन दोनों के नैतिक जीवन पर प्रकाश डाला है कि ये दोनों “असत्य व्यवहारों से रहित” होने चाहिएँ। इसी प्रकार इन दोनों के मन्त्रिमण्डल के मन्त्री भी ऋषिकोटि के कहे हैं। साथ ही प्रजा के सम्बन्ध में यह कहा है कि प्रजा के सभी व्यक्ति आस्तिक होने चाहिएँ। और प्रजाजन राष्ट्र को राष्ट्र-यज्ञ समझ कर राष्ट्रोन्नति के लिए अपनी सम्पत्तियों को आहुतिरूप में स्वयं प्रदान किया करें। इस प्रकार सात्विक अधिकारियों द्वारा, सात्विक प्रजा पर किया गया शासन आदर्श शासन है।