अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से। सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । त्वा॒ । गोऽप॑रीणसा । म॒हे । म॒न्द॒न्तु॒ । राध॑से ॥ सर॑: । गौ॒र: । यथा॑ । पि॒ब॒ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इह त्वा गोपरीणसा महे मन्दन्तु राधसे। सरो गौरो यथा पिब ॥
स्वर रहित पद पाठइह । त्वा । गोऽपरीणसा । महे । मन्दन्तु । राधसे ॥ सर: । गौर: । यथा । पिब ॥२२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे उपासक! (इह) इस उपासना-मार्ग में, (गोपरीणसाः) स्तोताओं द्वारा परिगत अर्थात् घिरे हुए गुरुजन, (त्वा) तुझे (महे राधसे) महाधन मोक्ष की प्राप्ति के लिए (मन्दन्तु) प्रगतिशील करें। तू (पिब) भक्तिरस का पान कर। (यथा) जैसे कि (गौरः) तृषित मृग (सरः) तालाब के जल का पान करता है।
टिप्पणी -
[मदन्तु=मद गतौ। परीणस=परि+नस् (=गतौ)। गो=स्तोता (निघं০ ३.१६)।]